सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।5.4।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।5.4।।भिन्न पुरुषोंद्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य परस्परविरुद्ध कर्मसंन्यास और कर्मयोगके फलमें भी विरोध होना चाहिये दोनोंका कल्याणरूप एक ही फल कहना ठीक नहीं इस शङ्काके प्राप्त होनेपर यह कहा जाता है बालबुद्धिवाले ही सांख्य और योगइन दोनोंको अलगअलग विरुद्ध फलदायक बतलाते हैं पण्डित नहीं। ज्ञानी पण्डितजन तो दोनोंका अविरुद्ध और एक ही फल मानते हैं। क्योंकि सांख्य और योगइन दोनोंमेंसे एकका भी भलीभाँति अनुष्ठान कर लेनेवाला पुरुष दोनोंका फल पा लेता है। कारण दोनोंका वही ( एक ) कल्याणरूप ( परमपद ) फल है इसलिये फलमें विरोध नहीं है। पू0 संन्यास और कर्मयोग इन शब्दोंसे प्रकरण उठाकर फिर यहाँ प्रकरणविरुद्ध सांख्य और योगके फलकी एकता कैसे कहते हैं उ0 यह दोष नहीं है। यद्यपि अर्जुनने केवल संन्यास और कर्मयोगको पूछनेके अभिप्रायसे ही प्रश्न कियाथा परंतु भगवान्ने उसके अभिप्रायको न छोड़कर ही अपना विशेष अभिप्राय जोड़ते हुए सांख्य और योग ऐसे इन दूसरे शब्दोंसे उनका वर्णन करके उत्तर दिया है। क्योंकि वे संन्यास और कर्मयोग ही ( क्रमानुसार ) ज्ञानसे और उसके उपायरूप समबुद्धि आदि भावोंसे युक्त हो जानेपर सांख्य और योगके नामसे कहे जाते हैं यह भगवान्का मत है अतः यह वर्णन प्रकरणविरुद्ध नहीं है।