व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्िचत्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।3.2।।
श्रीमद् भगवद्गीता
3.2 व्यामिश्रेण perplexing, इव as it were, वाक्येन with speech, बुद्धिम् understanding, मोहयसि (Thou) confusest, इव as it were, मे my, तत् that, एकम् one, वद tell, निश्चित्य for certain, येन by which, श्रेयः bliss (the good or the highest), अहम् I, आप्नुयाम् may attain.
Commentary:
Arjuna says to Lord Krishna, Tecah me one of the two, knowledge or action, by which I may attain to the highest good or bliss or Moksha. (Cf.V.I).
।।3.2।।तथा यद्यपि भगवान् स्पष्ट कहनेवाले हैं तो भी मुझ मन्दबुद्धिको भगवान्के वाक्य मिले हुएसे प्रतीत होते हैं उन मिले हुएसे वचनोंसे आप मानो मेरी बुद्धिको मोहित कर रहे हैं। वास्तवमें आप तो मेरी बुद्धिका मोह दूर करनेके लिये प्रवृत्त हुए हैं फिर मुझे मोहित कैसे करते इसीलिये कहता हूँ कि आप मेरी बुद्धिको मोहितसी करते हैं। आप यदि अलगअलग अधिकारियोंद्वारा किये जाने योग्य ज्ञान और कर्मका अनुष्ठान एक पुरुषद्वारा किया जाना असम्भव मानते हैं तो उन दोनोंमेंसे ज्ञान या कर्म यही एक बुद्धि शक्ति और अवस्थाके अनुसार अर्जुनके लिये योग्य है ऐसा निश्चय करके मुझसे कहिये जिस ज्ञान या कर्म किसी एकसे में कल्याणको प्राप्त कर सकूँ। यदि कर्मनिष्ठामें गौणरूपसे भी ज्ञानको भगवान्ने कहा होता तो दोनोंमेंसे एक कहिये इस प्रकार एकहीको सुननेकी अर्जुनकी इच्छा कैसे होती क्योंकि ज्ञान और कर्म इन दोनोंमेंसे मैं तुझसे एक ही कहूँगा दोनों नहीं ऐसा भगवान्ने कहीं नहीं कहा कि जिससे अर्जुन अपने लिये दोनोंकी प्राप्ति असम्भव मानकर एकके लिये ही प्रार्थना करता।