श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।9.1।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।9.1।। व्याख्या--इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे--भगवान्के मनमें जिस तत्त्वको, विषयको कहनेकी इच्छा है, उसकी तरफ लक्ष्य करानेके लिये ही यहाँ भगवान् सबसे पहले 'इदम्' (यह) शब्दका प्रयोग करते हैं। उस (भगवान्के मन-बुद्धिमें स्थित) तत्त्वकी महिमा कहनेके लिये ही उसको 'गुह्यतमम्' कहा है अर्थात् वह तत्त्व अत्यन्त गोपनीय है। इसीको आगेके श्लोकमें 'राजगुह्यम्' और अठारहवें अध्यायके चौंसठवें श्लोकमें 'सर्वगुह्यतमम्' कहा है।

यहाँ पहले 'गुह्यतमम्'कहकर पीछे (गीता 9। 34 में) 'मन्मना भव' ৷৷. कहा है और अठारहवें अध्यायमें पहले 'सर्वगुह्यतमम्' कहकर पीछे (गीता 18। 65 में) 'मन्मना भव' ৷৷. कहा है। तात्पर्य है कि यहाँका और वहाँका विषय एक ही है, दो नहीं।

    यह अत्यन्त गोपनीय तत्त्व हरेकके सामने नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इसमें भगवान्ने खुद अपनी महिमाका वर्णन किया है। जिसके अन्तःकरणमें भगवान्के प्रति थोड़ी भी दोषदृष्टि है, उसको ऐसी गोपनीय बात कही जाय, तो वह 'भगवान् आत्मश्लाघी हैं --अपनी प्रशंसा करनेवाले हैं' ऐसा उलटा अर्थ ले सकता है। इसी बातको लेकर भगवान् अर्जुनके लिये 'अनसूयवे'विशेषण देकर कहते हैं कि भैया ! तू दोष-दृष्टिरहित है, इसलिये मैं तेरे सामने अत्यन्त गोपनीय बातको फिर अच्छी तरहसे कहूँगा अर्थात् उस तत्त्वको भी कहूँगा और उसके उपायोंको भी कहूँगा -- 'प्रवक्ष्यामि'

'प्रवक्ष्यामि' पदका दूसरा भाव है कि मैं उस बातको विलक्षण रीतिसे और साफ-साफ कहूँगा अर्थात् मात्र मनुष्य मेरे शरण होनेके अधिकारी हैं। चाहे कोई दुराचारी-से-दुराचारी, पापीसेपापी क्यों न हो तथा किसी वर्णका, किसी आश्रमका, किसी सम्प्रदायका, किसी देशका, किसी वेशका, कोई भी क्यों न हो, वह भी मेरे शरण होकर मेरी प्राप्ति कर लेता है-- यह बात मैं विशेषतासे कहूँगा।सातवें अध्यायमें भगवान्के मनमें जितनी बातें कहनेकी आ रही थीं, उतनी बातें वे नहीं कह सके। इसलिये भगवान् यहाँ 'तु' पद देते हैं कि उसी विषयको मैं फिर कहूँगा।'ज्ञानं विज्ञानसहितम्' -- भगवान् इस सम्पूर्ण जगत्के महाकारण हैं -- ऐसा दृढ़तासे मानना 'ज्ञान' है और भगवान्के सिवाय दूसरा कोई (कार्य-कारण) तत्त्व नहीं है--ऐसा अनुभव होना विज्ञान है। इस विज्ञानसहित ज्ञानके लिये ही इस श्लोकके पूर्वार्धमें 'इदम्' और 'गुह्यतमम्'-- ये दो विशेषण आये हैं।

ज्ञान और विज्ञानसम्बन्धी विशेष बात

इस ज्ञान-विज्ञानको जानकर तू अशुभ संसारसे मुक्त हो जायगा। यह ज्ञान-विज्ञान ही राजविद्या, राजगुह्य आदि है। इस धर्मपर जो श्रद्धा नहीं करते, इसपर विश्वास नहीं करते, इसको मानते नहीं, वे मौतरूपी संसारके रास्तेमें पड़ जाते हैं और बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं (9। 1 -- 3) --ऐसा कहकर भगवान्ने 'ज्ञान' बताया। अव्यक्तमूर्ति मेरेसे ही यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है अर्थात् सब कुछ मैं-ही-मैं हूँ; दूसरा कोई है ही नहीं (9। 4 -- 6) --ऐसा कहकर भगवान्ने 'विज्ञान' बताया।

    प्रकृतिके परवश हुए सम्पूर्ण प्राणी महाप्रलयमें मेरी प्रकृतिको प्राप्त हो जाते हैं और महासर्गके आदिमें मैं फिर उनकी रचना करता हूँ। परन्तु वे कर्म मेरेको बाँधते नहीं। उनमें मैं उदासीनकी तरह अनासक्त रहता हूँ। मेरी अध्यक्षतामें प्रकृति सम्पूर्ण प्राणियोंकी रचना करती है। मेरे परम भावको न जानते हुए मूढ़लोग मेरी अवहेलना करते हैं। राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृतिका आश्रय लेनेवालोंकी आशा, कर्म, ज्ञान सब व्यर्थ हैं। महात्मालोग दैवी प्रकृतिका आश्रय लेकर और मेरेको सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि मानकर मेरा भजन करते हैं। मेरेको नमस्कार करते हैं। कई ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे मेरी उपासना करते हैं; आदि-आदि (9। 7 -- 15) -- ऐसा कहकर भगवान्ने 'ज्ञान' बताया। मैं ही क्रतु, यज्ञ, स्वधा, औषध आदि हूँ और सत्असत् भी मैं ही हूँ अर्थात् कार्य-कारणरूपसे जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ (9। 16 -- 19) -- ऐसा कहकर 'विज्ञान' बताया।

जो यज्ञ करके स्वर्गमें जाते हैं, वे वहाँपर सुख भोगते हैं और पुण्य समाप्त होनेपर फिर लौटकर मृत्युलोकमें आते हैं। अनन्यभावसे मेरा चिन्तन करनेवालेका योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ। श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करने-वाले वास्तवमें मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधिपूर्वक। जो मुझे सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी नहीं मानते, उनका पतन हो जाता है। जो श्रद्धा-प्रेमपूर्वक पत्र, पुष्प आदिको तथा सम्पूर्ण क्रियाओंको मेरे अर्पण करते हैं, वे शुभ-अशुभ कर्मोंसे मुक्त हो जाते हैं (9। 20 -- 28) -- ऐसा कहकर भगवान्ने 'ज्ञान' बताया। मैं सम्पूर्ण भूतोंमें सम हूँ। मेरा कोई प्रेम या द्वेषका पात्र नहीं है। परन्तु जो मेरा भजन करते हैं वे मेरेमें और मैं उनमें हूँ (9। 29) --ऐसा कहकर 'विज्ञान' बताया। इसके आगेके पाँच श्लोक (9। 30 -- 34) इस विज्ञानकी व्याख्यामें ही कहे गये हैं (टिप्पणी प0 484)'यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्'--असत्के साथ सम्बन्ध जोड़ना ही 'अशुभ' है, कि जो ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है। असत्-(संसार-) के साथ अपना सम्बन्ध केवल माना हुआ है, वास्तविक नहीं है। जिसके साथ वास्तविक सम्बन्ध नहीं होता, उसीसे मुक्ति होती है। अपने स्वरूपसे कभी किसीकी मुक्ति नहीं होती। अतः मुक्ति उसीसे होती है, जो अपना नहीं है; किन्तु जिसको भूलसे अपना मान लिया है। इस भूलजनित मान्यतासे ही मुक्ति होती है। भूलजनित मान्यताको न माननेमात्रसे ही उससे मुक्ति हो जाती है। जैसे, कपड़ेमें मैल लग जानेपर उसको साफ किया जाता है, तो मैल छूट जाता है। कारण कि मैल आगन्तुक है और मैलकी अपेक्षा कपड़ा पहलेसे है अर्थात् मैल और कपड़ा दो हैं, एक नहीं। ऐसे ही भगवान्का अविनाशी अंश यह जीव भगवान्से विमुख होकर जिस किसी योनिमें जाता है, वहींपर मैंमेरापन करके शरीरसंसारके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है अर्थात् मैल चढ़ा लेता है और जन्मतामरता रहता है। जब यह अपने स्वरूपको जान लेता है अथवा भगवान्के सम्मुख हो जाता है, तब यह अशुभ सम्बन्धसे मुक्त हो जाता है अर्थात् उसका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इसी भावको लेकर भगवान् यहाँ अर्जुनसे कहते हैं कि इस तत्त्वको जानकर तू अशुभसे मुक्त हो जायगा।

 सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें विज्ञानसहित ज्ञान कहनेकी प्रतिज्ञा करके उसका परिणाम अशुभसे मुक्त होना बताया। अब आगेके श्लोकमें उसी विज्ञानसहित ज्ञानकी महिमाका वर्णन करते हैं।

 

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।9.1।। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन में एक मुमुक्षु के लक्षण पाते हैं? जो वास्तव में आत्मोन्नति के द्वारा संसार के समस्त बंधनों का विच्छेदन करना चाहता है। उसे केवल किसी ऐसी सहायता की आवश्यकता है? जिससे कि उसे अपने साधन मार्ग की प्रामाणिकता का दृढ़ निश्चय हो सके। भगवान् कहते हैं कि वे अनसूयु अर्जुन को विज्ञान के सहित ज्ञान का अर्थात् सैद्धान्तिक ज्ञान तथा उसके अनुभव का उपदेश देंगे। असूया का अर्थ है गुणों में भी दोष देखना। अत अनसूयु का अर्थ है वह पुरुष जो असूया रहित है अथवा दोष दृष्टि रहित है। इस ज्ञान का प्रयोजन है? जिसे जानकर तुम अशुभ अर्थात् संसार बंधनों से मुक्त हो जाओगे।जीवन की चुनौतियों का सामना करने में मनुष्य की अक्षमता का कारण यह है कि वह वस्तु और व्यक्ति अर्थात् जगत् का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन करता है। फलत जीवनसंगीत के सुर और लय को वह खो देता है। अपने तथा बाह्य जगत् के वास्तविक स्वरूप को समझने का अर्थ है जगत् के साथ स्वस्थ एवं सुखवर्धक संबंध रखने के रहस्य को जानना। जो पुरुष इस प्रकार समष्टि के साथ एकरूपता पाने में सक्षम है? वही जीवन में निश्चित सफलता और पूर्ण विजय का भागीदार होता है।आन्तरिक विघटन के कारण अपने समय का वीर योद्धा अर्जुन एक विक्षिप्त पुरुष के समान व्यवहार करने लगा था। ऐसे पुरुष को जीवन की समस्यायें अत्यन्त गम्भीर? कर्तव्य महत् कष्टप्रद और स्वयं जीवन एक बहुत बड़ा भार प्रतीत होने लगता है। वे सभी लोग संसारी कहलाते हैं? जो जीवनइंजिन को अपने ऊपर से चलने देकर छिन्नभिन्न हो जाते हैं। इनके विपरीत? जो पुरुष इस जीवनइंजिन में चालक के स्थान पर बैठकर मार्ग के सभी गन्तव्यों को पार करके अपने गन्तव्य तक सुरक्षित पहुँचते हैं? वे आत्मज्ञानी? और सन्त ऋषि कहलाते हैं। यद्यपि आत्मज्ञानी का यह पद मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है? तथापि इस धरोहर का लाभ केवल वह विवेकी प्ाुरुष पाता है? जिसमें अपने जीवन पर विजय पाने का उत्साह और साहस होता है और जो इस पृथ्वी पर ईश्वर के समान रहता है सभी परिस्थितियों का शासक बनकर और जीवन की दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों में हँसता हुआ।जीवन जीने की इस कला के प्रति साधक के मन में रुचि और उत्साह उत्पन्न करने के लिए इस ज्ञान की स्तुति करते हुए भगवान् कहते हैं --

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।9.1।।वहाँ (यह शङ्का होती है कि ) क्या इस प्रकार साधन करनेसे ही मोक्षप्राप्तिरूप फल मिलता है अन्य किसी प्रकारसे नहीं मिलता इस शङ्काको निवृत्त करनेकी इच्छासे श्रीभगवान् बोले --, जो ब्रह्मज्ञान आगे कहा जायगा और जो कि पूर्वके अध्यायोंमें भी कहा जा चुका है? उसको बुद्धिके सामने रखकर यहाँ इदम् शब्दका प्रयोग किया है। तु शब्द अन्यान्य ज्ञानोंसे इसे अलग करके विशेषतासे लक्ष्य करानेके लिये है। यही यथार्थ ज्ञान साक्षात् मोक्षप्राप्तिका साधन है। जो कि सब कुछ वासुदेव ही है आत्मा ही यह समस्त जगत् है ब्रह्म अद्वितीय एक ही है इत्यादि श्रुतिस्मृतियोंसे दिखलाया गया है? ( इसके अतिरिक्त ) और कोई ( मोक्षका साधन ) नहीं है। जो इससे विपरीत जानते हैं वे अपनेसे भिन्न अपना स्वामी माननेवाले मनुष्य विनाशशील लोकोंको प्राप्त होते हैं इत्यादि श्रुतियोंसे भी यही सिद्ध होता है। तुझ असूयारहित भक्तसे मैं यह अति गोपनीय विषय कहूँगा। वह क्या है ज्ञान। कैसा ज्ञान विज्ञानसहित अर्थात् अनुभवसहित ज्ञान। जिस ज्ञानको जानकर अर्थात् पाकर तू संसाररूप बन्धनसे मुक्त हो जायगा।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

9.1 Idam etc. Not to entertain displeasure is an important reisite for communicating knowledge. The words Jnana and Vijnana [mean respectively 'knowledge' and 'action'] as above.

English Translation By Swami Sivananda

9.1 The Blessed Lord said I shall now declare to thee who does not cavil, the greatest secret, the knowledge combined with experience (Self-realisation). Having known this thou shalt be free evil.

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary By Swami Adidevananda

9.1 The Lord said I will declare to you, who does not cavil, this most mysterious knowledge called Upasana, which is of the nature of Bhakti, together with special knowledge, namely, the distinguishing knowledge of how it differs from other meditations. The import is this: You have heard of My eminence, which is distinct in kind from all other forms of greatness and is unlimited in its modes. You must have been convinced that it can be so only and not otherwise. To you whose mind is thus prepared, I shall declare that knowledge by aciring which, and making which your way of life, you will be emancipated from all evil that hinders you from attaining Me.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

9.1 Te, to you; anasuyave, who are not given to cavilling, who are free from carping; pravaksyami, I shall speak of; idam, this. The Lord uttered the word 'this' by bearing in mind as an immediately present fact the knowledge of Brahman that will be and was spoken of in the earlier chapters. The word tu (however) is used for pointing out a distinction [The distinction of Knowledge from meditation that was being discussed.]. (I shall speak) of this itself-what is that?-(it is) guhyatamam, the highest secret; and is jnanam, Knowledge, complete Knowledge-nothing else-, the direct means to Liberation, as stated in the Upanisads and the Smrtis, 'Vasudeva is all' (7.19), 'the Self verily is all this' (Ch. 7.25.2), 'One only, without a second' (op. cit. 6.2.1), etc., and also as stated in such Upanisadic texts as, 'On the other hand, those who understand otherwise than this come under a different ruler, and belong to the worlds that are subject to decay' (op. cit. 7.25.2). (Knowledge) of what kind? It is vijnana-sahitam, combined with experience; jnatva, by realizing, by attaining; yat, which Knowledge; moksyase, you shall be free; asubhat, from evil, from worldly bondage.