श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।

असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।10.3।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।10.3।। जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोकों के महान् ईश्वर के रूप में जानता है, र्मत्य मनुष्यों में ऐसा संमोहरहित (ज्ञानी) पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।10.3।। --,यः माम् अजम् अनादिं च? यस्मात् अहम् आदिः देवानां महर्षीणां च? न मम अन्यः आदिः विद्यते अतः अहम् अजः अनादिश्च अनादित्वम् अजत्वे हेतुः? तं माम् अजम् अनादिं च यः वेत्ति विजानाति लोकमहेश्वरं लोकानां महान्तम् ईश्वरं तुरीयम् अज्ञानतत्कार्यवर्जितम् असंमूढः संमोहवर्जितः सः मर्त्येषु मनुष्येषु? सर्वपापैः सर्वैः पापैः मतिपूर्वामतिपूर्वकृतैः प्रमुच्यते प्रमोक्ष्यते।।इतश्चाहं महेश्वरो लोकानाम् --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।10.3।। जो मुझे जानता है यह जानना केवल भावना के प्रवाह में अथवा बुद्धि के विचारों से जानना नहीं है? वरन् यह पूर्ण और वास्तविक आत्मानुभूति है? जो आत्मा के साथ घनिष्ठ तादात्म्य के क्षणों में होती है। आत्मा को किसी दृश्य के समान नहीं किन्तु स्वस्वरूप से इस प्रकार जानना है कि वह अजन्मा? अनादि और सर्वलोकमहेश्वर है। जो लोग वेदान्त दर्शन की प्राचीन परम्परा से कुछ परिचित हैं? उनके लिए उपर्युक्त ये तीन विशेषण अत्यन्त सारगर्भित हैं? जबकि उससे अनभिज्ञ लोगों को ये विशेषण निरर्थक ही प्रतीत होंगे। अनात्म जड़ जगत् परिच्छिन्न है? जहाँ कि प्रत्येक वस्तु? प्राणी या अनुभव अनित्य हैं? अर्थात् समस्त वस्तुएं आदि (जन्म) और अन्त (मत्यु) से युक्त हैं।असीम अनन्त परमात्मा का कभी जन्म नहीं हो सकता? क्योंकि जो उत्पन्न हुआ है? वह परिच्छिन्न है और किसी भी परिच्छिन्न वस्तु में अनन्त तत्त्व कभी अपने अनन्त स्वरूप में व्यक्त नहीं हो सकता। स्थाणु (स्तम्भ) में जब भ्रान्ति से पुरुष (या प्रेत) की प्रतीति होती है? तब पुरुष का नाश (अप्रतीति) हो सकता है? क्योंकि वह उत्पन्न हुआ था। परन्तु? वास्तव में यह नहीं कहा जा सकता कि स्थाणु ने प्रेत को जन्म दिया? अथवा स्तम्भ से प्रेत की उत्पत्ति हुई। स्थाणु तो वहाँ पहले भी था? है और रहेगा। आत्मा नित्य सनातन है? इसलिए वह जन्मरहित है। अन्य वस्तुओं का जन्म? स्थिति और नाश इस आत्मा में ही होता है। तरंगे समुद्र से उत्पन्न होती हैं? परन्तु समुद्र स्वयं अजन्मा है। प्रत्येक तरंग का आदि है? मध्य है और अन्त भी। किन्तु उन सबका सारतत्त्व इन समस्त विकारों से सर्वथा मुक्त है और इसलिए? इस श्लोक में आत्मा को अनादि विशेषण दिया गया है।लोकमहेश्वर लोक शब्द का अर्थ जगत् करने से इस संस्कृत शब्द के व्यापक आशय की उपेक्षा हो जाती है। लोक शब्द जिस धातु से बनता है उसका अर्थ है देखना? अनुभव करना। अत इसका सम्पूर्ण अर्थ होगा अनुभव का क्षेत्र। हमारे दैनिक जीवन में भी इसी अर्थ में लोक शब्द का प्रयोग किया जाता है? जैसे धनवानों का लोक? अपराधियों का लोक? विद्यार्थी लोक? कवियों का लोक आदि। इसलिए? उसके व्यापक अर्थ में लोक शब्द से मात्र भौतिक जगत् ही नहीं? बल्कि भावनाओं एवं विचारों के जगत् का भी बोध होता है।इस प्रकार? मेरा लोक वह है? जो मैं अपने शरीर? मन और बुद्धि के द्वारा अनुभव करता हूँ। यह तो स्पष्ट है कि जब तक मुझे इनका निरन्तर भान नहीं होता तब तक ये अनुभव मेरे नहीं हो सकते। यह चैतन्य तत्त्व? जिसके कारण ही मैं जीता हूँ और जगत् का अनुभव करता हूँ? वास्तव में मेरे लोक का ईश्वर होना ही चाहिए।जो मेरे व्यष्टि के विषय में सत्य है? वही जगत् के समस्त प्राणियों के विषय में भी सत्य है? क्योंकि आत्मा सर्वत्र एक ही है। इस समष्टि लोक का शासक? महान् ईश्वर स्वयं परमात्मा ही हो सकता है। यह लोक महेश्वर शब्द का वास्तविक अर्थ है। ईश्वर कोई निरंकुश एवं क्रूर शासक अथवा आकाश में बैठा कोई सुल्तान नहीं। आत्मा हमारे लोक का ईश्वर ऐसे ही है? जैसे? दिन के समय सूर्य इस बाह्य जगत् का स्वामी है? क्योंकि वही जगत् को प्रकाशित करता है।जो मुझे अजन्मा? अनादि और लोक महेश्वर के रूप में जानता है? वह संमोहरहित हो जाता है। स्थाणु में प्रेत देखकर भयभीत व्यक्ति जैसे ही उस स्थाणु को पहचानता है? वैसे ही वह मोह और भ्रान्ति से मुक्त हो जाता है। हिन्दू धर्म में पाप की कल्पना किसी विकराल अवश्यंभाविता का भयंकर चित्र नहीं है। मनुष्य अपने पापों के लिए दण्डित नहीं? वरन् अपने पापों के द्वारा ही दण्डित होता है। पाप वह स्वअपमानजनक कर्म है? जिसका कारण है मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का अज्ञान।जब कोई व्यक्ति अपने शुद्ध आत्मस्वरूप से भटक कर दूर चला जाता है? तब वह जगत् की घटनाओं के साथ तादात्म्य कर सुखदुख का अनुभव करता है। वह जगत् में इस प्रकार व्यवहार करता है? मानो वह एक घृणित मांसपिण्ड ही है? अथवा स्पन्दनशील भावनाओं की गठरी अथवा विचारों का समूह मात्र है। उसका यह व्यवहार अपनी एकमेव अद्वितीय ईश्वरीय? दिव्य प्रतिष्ठा का अपमान ही है। ऐसे कर्म और विचार मनुष्य को निम्न स्तर के भोगों में आसक्त कर बाँध देते हैं? जिसके कारण वह उनसे ऊपर उठकर वास्तविक पूर्णत्व के शिखर तक कभी नहीं पहुँच पाता।आत्मस्वरूप को पहचान कर उसमें दृढ़ निष्ठा प्राप्त कर लेने पर वह व्यक्ति पुन कभी पापकर्म में प्रवृत्त नहीं होता। पापवृत्तियाँ वे विषैले फोड़े हैं? जिनके कारण हम अपनी परिच्छिन्नताओं की पीड़ा और बंधनों के दुख सहते रहते हैं। जिस क्षण हम अपने आत्मस्वरूप को पहचानते हैं कि वह अजन्मा और अनादि है तथा उसका विकारी और विनाशी उपाधियों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है? उस समय हम वह सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं जो जीवन में प्राप्तव्य है? और वह सब कुछ जान लेते हैं जो ज्ञातव्य है। ऐसा सम्यक् तत्त्वदर्शी पुरुष स्वयं ही लोकमहेश्वर बन जाता है।निम्न कारण से भी आत्मा लोकमहेश्वर है --

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।10.1 -- 10.5।।प्राक्तनैर्नवभिरध्यायैर्य एवार्थो लक्षितः? स एव प्रतिपदपाठैरस्मिन्नध्याये प्रतायते। तथा चाह -- भूय एव इति। उक्तमेवार्थं स्फुटीकर्तुं (?N?K विस्पष्टीकर्तुं) पुनः कथ्यमानं श्रृण्विति। अर्जुनोऽपि एवमेवाभिधास्यति भूयः कथय (X? 18) इति। इत्यध्यायतात्पर्यम्। शिष्टं निगदव्याख्यातमिति ( -- व्याख्यानमिति) किं पुनरुक्तेन सन्दिग्धं तु निर्णेष्यते।भूय इत्यादि पृथग्विधा इत्यन्तम्। असंमोहः उत्साहः।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

10.3 See Comment under 10.5

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

10.3 Yah, he who; vetti, knows; mam, Me; ajam, the birthless; and anadim, the beginningless: Since I am the source of the gods and the great sages, and nothing else exists as My origin, therefore I am birthless and beginningless. Being without an origin is the cause of being birthless. He who knows Me who am thus birthless and beginningless, and loka-maheswaram, the great Lord of the worlds, the transcendental One devoid of ignorance and its effects; sah, he; the asammudhah, undeluded one; martyesu, among mortals, among human beings; pramucyate, becomes freed; sarva-papaih, from all sins-committed knowingly or unknowingly. 'For the following reason also I am the great Lord of the worlds:'

English Translation By Swami Gambirananda

10.3 He who knows Me-the birthless, the beginningless, and the great Lord of the worlds, he, the undeluded one among mortals, becomes freed from all sins.