श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।।9.33।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।9.33।। व्याख्या--'किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता (टिप्पणी प0 528) राजर्षय स्तथा'-- जब वर्तमानमें पाप करनेवाला साङ्गोपाङ्ग दुराचारी और पूर्वजन्मके पापोंके कारण नीच योनियोंमें जन्म लेनेवाले प्राणी तथा स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र--ये सभी मेरे शरण होकर, मेरा आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं, परम पवित्र हो जाते हैं, तो फिर जिनके पूर्वजन्मके आचरण भी अच्छे हों और इस जन्ममें भी उत्तम कुलमें जन्म हुआ हो, ऐसे पवित्र ब्राह्मण और पवित्र क्षत्रिय अगर मेरे शरण हो जायँ, मेरे भक्त बन जायँ, तो वे परमगतिको प्राप्त हो जायँगे, इसमें कहना ही क्या है! अर्थात् वे निःसन्देह परमगतिको प्राप्त हो जायँगे।

   पहले तीसवें श्लोकमें जिसको दुराचारी कहा है, उसके विपक्षमें यहाँ 'पुण्याः' पद आया है और बत्तीसवें श्लोकमें जिनको 'पापयोनयः' कहा है, उनके विपक्षमें यहाँ 'ब्राह्मणाः' पद आया है। इसका आशय है कि ब्राह्मण सदाचारी भी हैं और पवित्र जन्मवाले भी हैं। ऐसे ही इस जन्ममें जो शुद्ध आचरणवाले क्षत्रिय हैं, उनकी वर्तमानकी पवित्रताको बतानेके लिये यहाँ 'ऋषि' शब्द आया है, और जिनके जन्मारम्भक कर्म भी शुद्ध हैं, यह बतानेके लिये यहाँ 'राजन्' शब्द आया है।

   पवित्र ब्राह्मण और ऋषिस्वरूप क्षत्रिय-- इन दोनोंके बीचमें 'भक्ताः' पद देनेका तात्पर्य है कि जिनके पूर्वजन्मके आचरण भी शुद्ध हैं और जो इस जन्ममें भी सर्वथा पवित्र हैं, वे (ब्राह्मण और क्षत्रिय) अगर भगवान्की भक्ति करने लग जायँ तो उनके उद्धारमें सन्देह हो ही कैसे सकता है'पुण्या ब्राह्मणाः', 'राजर्षयः' और 'भक्ताः' -- ये तीन बातें कहनेका तात्पर्य यह हुआ कि इस जन्मके आचरणसे पवित्र और पूर्वजन्मके शुद्ध आचरणोंके कारण इस जन्ममें ऊँचे कुलमें पैदा होनेसे पवित्र -- ये दोनों तो बाह्य चीजें हैं। कारण कि कर्ममात्र बाहरसे (मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और शरीरसे) बनते हैं तो उनसे जो पवित्रता होगी, वह भी बाह्य ही होगी। इस बाह्य शुद्धिके वाचक ही यहाँ 'पुण्या ब्राह्मणाः' और 'राजर्षयः' -- ये दो पद आये हैं। परन्तु जो भीतरसे स्वयं भगवान्के शरण होते हैं, उनके लिये अर्थात् स्वयंके लिये यहाँ 'भक्ताः' पद आया है।'अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्' -- यह मनुष्यजन्म अनन्त जन्मोंका अन्त करनेवाला होनेसे अन्तिम जन्म है। इस जन्ममें मनुष्य भगवान्के शरण होकर भगवान्को भी सुख देनेवाला बन सकता है। अतः यह मनुष्यजन्म पवित्र तो है, पर अनित्य है -- 'अनित्यम्' अर्थात् नित्य रहनेवाला नहीं है किस समय छूट जाय, इसका कुछ पता नहीं है। इसलिये जल्दीसेजल्दी अपने उद्धारमें लग जाना चाहिये।इस मनुष्यशरीरमें सुख भी नहीं है -- 'असुखम्।' आठवें अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें भगवान्ने मनुष्यजन्मको दुःखालय बताया है। इसलिये मनुष्यशरीर मिलनेपर सुखभोगके लिये ललचाना नहीं चाहिये। ललचानेमें और सुख भोगनेमें अपना भाव और समय खराब नहीं करना चाहिये।यहाँ 'इमं लोकम्' पद मनुष्यशरीरका वाचक है, जो कि केवल भगवत्प्राप्तिके लिये ही मिला है। मनुष्यशरीरके पानेके बाद किसी पूर्वकर्मके कारण भविष्यमें इस जीवका दूसरा जन्म होगा -- ऐसा कोई विधान भगवान्ने नहीं बनाया है, प्रत्युत केवल अपनी प्राप्तिके लिये ही यह अन्तिम जन्म दिया है। अगर इस जन्ममें भगवत्प्राप्ति करना, अपना उद्धार करना भूल गये, तो अन्य शरीरोंमें ऐसा मौका मिलेगा नहीं। इसलिये भगवान् कहते हैं कि इस मनुष्यशरीरको प्राप्त करके केवल मेरा भजन कर। मनुष्यमें जो कुछ विलक्षणता आती है, वह सब भजन करनेसे ही आती है।

'मां भजस्व' से भगवान्का तात्पर्य नहीं है कि मेरा भजन करनेसे मेरेको कुछ लाभ होगा, प्रत्युत तेरेको ही महान् लाभ होगा (टिप्पणी प0 529)। इसलिये तू तत्परतासे केवल मेरी तरफ ही लग जा, केवल मेरा ही उद्देश्य, लक्ष्य रख। सांसारिक पदार्थोंका आनाजाना तो मेरे विधानसे स्वतः होता रहेगा, पर तू अपनी तरफसे उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंका लक्ष्य, उद्देश्य मत रख, उनपर दृष्टि ही मत डाल उनको महत्त्व ही मत दे। उनसे विमुख होकर तू केवल मेरे सम्मुख हो जा।

मार्मिक बात

जैसे माताकी दृष्टि बालकके शरीरपर रहती है, ऐसे ही भगवान् और उनके भक्तोंकी दृष्टि प्राणियोंके स्वरूपपर रहती है। वह स्वरूप भगवान्का अंश होनेसे शुद्ध है,चेतन है, अविनाशी है। परन्तु प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़कर वह तरह-तरहके आचरणोंवाला बन जाता है। उनतीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम हूँ। किसी भी प्राणीके प्रति मेरा राग और द्वेष नहीं है। मेरे सिद्धान्तसे, मेरी मान्यतासे और मेरे नियमोंसे सर्वथा विरुद्ध चलनेवाले जो दुराचारी-से-दुराचारी हैं, वे भी जब मेरेमें अपनापन करके मेरा भजन करते हैं तो उनके वास्तविक स्वरूपकी तरफ दृष्टि रखनेवाला मैं उनको पापी कैसे मान सकता हूँ, नहीं मान सकता। और उनके पवित्र होनेमें देरी कैसे लग सकती है नहीं लग सकती। कारण कि मेरा अंश होनेसे वे सर्वथा पवित्र हैं ही। केवल उत्पन्न और नष्ट होनेवाले आगन्तुक दोषोंको लेकर वे स्वयंसे दोषी कैसे हो सकते हैं? और मैं उनको दोषी कैसे मान सकता हूँ? वे तो केवल उत्पत्तिविनाशशील शरीरोंके साथ 'मैं' और 'मेरा'-पन करनेके कारण मायाके परवश होकर दुराचारमें, पापाचारमें लग गये थे, पर वास्तवमें वे हैं तो मेरे ही अंश! ऐसे ही जो पापयोनिवाले हैं अर्थात् पूर्वके पापोंके कारण जिनका चाण्डाल आदि नीच योनियोंमें और पशु, पक्षी आदि तिर्यक् योनियोंमें जन्म हुआ है, वे तो अपने पूर्वके पापोंसे मुक्त हो रहे हैं। अतः ऐसे पापयोनिवाले प्राणी भी मेरे शरण होकर मेरेको पुकारें तो उनका भी उद्धार हो जाता है। इस प्रकार भगवान्ने वर्तमानके पापी और पूर्वजन्मके पापी -- इन दो नीचे दर्जेके मनुष्योंका वर्णन किया।

   अब आगे भगवान्ने मध्यम दर्जेके मनुष्योंका वर्णन किया। पहले 'स्त्रियः' पदसे स्त्री जातिमात्रको लिया। इसमें ब्राह्मणों और क्षत्रियोंकी स्त्रियाँ भी आ गयी हैं, जो वैश्योंके लिये भी वन्दनीया हैं। अतः इनको पहले रखा है। जो ब्राह्मणों और क्षत्रियोंके समान पुण्यात्मा नहीं हैं, पर द्विजाति हैं, वे वैश्य हैं। जो द्विजाति नहीं हैं अर्थात् जो वैश्योंके समान पवित्र नहीं हैं, वे शूद्र हैं। वे स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र भी मेरा आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं। जो उत्तम दर्जेके मनुष्य हैं अर्थात् जो पूवर्जन्ममें अच्छे आचरण होनेसे और इस जन्ममें ऊँचे कुलमें पैदा होनेसे पवित्र हैं, ऐसे ब्राह्मण और क्षत्रिय भी मेरा आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त हो जायँ, इसमें सन्देह ही क्या है!

भगवान्ने यहाँ (9। 30 -- 33 में) भक्तिके सात अधिकारियोंके नाम लिये हैं -- दुराचारी, पापयोनि, स्त्रियाँ,वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण और क्षत्रिय। इन सातोंमें सबसे पहले भगवान्को श्रेष्ठ अधिकारीका अर्थात् पवित्र भक्त ब्राह्मण या क्षत्रियका नाम लेना चाहिये था। परन्तु भगवान्ने सबसे पहले दुराचारीका नाम लिया है। इसका कारण यह है कि भक्तिमें जो जितना छोटा और अभिमानरहित होता है, वह भगवान्को उतना ही अधिक प्यारा लगता है। दुराचारीमें अच्छाईका, सद्गुण-सदाचारोंका अभिमान नहीं होता, इसलिये उसमें स्वाभाविक ही छोटापन और दीनता रहती है। अतः भगवान् सबसे पहले दुराचारीका नाम लेते हैं। इसी कारणसे बारहवें अध्यायमें भगवान्ने सिद्ध भक्तोंको प्यारा और साधक भक्तोंको अत्यन्त प्यारा बताया है (12। 13 -- 20)।

     अब इस विषयमें एक ध्यान देनेकी बात है कि भगवान्ने यहाँ भक्तिके जो सात अधिकारी बताये हैं, उनका विभाग वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र), आचरण (दुराचारी और पापयोनि) और व्यक्तित्व,(स्त्रियाँ) को लेकर किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि वर्ण (जन्म), आचरण और व्यक्तित्वसे भगवान्की भक्तिमें कोई फरक नहीं पड़ता; क्योंकि इन तीनोंका सम्बन्ध शरीरके साथ है। परन्तु भगवान्का सम्बन्ध स्वरूपके साथ है, शरीरके साथ नहीं। स्वरूपसे तो सभी भगवान्के ही अंश हैं। जब वे भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़कर, उनके सम्मुख होकर भगवान्का भजन करते हैं, तब उनके उद्धारमें कहीं किञ्चिन्मात्र भी फरक नहीं होता; क्योंकि भगवान्के अंश होनेसे वे पवित्र और उद्धार-स्वरूप ही हैं। तात्पर्य यह हुआ कि भक्तिके सात अधिकारियोंमें जो कुछ विलक्षणता, विशेषता आयी है, वह किसी वर्ण, आश्रम, भाव, आचरण आदिको लेकर नहीं आयी है, प्रत्युत भगवान्के सम्बन्धसे, भगवद्भक्तिसे आयी है।

    सातवें अध्यायमें तो भगवान्ने भावोंके अनुसार भक्तोंके चार भेद बताये (7। 16), और यहाँ वर्ण, आचरण एवं व्यक्तित्वके अनुसार भक्तिके अधिकारियोंके सात भेद बताये। इसका तात्पर्य है कि भावोंको लेकर तो भक्तोंमें भिन्नता है, पर वर्ण, आचरण आदिको लेकर कोई भिन्नता नहीं है अर्थात् भक्तिके सभी अधिकारी हैं। हाँ, कोई भगवान्को नहीं चाहता और नहीं मानता --यह बात दूसरी है, पर भगवान्की तरफसे कोई भी भक्तिका अनधिकारी नहीं है।

    मात्र मनुष्य भगवान्के साथ सम्बन्ध जो़ड़ सकते हैं क्योंकि ये मनुष्य भगवान्से स्वयं विमुख हुए हैं, भगवान् कभी किसी मनुष्यसे विमुख नहीं हुए हैं। इसलिये भगवान्से विमुख हुए सभी मनुष्य भगवान्के सम्मुख होनेमें, भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़नेमें, भगवान्की तरफ चलनेमें स्वतन्त्र हैं, समर्थ हैं, योग्य हैं, अधिकारी हैं। इसलिये भगवान्की तरफ चलनेमें किसीको कभी किञ्चिन्मात्र भी निराश नहीं होना चाहिये।

 सम्बन्ध --उन्तीसवें श्लोकसे लेकर तैंतीसवें श्लोकतक भगवान्के भजनकी ही बात मुख्य आयी है। अब आगेके श्लोकमें उस भजनका स्वरूप बताते हैं।

 

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।9.33।। यदि पूर्व श्लोक में वर्णित गुणहीन और साधनहीन लोग भी भक्ति के द्वारा ईश्वर को प्राप्त हो सकते हैं? तो फिर साधन सम्पन्न व्यक्तियों के लिए परमार्थ की प्राप्ति कितनी सरल होगी? यह कहने की आवश्यकता नहीं है। ये साधनसम्पन्न लोग हैं ब्राह्मण अर्थात् शुद्धान्तकरण का व्यक्ति? तथा राजा माने उदार हृदय और दूर दृष्टि का बुद्धिमान व्यक्ति। जिस राजा ने बुद्धिमत्तापूर्वक अपनी राजसत्ता एवं धनवैभव का उपयोग किया हो? वह आत्मानुसंधान के द्वारा वास्तविक शान्ति का अनुभव प्राप्त करता है। ऐसे राजा को ही राजर्षि कहते हैं।सब प्रकार के सम्भावित बुद्धि और हृदय के लोगों का वर्णन करके? और आत्मज्ञान के लिए सबको उपयुक्त साधना का विधान करने के पश्चात्? अब? भगवान् इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए कहते हैं? इस अनित्य और सुखरहित लोक को प्राप्त करके अब तुम मेरा भजन करो। अर्जुन के निमित्त दिया गया उपदेश हम सबके लिए ही है क्योंकि यदि श्रीकृष्ण आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं? तो अर्जुन उस मनुष्य का प्रतिनिधि है? जो जीवन संघर्षों की चुनौतियों का सामना करने में अपने आप को असमर्थ पाता है।असंख्य विषय? इन्द्रियाँ और मन के भाव इनसे युक्त जगत् में ही हमें जीवन जीना होता है। ये तीनों ही सदा बदलते रहते हैं। स्वाभाविक ही? इन्द्रियों के द्वारा विषयोपभोग का सुख अनित्य ही होगा। और दो सुखों के बीच का अन्तराल केवल दुखपूर्ण ही होगा।आशावाद का जो विधेयात्मक और शक्तिप्रद ज्ञान गीता सिखाती है? उसी स्वर में? भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि यह जगत् केवल दुख का गर्त या निराशा की खाई या एक सुखरहित क्षेत्र है।भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि इस अनित्य और सुखरहित लोक को प्राप्त होकर अब उसको नित्य और आनन्दस्वरूप आत्मा की पूजा में प्रवृत्त होना चाहिए। इस साधना में अर्जुन को प्रोत्साहित करने के लिए भगवान् ने यह कहा है कि गुणहीन लोगों के विपरीत जिस व्यक्ति में ब्राह्मण और राजर्षि के गुण होते हैं? उसके लिए सफलता सरल और निश्चित होती है। इसलिए भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करो।हे मेरे प्रभु जब मुझे युद्धभूमि में शत्रुओं का सामना करना हो? तब मैं आपकी पूजा किस प्रकार कर सकता हूँ इस पर भगवान् कहते हैं --

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।9.33।।फिर जो पुण्ययोनि ब्राह्मण और राजर्षि भक्त हैं उनका तो कहना ही क्या है जो राजा भी हों और ऋषि भी हों? वे राजर्षि कहलाते हैं। क्योंकि यह बात है? इसलिये इस अनित्य? क्षणभङ्गुर और सुखरहित मनुष्यलोकको पाकर अर्थात् परम पुरुषार्थके साधनरूप दुर्लभ मनुष्यशरीरको पाकर मुझ ईश्वरका ही भजन कर -- मेरी ही सेवा कर।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

9.32 See Comment under 9.34

English Translation By Swami Sivananda

9.33 How much more (easily) then the hold Brahmins and devoted royal saints (attain the goal); having come to this impermanent and unhappy world, do thou worship Me.

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary By Swami Adidevananda

9.32 - 9.33 Women, Vaisyas and Sudras, and even those who are of sinful birth, can attain the supreme state by taking refuge in Me. How much more then the well-born Brahmanas and royal sages who are devoted to me! Therefore, roayl sage that you are, do worship Me, as you have come to this transient and joyless world stricken by the threefold afflictions. Sri Krsna now describes the nature of Bhakti:

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

9.33 Kim punah, what to speak of; the punyah brahmanah, holy Bramanas, of sacred birth; tatha, as also; of the bhaktah, devout; rajarsayah, kind-sages-those who are kings and, at the same time, sages! Since this is so, therefore, prapya, having come; imam, to this; anityam, ephemeral, ever changeful; and asukham, miserable, unhappy; lokam, world, the human world-having attained this human life which is a means to Liberation; bhajasva, do you worship, devoted yourself; mam to Me. How?