अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।2.24।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.24।।
यस्मात् अन्योन्यनाशहेतुभूतानि एनमात्मानं नाशयितुं नोत्सहन्ते अस्यादीनि तस्मात् नित्यः। नित्यत्वात् सर्वगतः। सर्वगतत्वात् स्थाणुः इव स्थिर इत्येतत्। स्थिरत्वात् अचलः अयम् आत्मा। अतः सनातनः चिरंतनः न कारणात्कुतश्चित् निष्पन्नः अभिनव इत्यर्थः।।
नैतेषां श्लोकानां पौनरुक्त्यं चोदनीयम् यतः एकेनैव श्लोकेन आत्मनः नित्यत्वमविक्रियत्वं चोक्तम् न जायते म्रियते वा इत्यादिना। तत्र यदेव आत्मविषयं किञ्चिदुच्यते तत् एतस्मात् श्लोकार्थात् न अतिरिच्यते किञ्चिच्छब्दतः पुनरुक्तम् किञ्चिदर्थतः इति। दुबोर्धत्वात् आत्मवस्तुनः पुनः पुनः प्रसङ्गमापाद्य शब्दान्तरेण तदेव वस्तु निरूपयति भगवान् वासुदेवः कथं नु नाम संसारिणामसंसारित्वबुद्धिगोचरतामापन्नं सत् अव्यक्तं तत्त्वं संसारनिवृत्तये स्यात् इति।।
किञ्च
।।2.24।।ऐसा होनेके कारण
( यह आत्मा न कटनेवाला न जलनेवाला न गलनेवाला और न सूखनेवाला है )। आपसमें एक दूसरेका नाश कर देनेवाले पञ्चभूत इस आत्माका नाश करनेके लिये समर्थ नहीं है। इसलिये यह नित्य है।
नित्य होनेसे सर्वगत है। सर्वव्यापी होनेसे स्थाणु है अर्थात् स्थाणु ( ठूँठ ) की भाँति स्थिर है। स्थिर होनेसे यह आत्मा अचल है और इसीलिये सनातन है अर्थात् किसी कारणसे नया उत्पन्न नहीं हुआ है। पुराना है।
इन श्लोकोंमें पुनरुक्तिके दोषका आरोप नहीं करना चाहिये क्योकि न जायते म्रियते वा इस एक श्लोकके द्वारा ही आत्माकी नित्यता और निर्विकारता तो कही गयी फिर आत्माके विषयमें जो भी कुछ कहा जाय वह इस श्लोकके अर्थसे अतिरिक्त नहीं है। कोई शब्दसे पुनरुक्त है और कोई अर्थसे ( पुनरुक्त है )।
परंतु आत्मतत्त्व बड़ा दुर्बोध है सहज ही समझमें आनेवाला नहीं है इसलिये बारंबार प्रसंग उपस्थित करके दूसरेदूसरे शब्दोंसे भगवान् वासुदेव उसी तत्त्वका निरूपण करते हैं यह सोचकर कि किसी भी तरह वह अव्यक्त तत्त्व इन संसारी पुरुषोंके बुद्धिगोचर होकर संसारकी निवृत्तिका कारण हो।