भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।
श्रीमद् भगवद्गीता
मूल श्लोकः
Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja
।।7.4।।अस्य विचित्रानन्दभोग्यभोगोपकरणभोगस्थानरूपेण अवस्थितस्य जगतः प्रकृतिः इयं गन्धादिगुणकपृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशादिरूपेण मनःप्रभृतीन्द्रियरूपेण च महदंकाररूपेण च अष्टधा भिन्ना मदीया इति विद्धि।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।7.4 -- 7.5।। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार -- यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी 'अपरा' प्रकृति है। हे महाबाहो ! इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी 'परा' प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।