त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।
श्रीमद् भगवद्गीता
मूल श्लोकः
Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
।।2.45।।जो इस प्रकार विवेकबुद्धिसे रहित हैं उन कामपरायण पुरुषोंके
वेद त्रैगुण्यविषयक हैं अर्थात् तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारको ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन तू असंसारी हो निष्कामी हो।
तथा निर्द्वन्द्व हो अर्थात् सुखदुःखके हेतु जो परस्पर विरोधी ( युग्म ) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है उनसे रहित हो और नित्य सत्त्वस्थ हो अर्थात् सदा सत्त्वगुणके आश्रित हो।
तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेका नाम योग है और प्राप्त वस्तुके रक्षणका नाम क्षेम है योगक्षेमको प्रधान माननेवालेकी कल्याणमार्गमें प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है अतः तू योगक्षेमको न चाहनेवाला हो।
तथा आत्मवान् हो अर्थात् ( आत्मविषयोंमें ) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठानमें लगे हुएके लिये यह उपदेश है।