श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।।18.3।।

 

English Commentary By Swami Sivananda

18.3 त्याज्यम् should be abandoned, दोषवत् (full of) as an evil, इति thus, एके some, कर्म action, प्राहुः declare, मनीषिणः philosophers, यज्ञदानतपःकर्म acts of sacrifice, gift and austerity, न not, त्याज्यम् should be relinished, इति thus, च and, अपरे others.

Commentary:
Some philosophers who follow the doctrine of the Sankhyas declare that all actions,should be abandoned as evil, even by those who are fit for Karma Yoga.Doshavat As an evil All Karmas should be abandoned as involving evil because they cause bondage or that they should be relinished like passion and other such evil tendencies.Others declare that the acts of sacrifice, gifts and austerities should not be given up by those who are fit for Karma Yoga. These are the opinions of some, who are of great understanding.Now listen to Me. I will settle this matter and will tell thee how renunciation should be practised.The subject of the discourse here is about the Karma Yogins only and not about those persons who have gone beyond the path of Karma. It is with reference to the Karma Yogins that these conflicting opinions are held and not with reference to the Jnana Yogins or the Sannyasins who have risen above all worldly concerns.

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।18.3।।कितने ही सांख्यादि मतावलम्बी पण्डितजन कहते हैं कि जिसमें दोष हो वह दोषवत् है। वह क्या है कि बन्धनके हेतु होनेके कारण सभी कर्म दोषयुक्त हैं? इसलिये कर्म करनेवाले कर्माधिकारी मनुष्योंके लिये भी वे त्याज्य हैं? अथवा जैसे रागद्वेष आदि दोष त्यागे जाते हैं? वैसे ही समस्त कर्म भी त्याज्य हैं। इसी विषयमें दूसरे विद्वान कहते हैं कि यज्ञ? दान और तपरूप कर्म त्याग करनेयोग्य नहीं हैं। ये सब विकल्प? कर्म करनेवाले कर्माधिकारियोंको लक्ष्य करके ही किये गये हैं। समस्त भोगोंसे विरक्त ज्ञाननिष्ट? संन्यासियोंको लक्ष्य करके नहीं। ( अभिप्राय यह कि ) सांख्ययोगियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगके द्वारा मैं पहले कह चुका हूँ इस प्रकार जो,( संन्यासी ) कर्माधिकारसे अलग कर दिये गये हैं उनके विषयमें यहाँ कोई विचार नहीं करना है। पू0 -- कर्मयोगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे कही गयी है इस कथनसे जिनकी निष्ठाका विभाग पहले किया जा चुका है? उन कर्माधिकारियोंके सम्बन्धमें जिस प्रकार यहाँ गीताशास्त्रके उपसंहारप्रकरणमें फिर विचार किया जाता है? वैसे ही? सांख्यनिष्ठावाले संन्यासियोंके विषयमें भी तो किया जाना उचित ही है। उ0 -- नहीं? क्योंकि उनका त्याग मोह या दुःखके निमित्तसे होनेवाला नहीं हो सकता। ( भगवान्ने क्षेत्राध्यायमें ) इच्छा और द्वेष आदिको शरीरके ही धर्म बतलाया है इसलिये सांख्यनिष्ठ संन्यासी शारीरिक पीड़ाके निमित्तसे होनेवाले दुःखोंको आत्मामें नहीं देखते। अतः वे शारीरिक क्लेशजन्य दुःखके भयसे कर्म नहीं छोड़ते। तथा वे आत्मामें कर्मोंका अस्तित्त्व भी नहीं देखते? जिससे कि उनके द्वारा मोहसे नियत कर्मोंका परित्याग किया जा सकता हो। सारे कर्म गुणोंके हैं? मैं कुछ भी नहीं करता ऐसा समझकर ही वे कर्मसंन्यास करते हैं? क्योंकि सब कर्मोंको मनसे त्यागकर इत्यादि वाक्योंद्वारा तत्त्वज्ञानियोंके संन्यासका प्रकार ( ऐसा ही ) बतलाया गया है। अतः जो अन्य आत्मज्ञानरहित कर्माधिकारी मनुष्य हैं जिनके द्वारा मोहपूर्वक या शारीरिक क्लेशके भयसे कर्मोंका त्याग किया जाना सम्भव है? वे ही तामस और राजस त्यागी हैं। ऐसा कहकर? आत्मज्ञानरहित कर्माधिकारियोंके कर्मफलत्यागकी स्तुति करनेके लिये? उन राजसतामस त्यागियोंकी निन्दा की जाती है। क्योंकि सर्वारम्भपरित्यागी मौनी संतुष्टो येन केनचित् अनिकेतः स्थिरमतिः इत्यादि विशेषणोंसे ( बारहवें अध्यायमें ) और गुणातीतके लक्षणोंमें भी यथार्थ संन्यासीको पृथक् करके कहा गया है? तथा,ज्ञानकी जो परानिष्ठा है इस प्रकरणमें भी यही बात कहेंगे? इसलिये यहाँ यह विवेचन ज्ञाननिष्ठ संन्यासियोंके विषयमें नहीं है। कर्मफलत्याग ( रूपसंन्यास ) ही सात्त्विकतारूप गुणसे युक्त होनेके कारण यहाँ तामसराजस त्यागकी अपेक्षा गौणरूपसे संन्यास कहा जाता है। यह ( सात्त्विक त्याग ) सर्वकर्मसंन्यासरूप मुख्य संन्यास नहीं,है। पू0 -- न हि देहभृता इत्यादि हेतुयुक्त कथनसे यह पाया जाता है कि स्वरूपसे सर्वकर्मोंका संन्यास असम्भव है? अतः कर्मफलत्याग ही मुख्य संन्यास है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं? क्योंकि यह हेतुयुक्त कथन कर्मफलत्यागकी स्तुतिके लिये है। जिस प्रकार पूर्वोक्त अनेक साधनोंका अनुष्ठान करनेमें असमर्थ और आत्मज्ञानरहित अर्जुनके लिये विहित होनेके कारण,त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् यह कहना कर्मफलत्यागकी स्तुतिमात्र है। वैसे ही न हि देहभृता शक्यम् यह कहना भी कर्मफलत्यागकी स्तुतिके लिये ही है। क्योंकि सब कर्मोंको मनसे छो़ड़कर न करता हुआ और न कराता हुआ रहता है इस पक्षका अपवाद? किसीके द्वारा भी दिखलाया जाना सम्भव नहीं है। सुतरां यह संन्यास और त्यागसम्बन्धी विकल्प? कर्माधिकारियोंके विषयमें ही है। जो यथार्थ ज्ञानी सांख्ययोगी हैं? उनका केवल सर्वकर्मसंन्यासरूप ज्ञाननिष्ठामें ही अधिकार है? अन्यत्र नहीं? अतः वे विकल्पके पात्र नहीं हैं। यही सिद्धान्त हमने वेदाविनाशिनम् इस श्लोककी व्याख्यामें और तीसरे अध्यायके आरम्भमें सिद्ध किया है।

English Translation By Swami Adidevananda

18.3 Some sages say that all actions should be given up as evil; others declare that works such as sacrifices, gifts and austerities should not be given up.

English Translation By Swami Sivananda

18.3 Some philosophers declare that actions should be abandoned as an evil; while others (declare) that acts of sacrifice, gift and austerity should not be relinished.

English Translation By Swami Gambirananda

18.3 Some learned persons say that action, beset with evil (as it is), should be given up, and others (say) that the practice of sacrifice, charity and austertiy should not be given up.