यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्ितमान्यः स मे प्रियः।।12.17।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।12.17।। जो न हर्षित होता है और न द्वेष करता है; न शोक करता है और न आकांक्षा; तथा जो शुभ और अशुभ को त्याग देता है, वह भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है।।
।।12.17।। --,यः न हृष्यति इष्टप्राप्तौ? न द्वेष्टि अनिष्टप्राप्तौ? न शोचति प्रियवियोगे? न च अप्राप्तं काङ्क्षति? शुभाशुभे कर्मणी परित्यक्तुं शीलम् अस्य इति शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् यः सः मे प्रियः।।
।।12.17।। वह पुरुष परम भक्त कहलाता है जिसने मन और बुद्धि की अनात्म उपाधियों तथा जगत् से अपने तादात्म्य को त्याग कर आनन्दस्वरूप आत्मा में दृढ़ स्थिति प्राप्त कर ली है। अत यह स्वाभाविक ही है कि अनात्म जगत् से होने वाले सुखदुखादिक अनुभव उसे किसी भी प्रकार से न आकर्षित कर सकते हैं और न विचलित। इसे ही इस श्लोक में बताया गया है।सामान्य मनुष्य जगत् की सभी वस्तुओं को वे जैसी हैं? वैसी ही नहीं देखता। उसे कोई वस्तु प्रिय होती है? तो कोई अप्रिय। तत्पश्चात् वह प्रिय वस्तु की आकांक्षा या इच्छा करता है और अप्रिय से द्वेष। इसके पश्चात्? तीसरा द्वन्द्व उत्पन्न होता हैं प्रवृत्ति और निवृत्ति का? अर्थात् इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए और द्वेष्य वस्तु को त्यागने के लिए वह प्रयत्न करता है। इसके परिणामस्वरूप इष्ट की प्राप्ति होने पर वह हर्षित होता है? अन्यथा शोक करता है। ज्ञानी भक्त में इन समस्त विकारों और प्रतिक्रियाओं का यहाँ अभाव बताया गया है। इसका कारण यह है कि वह अपने परम आनन्दस्वरूप में स्थित होने के कारण बाह्य मिथ्या वस्तुओं में सुख और दुख की कल्पना करके उनसे राग या द्वेष नहीं करता। राग और द्वेष के द्वन्द्व के अभाव में हर्ष और शोक का स्वत अभाव हो जाता है। वह भक्त जगत् को अपनी कल्पना की दृष्टि से न देखकर यथार्थ रूप में देखता है।शभाशुभपरित्यागी जब मनुष्य अपने आनन्दस्वरूप को नहीं जानता है वह बाह्य जगत् में सुख और शान्ति की खोज करता रहता है। उस स्थिति में? अपने राग और द्वेष के कारण वस्तुओं की प्राप्ति के लिए शुभ और अशुभ (पुण्य और पाप) दोनों ही प्रकार के कर्म करता है। परन्तु? भक्त के मन में राग और द्वेष नहीं होने के कारण वह शुभ और अशुभ दोनों ही से मुक्त हो जाता है।इस प्रकार हम देखते हैं कि उपर्युक्त श्लोक में प्रयुक्त सभी शब्दों का एक विशेष गूढ़ अभिप्राय है? अन्यथा केवल वाच्यार्थ को ही स्वीकार करने पर ऐसा प्रतीत होगा कि ज्ञानी भक्त कोई शव अथवा पाषाण मात्र है? क्योंकि वह न इच्छा करता है और न द्वेष न हर्षित होता है और न दुखी अर्थात् वह मृत पड़ा रहता है यह श्लोक इस बात का अत्यन्त प्रभावी उदाहरण है कि धर्मशास्त्रों के शब्दों का वाच्यार्थ उसके मर्म या प्रयोजन को स्पष्ट नहीं करता है। अत उनके लक्ष्यार्थ पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।इस श्लोक में वर्णित गुणें से युक्त भक्त भगवान् को प्रिय होता है। यह श्लोक प्रस्तुत प्रकरण का चतुर्थ भाग है? जिसमें ज्ञानी भक्त के और छ लक्षण बताये गये हैं। इस प्रकार अब तक छब्बीस गुणों को बताया गया है? जो भक्त के स्वाभाविक लक्षण होते हैं।
।।12.15 -- 12.20।।यस्मादित्यादि मे प्रिया इत्यन्तम्। अनिकेतः -- इदमेव मया कर्तव्यम् इति यस्य नास्ति प्रतिज्ञा। यथाप्राप्तहेवाकितया सुखदुःखादिकमुपभुञ्ज्ञानः परमेश्वरविषयसमावेशितहृदयः सुखेनैव प्राप्नोति परमकैवल्यम् इति।
।।शिवम्।।