अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्िचतम्।।5.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
5.1 संन्यासम् renunciation, कर्मणाम् of actions, कृष्ण O Krishna, पुनः again, योगम् Yoga, च and, शंससि (Thou) praisest, यत् which, श्रेयः better, एतयोः of these two, एकम् one, तत् that, मे to me, ब्रूहि tell, सुनिश्चितम् conclusively.
Commentary:
Thou teachest renunciation of actions and also their performance. This has confused me. Tell decisively now which is better. It is not possible for a man to resort to both of them at the same time. Yoga here means Karma Yoga. (Cf.III.2)
।।5.1।।केवल संन्यास करनेमात्रसे ही सिद्धिको प्राप्त नहीं होता है इस वचनसे ज्ञानसहित संन्यासको ही सिद्धिका साधन माना है साथ ही कर्मयोगका भी विधान किया है इसलिये ज्ञानरहित संन्यास कल्याणकर हैअथवा कर्मयोग इन दोनोंकी विशेषता जाननेकी इच्छासे अर्जुन बोला आप पहले तो शास्त्रोक्त बहुत प्रकारके अनुष्ठानरूप कर्मोंका त्याग करनेके लिये कहते हैं अर्थात् उपदेश करते हैं और फिर उनके अनुष्ठानकी अवश्यकर्तव्यतारूप योगको भी बतलाते हैं। इसलिये मुझे यह शङ्का होती है कि इनमेंसे कौनसा श्रेयस्कर है। कर्मोंका अनुष्ठान करना कल्याणकर है अथवा उनका त्याग करना जो श्रेष्ठतर हो उसीका अनुष्ठान करना चाहिये इसलिये इन कर्मसंन्यास और कर्मयोगमें जो श्रेष्ठ हो अर्थात् जिसका अनुष्ठान करनेसे आप यह मानते हैं कि मुझे कल्याणकी प्राप्ति होगी उस भलीभाँति निश्चय किये हुए एक ही अभिप्रायको अलग करके कहिये क्योंकि एक पुरुषद्वारा एक साथ दोनोंका अनुष्ठान होना असम्भव है।