श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.55।।श्रीभगवान् बोले हे पार्थ जब मनुष्य मनमें स्थित हृदयमें प्रविष्ट सम्पूर्ण कामनाओंको सारे इच्छा भेदोंको भली प्रकार त्याग देता है छोड़ देता है।
सारी कामनाओंका त्याग कर देनेपर तुष्टिके कारणोंका अभाव हो जाता है और शरीरधारणका हेतु जो प्रारब्ध है उसका अभाव होता नहीं अतः शरीरस्थितिके लिये उस मनुष्यकी उन्मत्तपूरे पागलके सदृश प्रवृत्ति होगी ऐसी शङ्का प्राप्त होनेपर कहते हैं
तब वह अपने अन्तरात्मस्वरूपमें ही किसी बाह्य लाभकी अपेक्षा न रखकर अपनेआप संतुष्ट रहनेवाला अर्थात् परमार्थदर्शनरूप अमृतरसलाभसे तृप्त अन्य सब अनात्मपदार्थोंसे अलंबुद्धिवाला तृष्णारहित पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है अर्थात् जिसकी आत्मअनात्मके विवेकसे उत्पन्न हुई बुद्धि स्थित हो गयी है वह स्थितप्रज्ञ यानी ज्ञानी कहा जाता है।
अभिप्राय यह कि पुत्र धन और लोककी समस्त तृष्णाओंको त्याग देनेवाला संन्यासी ही आत्माराम आत्मक्रीड और स्थितप्रज्ञ है।