भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।11.54।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।11.54।।तो फिर आपके दर्शन किस प्रकार हो सकते हैं इस पर कहते हैं --, भक्ितसे दर्शन हो सकते हैं? सो किस प्रकारकी भक्ितसे हो सकते हैं? यह बतलाते हैं --, हे अर्जुन अनन्य भक्ितसे अर्थात् जो भगवान्को छोड़कर अन्य किसी पृथक् वस्तुमें कभी भी नहीं होती वह अनन्य भक्ति है एवं जिस भक्तिके कारण ( भक्ितमान् पुरुषको ) समस्त इन्द्रियोंद्वारा एक वासुदेव परमात्माके अतिरिक्त अन्य किसीकी भी उपलब्धि नहीं होती? वह अनन्य भक्ित है। ऐसी अनन्य भक्ितद्वारा इस प्रकारके रूपवाला अर्थात् विश्वरूपवाला मैं परमेश्वर शास्त्रोंद्वारा जाना जा सकता हूँ। केवल शास्त्रोंद्वारा जाना जा सकता हूँ इतना ही नहीं? हे परन्तप तत्त्वसे देखा भी जा सकता हूँ अर्थात् साक्षात् भी किया जा सकता हूँ और प्राप्त भी किया जा सकता हूँ अर्थात् मोक्ष भी प्राप्त करा सकता हूँ।
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