य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।2.19।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.19।।
य एनं प्रकृतं देहिनं वेत्ति विजानाति हन्तारं हननक्रियायाः कर्तारं यश्च एनम् अन्यो मन्यते हतं देहहननेन हतः अहम् इति हननक्रियायाः कर्मभूतम् तौ उभौ न विजानीतः न ज्ञातवन्तौ अविवेकेन आत्मानम्। हन्ता अहम् हतः अस्मि अहम् इति देहहननेन आत्मानमहंप्रत्ययविषयं यौ विजानीतः तौ आत्मस्वरूपानभिज्ञौ इत्यर्थः। यस्मात् न अयम् आत्मा हन्ति न हननक्रियायाः कर्ता भवति न च हन्यते न च कर्म भवतीत्यर्थः अविक्रियत्वात्।।
कथमविक्रय आत्मेति द्वितीयो मन्त्रः
।।2.19।।जो तू मानता है कि मेरेद्वारा युद्धमें भीष्मादि मारे जायँगे मैं ही उनका मारनेवाला हूँ यह तेरी बुद्धि ( भावना ) सर्वथा मिथ्या है। कैसे
जिसका वर्णन ऊपरसे आ रहा है इस आत्माको जो मारनेवाला समझता है अर्थात् हननक्रियाका कर्ता
मानता है और जो दूसरा ( कोई ) इस आत्माको देहके नाशसे मैं नष्ट हो गया ऐसे नष्ट हुआ मानता है अर्थात् हननक्रियाका कर्म मानता है।
वे दोनों ही अहंप्रत्ययके विषयभूत आत्माको अविवेकके कारण नहीं जानते।
अभिप्राय यह कि जो शरीरके मरनेसे आत्माको मैं मारनेवाला हूँ मैं मारा गया हूँ इस प्रकार जानते हैं वे दोनों ही आत्मस्वरूपसे अनभिज्ञ हैं।
क्योंकि यह आत्मा विकाररहित होनेके कारण न तो किसीको मारता है और न मारा जाता है अर्थात् न तो हननक्रियाका कर्ता होता है और न कर्म होता है।