न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।3.4।।
श्रीमद् भगवद्गीता
3.4 न not, कर्मणाम् of actions, अनारम्भात् from nonperformance, नैष्कर्म्यम् actionlessness, पुरुषः man, अश्नुते reaches, न not, च and, संन्यसनात् from renunciation, एव only, सिद्धिम् perfection, समधिगच्छति attains.
Commentary:
Actionlessness (Naishkarmyam) and perfection (Siddhi) are synonymous. The sage who has attained to perfection or reached the state of actionlessness rests in his own essential nature as ExistenceKnowledgeBliss Absolute (Satchidananda Svarupa). He has neither necessity nor desire for action as a means to an end. He has perfect satisfaction in the Self.One attains to the state of actionlessness by gaining the knowledge of the Self. If a man simply sits iet by abandoning action you cannot say that he has attained to the state of actionlessness. His mind will be planning, scheming and speculating. Thought is real action. The sage who is free from affirmative thoughts, wishes, and likes and dislikes, who has the knowledge of the Self can be said to have attained to the state of actionlessness.No one can reach perfection or freedom from action or knowledge of the Self by mere renunciation or by simply giving up activities without possessing the knowledge of the Self. (Cf.XVIII.49).
।।3.4।।यह बात स्पष्ट प्रकट करनेकी इच्छासे कि ज्ञाननिष्ठाकी प्राप्तिमें साधन होनेके कारण कर्मनिष्ठा मोक्षरूप पुरुषार्थमें हेतु है स्वतन्त्र नहीं है और कर्मनिष्ठारूप उपायसे सिद्ध होनेवाली ज्ञाननिष्ठा अन्यकी अपेक्षा न रखकर स्वतन्त्र ही मुक्तिमें हेतु है भगवान् बोले कर्मोंका आरम्भ किये बिना अर्थात् यज्ञादि कर्म जो कि इस जन्म या जन्मान्तरमें किये जाते हैं और सञ्चित पापोंका नाश करनेके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धिमें कारण हैं एवं पापकर्मोंका नाश होनेपर मनुष्योंके ( अन्तःकरणमें ) ज्ञान प्रकट होता है इस स्मृतिके अनुसार जो अन्तःकरणकी शुद्धिमें कारण होनेसे ज्ञाननिष्ठाके भी हेतु हैं उन यज्ञादि कर्मोंका आरम्भ किये बिना मनुष्य निष्कर्मभावको कर्मशून्य स्थितिको अर्थात् जो निष्क्रिय आत्मस्वरूपमें स्थित होनारूप ज्ञानयोगसे प्राप्त होनेवाली निष्ठा है उसको नहीं पाता। पू0 कर्मोंका आरम्भ नहीं करनेसे निष्कर्मभावको प्राप्त नहीं होता इस कथनसे यह पाया जाता है कि इसके विपरीत करनेसे अर्थात् कर्मोंका आरम्भ करनेसे मनुष्य निष्कर्मभावको पाता है सो ( इसमें ) क्या कारण है कि कर्मोंका आरम्भ किये बिना मनुष्य निष्कर्मताको प्राप्त नहीं होता उ0 क्योंकि कर्मोंका आरम्भ ही निष्कर्मताकी प्राप्तिका उपाय है और उपायके बिना उपेयकी प्राप्ति हो नहीं सकती यह प्रसिद्ध ही है। निष्कर्मतारूप ज्ञानयोगका उपाय कर्मयोग है यह बात श्रुतिमें और यहाँ गीतामें भी प्रतिपादित है। श्रुतिमें प्रस्तुत ज्ञेयरूप आत्मलोकके जाननेका उपाय बतलाते हुए उस आत्माको बाह्मण वेदाध्ययन और यज्ञसे जाननेका इच्छा करते हैं इत्यादि वचनोंसे कर्मयोगको ज्ञानयोगका उपाय बतलाया है। तथा यहाँ ( गीताशास्त्रमें ) भी हे महाबाहो बिना कर्मयोगके संन्यास प्राप्त करना कठिन है योगी लोग आसक्ति छो़ड़कर अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म किया करते हैं यज्ञ दान और तप बुद्धिमानोंको पवित्र करनेवाले हैं इत्यादि वचनोंसे आगे प्रतिपादित करेंगे। यहाँ यह शंका होती है कि सब भूतोंको अभयदान देकर संन्यास ग्रहण करे इत्यादि वचनोंमें कर्तव्यकर्मोंके त्यागद्वारा भी निष्कर्मताकी प्राप्ति दिखलायी है और लोकमें भी कर्मोंका आरम्भ न करनेसे निष्कर्मताका प्राप्त होना अत्यन्त प्रसिद्ध है। फिर निष्कर्मता चाहनेवालेको कर्मोंके आरम्भसे क्या प्रयोजन इसपर कहते हैं केवल संन्याससे अर्थात् बिना ज्ञानके केवल कर्मपरित्यागमात्रसे मनुष्य निष्कर्मतारूप सिद्धिको अर्थात् ज्ञानयोगसे होनेंवाली स्थितको नहीं पाता।