श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।2.18।।

 

English Commentary By Swami Sivananda

2.18 अन्तवन्तः having an end, इमे these, देहाः bodies, नित्यस्य of the everlasting, उक्ताः are said, शरीरिणः of the embodied, अनाशिनः of the indestructible, अप्रमेयस्य of the immesaurable, तस्मात् therefore, युध्यस्व fight, भारत O Bharata.

Commentary:
-- Lord Krishna explains to Arjuna the nature of the allpervading, immortal Self in a variety of ways and thus induces him to fight by removing his delusion, grief and despondency which are born of ignorance.

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.18।।तो फिर वह असत् पदार्थ क्या है जो अपनी सत्ताको छो़ड़ देता है ( जिसकी स्थिति बदल जाती है ) इसपर कहते हैं

जिनका अन्त होता है विनाश होता है वे सब अन्तवाले हैं। जैसे मृगतृष्णादिमें रहनेवाली जलविषयक सत्बुद्धि प्रमाणद्वारा निरूपण की जानेके बाद विच्छिन्न हो जाती है वही उसका अन्त है वैसे ही ये सब शरीर अन्तवान् हैं तथा स्वप्न और मायाके शरीरादिकी भाँति भी ये सब शरीर अन्तवाले हैं।
इसलिये इस अविनाशी अप्रमेय शरीरधारी नित्य आत्माके ये सब शरीर विवेकी पुरुषोंद्वारा अन्तवाले कहे गये हैं। यह अभिप्राय है।



नित्य और अविनाशी यह कहना पुनरुक्ति नहीं है क्योंकि संसारमें नित्यत्वके और नाशके दोदो भेद प्रसिद्ध हैं।
जैसे शरीर जलकर भस्मीभूत हुआ अदृश्य होकर भी नष्ट हो गया कहलाता है और रोगादिसे युक्त हुआ विपरीत परिणामको प्राप्त होकर विद्यमान रहता हुआ भी नष्ट हो गया कहलाता है।
अतः अविनाशी और नित्य इन दो विशेषणोंका यह अभिप्राय है कि इस आत्माका दोनों प्रकारके ही नाशसे सम्बन्ध नहीं है।



ऐसे नहीं कहा जाता तो आत्माका नित्यत्व भी पृथ्वी आदि भूतोंके सदृश होता। परंतु ऐसा नहीं होना चाहिये इसलिये इसको अविनाशी और नित्य कहा है।
प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे जिसका स्वरूप निश्चित नहीं किया जा सके वह अप्रमेय है।
पू0 जब कि शास्त्रद्वारा आत्माका स्वरूप निश्चित किया जाता है तब प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे उसका जान लेना तो पहले ही सिद्ध हो चुका ( फिर वह अप्रमेय कैसे है ) ।
0 यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्मा स्वतः सिद्ध है। प्रमातारूप आत्माके सिद्ध होनेके बाद ही जिज्ञासुकी प्रमाणविषयक खोज ( शुरू ) होती है।
क्योंकि मै अमुक हूँ इस प्रकार पहले अपनेको बिना जाने ही अन्य जाननेयोग्य पदार्थको जाननेके लिये कोई प्रवृत्त नहीं होता। तथा अपना आपा किसीसे भी अप्रत्यक्ष ( अज्ञात ) नहीं होता है।
शास्त्र जो कि अन्तिम प्रमाण है वह आत्मामें किये हुए अनात्मपदार्थोंके अध्यारोपको दूर करनेमात्रसे ही आत्माके विषयमें प्रमाणरूप होता है अज्ञात वस्तुका ज्ञान करवानेके निमित्तसे नहीं।
ऐसे ही श्रुति भी कहती है कि जो साक्षात् अपरोक्ष है वही ब्रह्म है जो आत्मा सबके हृदयमें व्याप्त है इत्यादि।
जिससे कि आत्मा इस प्रकार नित्य और निर्विकार सिद्ध हो चुका है इसलिये तू युद्ध कर अर्थात् युद्धसे उपराम न हो।
यहाँ ( उपर्युक्त कथनसे ) युद्धकी कर्तव्यताका विधान नहीं है क्योंकि युद्धमें प्रवृत्त हुआ ही वह ( अर्जुन ) शोकमोहसे प्रतिबद्ध होकर चुप हो गया था उसके कर्तव्यके प्रतिबन्धमात्रको भगवान् हटाते हैं। इसलिये युद्ध कर यह कहना अनुमोदनमात्र है विधि ( आज्ञा ) नहीं है।
गीताशास्त्र संसारके कारणरूप शोकमोह आदिको निवृत्त करनेवाला है प्रवर्तक नहीं है। इस अर्थकी साक्षिभूत दो ऋचाओंको भगवान् उद्धृत करते हैं।

English Translation By Swami Adidevananda

2.18 These bodiesof the Jiva (the embodied self) are said to have an end while the Jiva itself is eternal, indestructible and incomprehensibel. Therefore, fight O Bharata (Arjuna).

English Translation By Swami Sivananda

2.18 These bodies of the embodied Self, Which is eternal, indestructible and immeasurable, are said to have an end. Therefore fight, O Arjuna.

English Translation By Swami Gambirananda

2.18 These destructible bodies are said to belong to the everlasting, indestructible, indeterminable, embodied One. Therefore, O descendant of Bharata, join the battle.