अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।17.28।।
श्रीमद् भगवद्गीता
मूल श्लोकः
Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
।।17.28।।क्योंकि सभी जगह श्रद्धाकी प्रधानतासे ही सब कुछ किया जाता है? इसलिये --, बिना श्रद्धाके किया हुआ हवन? बिना श्रद्धाके ब्राह्मणोंको दिया हुआ दान? तपा हुआ तप तथा और भी जो कुछ बिना श्रद्धाके किया हुआ स्तुति -- नमस्कारादि कर्म है वह सब? हे पार्थ मेरी प्राप्तिके साधनमार्गसे बाह्य होनेके कारण असत् है? ऐसा कहा जाता है। क्योंकि वह बहुत परिश्रमयुक्त होनेपर भी साधु पुरुषोंद्वारा निन्दित होनेके कारण न तो मरनेके पश्चात् फल देनेवाला होता है और न इस लोकमें ही सुखदायक होता है।