श्री भगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।14.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।14.1।।तथा जो यह कहा कि प्रकृतिमें स्थित होना और गुणविषयक आसक्ति -- यही संसारका कारण है? सो किस गुणमें किस प्रकारसे आसक्ति होती है गुण कौनसे हैं वे कैसे बाँधते हैं गुणोंसे छुटकारा कैसे होता है तथा मुक्तका लक्षण क्या है यह सब बातें बतलानेके लिये भी इस अध्यायका आरम्भ किया जाता है --,श्रीभगवान् बोले -- परम् इस पदका दूरस्थ ज्ञानम् पदके साथ सम्बन्ध है। समस्त ज्ञानोंमें उत्तम परम ज्ञानको अर्थात् जो पर वस्तुविषयक होनेसे परम है और उत्तम फलयुक्त होनेके कारण समस्त ज्ञानोंमें उत्तम है? उस परम उत्तम ज्ञानको? यद्यपि पहलेके सब अध्यायोंमें बारबार कह आया हूँ? तो भी फिर भली प्रकार कहूँगा। यहाँ ज्ञानोंमेंसे इस शब्दसे अमानित्वादि ज्ञानसाधनोंका ग्रहण नहीं है। किंतु यज्ञादि ज्ञेयवस्तुविषयक ज्ञानोंका ग्रहण है। वे यज्ञादिविषयक ज्ञान मोक्षके लिये उपयुक्त नहीं हैं और यह ( जो इस अध्यायमें बतलाया जाता है वह ) मोक्षके लिये उपयुक्त है? इसलिये परम और उत्तम इन दोनों शब्दोंसे श्रोताकी बुद्धिमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये इसकी स्तुति करते हैं। जिस ज्ञानको जानकर -- पाकर सब मननशील संन्यासीजन इस देहबन्धनसे मुक्त होनेके बाद मोक्षरूप परम सिद्धिको प्राप्त हुए हैं? ( ऐसा परम ज्ञान कहूँगा )।