श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।11.54।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।11.54।। परन्तु हे परन्तप अर्जुन! अनन्य भक्ति के द्वारा मैं तत्त्वत: 'जानने', 'देखने' और 'प्रवेश' करने के लिए (एकी भाव से प्राप्त होने के लिए) भी, शक्य हूँ!।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।11.54।। --,भक्त्या तु किंविशिष्टया इति आह -- अनन्यया अपृथग्भूतया? भगवतः अन्यत्र पृथक् न कदाचिदपि या भवति सा त्वनन्या भक्तिः। सर्वैरपि करणैः वासुदेवादन्यत् न उपलभ्यते यया? सा अनन्या भक्तिः? तया भक्त्या शक्यः अहम् एवंविधः विश्वरूपप्रकारः हे अर्जुन? ज्ञातुं शास्त्रतः। न केवलं ज्ञातुं शास्त्रतः? द्रष्टुं च साक्षात्कर्तुं तत्त्वेन तत्त्वतः? प्रवेष्टुं च मोक्षं च गन्तुं परंतप।।अधुना सर्वस्य गीताशास्त्रस्य सारभूतः अर्थः निःश्रेयसार्थः अनुष्ठेयत्वेन समुच्चित्य उच्यते --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।11.54।।,भक्ति के विषय में आचार्य शंकर कहते हैं कि? सभी मोक्ष साधनों में भक्ति ही श्रेष्ठ है और यह भक्ति स्वस्वरूप के अनुसंधान के द्वारा आत्मस्वरूप बन जाती है।प्रिय के साथ तादात्म्य ही प्रेम का वास्तविक मापदण्ड है। भक्त अपने व्यक्तिगत जीवभाव के अस्तित्व को विस्मृत कर? जब प्रेम में अपने प्रिय भगवान् के साथ तादात्म्य को प्राप्त हो जाता है? तब उस प्रेम की परिसमाप्ति पराभक्ति या अनन्य भक्ति कहलाती है। आत्मज्ञान का जिज्ञासु आध्यात्मिक विधान के अनुसार उपाधियों के साथ अपने निम्नस्तर को त्यागने के लिए बाध्य होता है। अनात्मा के तादात्म्य को त्यागने पर ही शुद्ध आत्मस्वरूप की पहचान हो सकती है।केवल वे साधकगण? जो इस जगत् को एक सूत्र में धारण करने वाले सत्य के साथ तादात्म्य कर सकते हैं? वे ही मुझे इस रूप में अर्थात् विराटरूप में अनुभव कर सकते हैं।जिन तीन क्रमिक सोपानों में सत्य का साक्षात्कार होता है? उसका निर्देश भगवान् इन तीन शब्दों से करते हैं जानना देखना और प्रवेश करना। सर्व प्रथम एक साधक को अपने साध्य तथा साधन का बौद्धिक ज्ञान आवश्यक होता है? जिसे यहां जानना शब्द से सूचित किया गया है और इसका साधन है श्रवण।इस प्रकार कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेने पर मन में सन्देह उत्पन्न होते हैं इन सन्देहों की निवृत्ति के लिए प्राप्त ज्ञान पर युक्तिपूर्वक मनन करना अत्यावश्यक होता है। सन्देहों की निवृत्ति होने पर तत्त्व का दर्शन (देखना) होता है। तत्पश्चात् निदिध्यासन के अभ्यास से मिथ्या उपाधियों के साथ तादात्म्य को सर्वथा त्यागकर आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाना ही उसमें प्रवेश करना है। आत्मा का यह अनुभव स्वयं से भिन्न किसी वस्तु का नहीं? वरन् अपने स्वस्वरूप का है। प्रवेश शब्द से साधक और साध्य के एकत्व का बोध कराया गया है। स्वप्नद्रष्टा के स्वाप्निक दुखों का तब अन्त हो जाता है? जब वह जाग्रत पुरुष में प्रवेश करके स्वयं जाग्रत पुरुष बन जाता है।स्वयं भगवान् ही अपनी प्राप्ति का उपाय बताते हैं

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।11.54 -- 11.55।।भक्त्येति। मत्कर्मेति। अविद्यमानान्यज्ञेयरमणीया येषां भक्तिः परिस्फुरति तेषां [ ज्ञानवान् ] मां प्रपद्यते (? N omit मां प्रपद्यते)। वासुदेवः सर्वम् (Gita VII? 19 ) इत्यादिपूर्वाभिहितोपदेशचमत्कारात् विश्वात्मकं वासुदेवतत्त्वम् अयत्नत एव बोधपदवीमवतरति इति।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

11.54 See comment under 11.55

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

11.54 Tu, but, O Arjuna; bhaktya, by devotion-. Of what kind? To this the Lord says: Ananyaya, by (that devotion which is ) single-minded. That is called single-minded devotion which does not turn to anything else other than the Lord, and owing to which nothing else but Vasudeva is perceived by all the organs. With that devotion, aham sakyah, am I able; evamvidhah, in this form-in the aspect of the Cosmic form; jnatum, to to known-from the scriptures; not merely to be known from the scriptures, but also drastum, to be seen , to be realized directly; tattvena, in reality; and also pravestum, to be entered into-for attaining Liberation; parantapa, O destroyer of foes. Now the essential purport of the whole scripture, the Gita, which is meant for Liberation, is being stated by summing it up so that it may be practised:

English Translation By Swami Gambirananda

11.54 But, O Arjuna, by single-minded devotion am I-in this form-able to be known and seen in reality, and also be entered into, O destroyer of foes.