श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अर्जुन उवाच

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।

यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।11.1।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।11.1।। व्याख्या--'मदनुग्रहाय'--मेरा भजन करनेवालोंपर कृपा करके मैं स्वयं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारका नाश कर देता हूँ (गीता 10। 11) -- यह बात भगवान्ने केवल कृपा-परवश होकर कही। इस बातका अर्जुनपर बड़ा प्रभाव प़ड़ा, जिससे अर्जुन भगवान्की स्तुति करने लगे (10। 12 -- 15)। ऐसी स्तुति उन्होंने पहले गीतामें कहीं नहीं की। उसीका लक्ष्य करके अर्जुन यहाँ कहते हैं कि केवल मेरेपर कृपा करनेके लिये ही आपने ऐसी बात कही है (टिप्पणी प0 573.2)

 'परमं गुह्यम्'--अपनी प्रधान-प्रधान विभूतियोंको कहनेके बाद भगवान्ने दसवें अध्यायके अन्तमें अपनी ओरसे कहा कि मैं अपने किसी अंशसे सम्पूर्ण जगत्को, अनन्त-कोटि ब्रह्माण्डोंको व्याप्त करके स्थित हूँ (10। 42) अर्थात् भगवान्ने खुद अपना परिचय दिया कि मैं कैसा हूँ। इसी बातको अर्जुन परम गोपनीय मानते हैं

'अध्यात्मसंज्ञितम्'-- दसवें अध्यायके सातवें श्लोकमें भगवान्ने कहा था कि जो मेरी विभूति और योगको तत्त्वसे जानता है अर्थात् सम्पूर्ण विभूतियोंके मूलमें भगवान् ही हैं और सम्पूर्ण विभूतियाँ भगवान्की सामर्थ्यसे ही प्रकट होती हैं तथा अन्तमें भगवान्में ही लीन हो जाती हैं -- ऐसा तत्त्वसे जानता है, वह अविचल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है। इसी बातको अर्जुन अध्यात्मसंज्ञित मान रहे हैं (टिप्पणी प0 573.3)

'यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम'--सम्पूर्ण जगत् भगवान्के किसी एक अंशमें है -- इस बातपर पहले अर्जुनकी दृष्टि नहीं थी और वे स्वयं इस बातको जानते भी नहीं थे, यही उनका मोह था। परन्तु जब भगवान्ने कहा कि सम्पूर्ण जगत्को अपने एक अंशमें व्याप्त करके मैं तेरे सामने बैठा हूँ, तब अर्जुनकी इस तरफ दृष्टि गयी कि भगवान् कितने विलक्षण हैं! उनके किसी एक अंशमें अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं, उसमें स्थित रहती हैं और उसीमें लीन हो जाती हैं, और वे वैसे-के-वैसे रहते हैं! इस मोहके नष्ट होते ही अर्जुनको यह खयाल आया कि पहले जो मैं इस बातको नहीं जानता था, वह मेरा मोह ही था (टिप्पणी प0 574)। इसलिये अर्जुन यहाँ अपनी दृष्टिसे कहते हैं कि भगवन्! मेरा यह मोह सर्वथा चला गया है। परन्तु ऐसा कहनेपर भी भगवान्ने इसको (अर्जुनके मोहनाशको) स्वीकार नहीं किया; क्योंकि आगे उनचासवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा है कि तेरेको व्यथा और मूढभाव (मोह) नहीं होना चाहिये -- 'मा ते व्यथा मा च विमूढभावः।'

 सम्बन्ध-- मोह कैसे नष्ट हो गया-- इसीको आगेके श्लोकमें विस्तारसे कहते हैं।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।11.1।। पूर्व अध्याय में वर्णित भगवान् की विभूतियों को जानते से हुए अपने परम सन्तोष को? अर्जुन इस प्रारम्भिक श्लोक में व्यक्त करता है। अपने शिष्य पर केवल अनुग्रह करने और उसे मोहदशा से बाहर निकालने के लिए भगवान् ने जो इतना अधिक परिश्रम किया? अर्जुन उसकी भी प्रशंसा करता है। अनेकता में एकता का दर्शन करने का अर्थ संसार के दुख से सुरक्षित रहने के लिए रोग निरोधक टीका लगवाना है। अर्जुन की इस स्वीकारोक्ति से कि? मेरा मोह दूर हो गया है? व्यासजी? एक उत्तम विद्यार्थी पर पड़ने वाले पूर्व अध्याय के प्रभाव को बड़ी सुन्दरता से हमारे ध्यान में लाते हैं।मोह निवृत्ति? सत्य के ज्ञान का एक पक्ष है? न कि वह अपने आप में ज्ञान की प्राप्ति। अर्जुन अज्ञान के कारण नामरूपमय इस सृष्टि में अपना अलग और स्वतन्त्र अस्तित्व अनुभव कर रहा था। वह अब इस भेद के मोह से मुक्त हो चुका था। उसे वह दृष्टि मिल गयी? जिसके द्वारा वह इस भेदात्मक दृश्य जगत् में ही व्याप्त एक सत्ता को देख पाने में समर्थ हो जाता है। परन्तु फिर भी उसने अनेकता में एकता का प्रात्यक्षिक दर्शन नहीं किया था। यद्यपि सिद्धान्तत उसे इस एकत्व का ज्ञान स्वीकार्य था।राजपुत्र अर्जुन यह भलीभांति जानता है कि श्रीकृष्ण ने विभूतियोग का इतना विस्तृत वर्णन केवल उसके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही किया था। यह हमें इस बात का स्मरण कराता है कि किस प्रकार भगवान् अपने भक्तों के हृदय में स्थित उनके अज्ञानजनित अंधकार को नष्ट कर देते हैं।ये अध्यात्मविषयक वचन क्या थे अर्जुन कहता है

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।11.1।।( पूर्वाध्यायमें जो ) भगवान्की विभूतियोंका वर्णन किया गया है उसमें भगवान्से कहे हुए मैं इस सारे जगत्को एक अंशसे व्याप्त करके स्थित हूँ इन वचनोंको सुनकर ईश्वरका जो जगदात्मक आदि स्वरूप है उसका प्रत्यक्ष दर्शन करनेकी इच्छासे अर्जुन बोला --, मुझपर अनुग्रह करनेके लिये आपने जो परम -- अत्यन्त श्रेष्ठ? गुह्य -- गोपनीय? अध्यात्य नामक अर्थात् आत्माअनात्माके विवेचनविषयक वाक्य कहे हैं? उन आपके वचनोंसे मेरा यह मोह नष्ट हो गया है अर्थात् मेरी अविवेकबुद्धि नष्ट हो गयी है।

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English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

11.1 Now Arjuna seeks to perceive, with his own sense-organ (11.eye), what has been taught in the last chapter. The subject matter, learnt through the [teacher's] instructions, becomes ite clear if it is grasped by the knowledge of perception. For that end only the following conversation is made -

English Translation By Swami Sivananda

11.1 Arjuna said By this word (explanation) of the highest secret concerning the Self which Thou hast spoken, for the sake of blessing me, my delusion is gone.

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary By Swami Adidevananda

11.1 Arjuna said To show favour to me, who is deluded by the misconception that the body is the self, these words of supreme mystery concerned with the self, i.e., which is a proper description of the self, have been spoken by You in words beginning from 'There was never a time when I did not exist' (2.12) and ending with, 'Therefore, O Arjuna, become a Yogin' (6.46). By that this delusion of mine about the self is entirely removed.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

11.1 Ayam, this; mahah, delusion; mama, of mine; vigatah, has departed, i.e., my non-discriminating idea has been removed; tena, as a result of that; vacah, speech of Yours; which is paramam, most, supremely; guhyam, secret; and adhyatma-sanjnitam, known as pertaining to the Self-dealing with discrimination between the Self and the non-Self; and yat, which; was uktam, uttered; tvaya, by You; madanugrahaya, for my benefit, out of favour for me. Further,