वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।2.21।।
श्रीमद् भगवद्गीता
2.21 वेद knows, अविनाशिनम् indestructible, नित्यम् eternal, यः who, एनम् this (Self), अजम् unborn, अव्ययम् inexhaustible, कथम् how, सः he (that), पुरुषः man, पार्थ O Partha (son of Pritha), कम् whom, घातयति causes to be slain, हन्ति kills, कम् whom.
Commentary:
The enlightened sage who knows the immutable and indestructible Self through direct cognition or spiritual Anubhava (experience) cannot do the act of slaying. He cannot cause another to slay also.
।।2.21।।य एनं वेत्ति हन्तारम् इस मन्त्रसे आत्मा हननक्रियाका कर्ता और कर्म नहीं है यह प्रतिज्ञा करके तथा न जायते इस मन्त्रसे आत्माकी निर्विकारताके हेतुको बतलाकर अब प्रतिज्ञापूर्वक कहे हुए अर्थका उपसंहार करते हैं
पूर्व मन्त्रमें कहे हुए लक्षणोंसे युक्त इस आत्माको जो अविनाशी अन्तिम भावविकाररूप मरणसे रहित नित्य रोगादिजनित दुर्बलता क्षीणता आदि विकारोंसे रहित अज जन्मरहित और अव्यय अपक्षयरूप विकारसे रहित जानता है।
वह आत्मतत्त्वका ज्ञाताअधिकारी पुरुष कैसे ( किसको ) मारता है और कैसे ( किसको ) मरवाता है अर्थात् वह कैसे तो हननरूप क्रिया कर सकता और कैसे किसी मारनेवालेको नियुक्त कर सकता है
अभिप्राय यह कि वह न किसीको किसी प्रकार भी मारता है और न किसीको किसी प्रकार भी मरवाता है। इन दोनों बातोंमे किम् और कथम् शब्द आक्षेपके बोधक हैं क्योंकि प्रश्नके अर्थमें यहाँ इनका प्रयोग सम्भव नहीं।
निर्विकारतारूप हेतुका तात्पर्य सभी कर्मोंका प्रतिषेध करनेमें समान है इससे इस प्रकरणका अर्थ भगवान्को यही इष्ट है कि आत्मवेत्ता किसी भी कर्मका करने करवानेवाला नहीं होता।
अकेली हननक्रियाके विषयमें आक्षेप करना उदाहरणके रूपमें है।
पू0 कर्म न हो सकनेमें कौनसे खास हेतुको देखकर ज्ञानीके लिये भगवान् कथं स पुरुषः इस कथनसे कर्मविषयक आक्षेप करते हैं
उ0 पहले ही कह आये हैं कि आत्माकी निर्विकारता ही ( ज्ञानीकर्तृक ) सम्पूर्ण कर्मोंके न होनेका खास हेतु है।
पू0 कहा है सही परंतु अविक्रिय आत्मासे उसको जाननेवाला भिन्न है इसलिये ( यह ऊपर बतलाया हुआ ) खास कारण उपयुक्त नहीं है क्योंकि स्थाणुको अविक्रिय जाननेवालेसे कर्म नहीं होते ऐसा नहीं ऐसी शङ्का करें तो
उ0 यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्मा स्वयं ही जाननेवाला है। देह आदि संघातमें ( जड होनेके कारण ) ज्ञातापन नहीं हो सकता इसलिये अन्तमें देहादि संघातसे भिन्न आत्मा ही अविक्रिय ठहरता है और वही जाननेवाला है। ऐसे उस ज्ञानीसे कर्म होना असम्भव है अतः कथं स पुरुष यह आक्षेप उचित ही
है।
जैसे ( वास्तवमें ) निर्विकार होनेपर भी आत्मा बुद्धिवृत्ति और आत्माका भेदज्ञान न रहनेके कारण अविद्याके सम्बन्धसे बुद्धि आदि इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण किये हुए शब्दादि विषयोंका ग्रहण करनेवाला मान लिया जाता है।
ऐसे ही आत्मअनात्मविषयक विवेकज्ञानरूप जो बुद्धिवृत्ति है जिसे विद्या कहते हैं वह यद्यपि असत्रूप है तो भी उसके सम्बन्धसे वास्तव में जो अविकारी है ऐसा आत्मा ही विद्वान् कहा जाता है।
ज्ञानीके लिये सभी कर्म असम्भव बतलाये हैं इस कारण भगवान्का यह निश्चय समझा जाता है कि शास्त्रद्वारा जिन कर्मोंका विधान किया गया है वे सब अज्ञानियोंके लिये ही विहित हैं।
पू0 विद्या भी अज्ञानीके लिये ही विहित है क्योंकि जिसने विद्याको जान लिया उसके लिये पिसेको पीसनेकी भाँति विद्याका विधान व्यर्थ है। अतः अज्ञानीके लिये कर्म कहे गये हैं ज्ञानीके लिये नहीं इस प्रकार विभाग करना नहीं बन सकता।
उ0 यह कहना ठीक नहीं क्योंकि कर्तव्यके भाव और अभावसे भिन्नता सिद्ध होती है अभिप्राय यह कि अग्निहोत्रादि कर्मोंका विधान करनेवाले विधिवाक्योंके अर्थको जान लेनेके बाद अनेक साधन और उपसंहारके सहित अमुक अग्निहोत्रादि कर्म अनुष्ठान करनेके योग्य है मैं कर्ता हूँ मेरा अमुक कर्तव्य है इस प्रकार जाननेवाले अज्ञानीके लिये जैसे कर्तव्य बना रहता है वैसे न जायते इत्यादि आत्मस्वरूपका विधान करनेवाले वाक्योंके अर्थको जान लेनेके बाद उस ज्ञानीके लिये कुछ कर्तव्य शेष नहीं रहता।
क्योंकि ( ज्ञानीको ) मैं न कर्ता हूँ न भोक्ता हूँ इत्यादि जो आत्माके एकत्व और अकर्तृत्व आदिविषयक ज्ञान है इससे अतिरिक्त अन्य किसी प्रकारका भी ज्ञान नहीं होता। इस प्रकार यह ( ज्ञानी और अज्ञानीके कर्तव्यका ) विभाग सिद्ध होता है।
जो अपनेको ऐसा समझता है कि मैं कर्ता हूँ उसकी यह बुद्धि अवश्य ही होगी कि मेरा अमुक कर्तव्य है उस बुद्धिकी अपेक्षासे वह कर्मोंका अधिकारी होता है इसीसे उसके लिये कर्म हैं। और उभौ तौ न विजानीतः इस वचनके अनुसार वही अज्ञानी है।
क्योंकि पूर्वोक्त विशेषणोंद्वारा वर्णित ज्ञानीके लिये तो कथं स पुरुषः इस प्रकार कर्मोंका निषेध करनेवाले वचन हैं।
सुतरां ( यह सिद्ध हुआ कि ) आत्माको निर्विकार जाननेवाले विशिष्ट विद्वान्का और मुमुक्षुका भी सर्वकर्मसंन्यासमें ही अधिकार है।
इसीलिये भगवान् नारायण ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् इस कथनसे सांख्ययोगी ज्ञानियों और कर्मी अज्ञानियोंका विभाग करके अलगअलग दो निष्ठा ग्रहण करवाते हैं।
ऐसे ही अपने पुत्रसे भगवान् वेदव्यासजी कहते हैं कि ये दो मार्ग हैं इत्यादि तथा यह भी कहते हैं कि पहले क्रियामार्ग और पीछे संन्यास।
इसी विभागको बारंबार भगवान् दिखलायेंगे। जैसे अहंकारसे मोहित हुआ अज्ञानी मैं कर्ता हूँ ऐसे मानता है तत्त्ववेत्ता मैं नहीं करता ऐसे मानता है तथा सब कर्मोंका मनसे त्यागकर रहता है इत्यादि।
इस विषयमें कितने ही अपनेको पण्डित समझनेवाले कहते हैं कि जन्मादि छः भावविकारोंसे रहित निर्विकार अकर्ता एक आत्मा मैं ही हूँ ऐसा ज्ञान किसीको होता ही नहीं कि जिसके होनेसे सर्वकर्मोंके संन्यासका उपदेश किया जा सके।
यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि ( ऐसा मान लेनेसे ) न जायते इत्यादि शास्त्रका उपदेश व्यर्थ होगा।
उनसे यह पूछना चाहिये कि जैसे शास्त्रोपदेशकी सामर्थ्यसे कर्म करनेवाले मनुष्यको धर्मके अस्तित्वका ज्ञान और देहान्तरकी प्राप्तिका ज्ञान होता है उसी तरह उसी पुरुषको शास्त्रसे आत्माकी विर्विकारता अकर्तृत्व और एकत्व आदिका विज्ञान क्यों नहीं हो सकता
यदि वे कहें कि ( मनबुद्धि आदि ) करणोंसे आत्मा अगोचर है इस कारण ( उसका ज्ञान नहीं हो
सकता )।
तो यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि मनके द्वारा उस आत्माको देखना चाहिये यह श्रुति है अतः शास्त्र और आचार्यके उपदेशद्वारा एवं शम दम आदि साधनोंद्वारा शुद्ध किया हुआ मन आत्मदर्शनमें करण ( साधन ) है।
इस प्रकार उस ज्ञानप्राप्तिके विषयमें अनुमान और आगमप्रमाणोंके रहते हुए भी यह कहना कि ज्ञान नहीं होता साहसमात्र है।
यह तो मान ही लेना चाहिये कि उत्पन्न हुआ ज्ञान अपनेसे विपरीत अज्ञानको अवश्य नष्ट कर देता है।
वह अज्ञान मैं मारनेवाला हूँ मैं मारा गया हूँ ऐसे मारनेवाले दोनों नहीं जानते इन वचनोंद्वारा पहले दिखलाया ही था फिर यहाँ भी यह बात दिखायी गयी है कि आत्मामें हननक्रियाका कर्तृत्व कर्मत्व और हेतुकर्तृत्व अज्ञानजनति है।
आत्मा निर्विकार होनेके कारण कर्तृत्व आदि भावोंका अविद्यामूलक होना सभी क्रियाओंमे समान है। क्योंकि विकारवान् ही ( स्वयं ) कर्ता ( बनकर ) अपने कर्मरूप दूसरेको कर्ममें नियुक्त करता है कि तू अमुक कर्म कर।
सुतरां ज्ञानीका कर्मोंमें अधिकार नहीं है यह दिखानेके लिये भगवान् वेदाविनाशिनम् कथं स पुरुषः इत्यादि वाक्योंसे सभी क्रियाओंमें समान भावसे विद्वान्के कर्ता और प्रयोजक कर्ता होनेका प्रतिषेध करते हैं।
ज्ञानीका अधिकार किसमें है यह तो ज्ञानयोगेन सांख्यानाम् इत्यादि वचनोंद्वारा पहले ही बतलाया जा चुका है वैसे ही फिर भी सर्वकर्माणि मनसा इत्यादि वाक्योंसे सर्व कर्मोंका संन्यास ( भगवान् ) कहेंगे।
पू0 ( उक्त श्लोकमें ) मनसा यह शब्द है इसलिये मानसिक कर्मोंका ही त्याग बतलाया है शरीर और वाणीसम्बन्धी कर्मोंका नहीं।
उ0 यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि सर्व कर्मोंको छोड़कर इस प्रकार कर्मोंके साथ सर्व विशेषण
है।
पू0 यदि मनसम्बन्धी सर्व कर्मोंका त्याग मान लिया जाय तो
उ0 ठीक नहीं। क्योंकि वाणी और शरीरकी क्रिया मनोव्यापारपूर्वक ही होती है। मनोव्यापारके अभावमें उनकी क्रिया बन नहीं सकती।
पू0 शास्त्रविहित कायिकवाचिक कर्मोंके कारणरूप मानसिक कर्मोंके सिवा अन्य सब कर्मोंका मनसे संन्यास करना चाहिये यह मान लिया जाय तो
उ0 ठीक नहीं। क्योंकि न करता हुआ और न करवाता हुआ यह विशेषण साथमें है ( इसलिये तीनों तरह कर्मोंका संन्यास सिद्ध होता है। )
पू0 यह भगवान्द्वारा कहा हुआ सर्व कर्मोंका संन्यास तो मुमूर्षु के लिये है जीते हुएके लिये नहीं यह माना जाय तो
उ0 ठीक नहीं। क्योंकि ऐसा मान लेनेसे नौ द्वारवाले शरीररूप पुरमें आत्मा रहता है इस विशेषणकी उपयोगिता नहीं रहती।
कारण जो सर्वकर्मसंन्यास करके मर चुका है उसका न करते हुए और न करवाते हुए उस शरीरमें रहना सम्भव नहीं।
पू0 उक्त वाक्यमें शरीरमें कर्मोंको रखकर इस तरह सम्बन्ध है शरीरमें रहता है इस प्रकार सम्बन्ध नहीं है ऐसा मानें तो
उ0 ठीक नहीं है। क्योंकि सभी जगह आत्माको निर्विकार माना गया है। तथा आसन क्रियाको आधारकी अपेक्षा है और संन्यास को उसकी अपेक्षा नहीं है एवं स पूर्वक न्यास शब्दका अर्थ यहाँ त्यागना। है निक्षेप ( रख देना ) नहीं।
सुतरां गीताशास्त्रमें आत्मज्ञानीका संन्यासमें ही अधिकार है कर्मोंमें नहीं। यही बात आगे चलकर आत्मज्ञानके प्रकरणमें हम जगहजगह दिखलायेंगे।