श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।12.5।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।12.5।। परन्तु उन अव्यक्त में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों को क्लेश अधिक होता है, क्योंकि देहधारियों से अव्यक्त की गति कठिनाईपूर्वक प्राप्त की जाती है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।12.5।। --,क्लेशः अधिकतरः? यद्यपि मत्कर्मादिपराणां क्लेशः अधिक एव क्लेशः अधिकतरस्तु अक्षरात्मनां परमात्मदर्शिनां देहाभिमानपरित्यागनिमित्तः। अव्यक्तासक्तचेतसाम् अव्यक्ते आसक्तं चेतः येषां ते अव्यक्तासक्तचेतसः तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसाम्। अव्यक्ता हि यस्मात् या गतिः अक्षरात्मिका दुःखं सा देहवद्भिः देहाभिमानवद्भिः अवाप्यते? अतः क्लेशः अधिकतरः।।अक्षरोपासकानां यत् वर्तनम्? तत् उपरिष्टाद्वक्ष्यामः --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।12.5।। सगुण और निर्गुण दोनों के ही उपासकों को एक ही लक्ष्य की प्राप्ति बताने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण दोनों मार्गों की तुलना करने का प्रय़त्न करते हैं जबकि वास्तव में वे अतुलनीय हैं तथा समान प्रभाव और गुण वाले हैं। भगवान् कहते हैं? अव्यक्त के उपासकों को सगुणोपासकों की अपेक्षा अधिक कष्ट होता है। इस कथन को इतना ही और इसी रूप में समझने पर ऐसा प्रतीत होगा कि यह कथन न केवल सगुणोपासना का समर्थन ही करता है? बल्कि निर्गुणोपासना की निश्चयात्मक रूप से निन्दा भी करता है। इस प्रकार की त्रुटिपूर्ण और पथभ्रष्टक व्याख्या गीता को उपनिषत्प्रतिपादित सनातन ज्ञान का खण्डन करने वाला शास्त्र बना देगी। भक्ति मार्ग के कुछ वाचाल समर्थक ऐसे हैं? जो श्रद्धालु धर्मप्राण जनता को छलने के लिए इस श्लोकार्थ को ही उद्धृत करते हैं स्वयं भगवान् ही प्रथम पंक्ति के तात्पर्य को दूसरी पंक्ति में स्पष्ट करते हैं। अव्यक्त के उपासकों को अधिक क्लेश क्यों होता है भगवान् बताते हैं कि देहधारियों के द्वारा अव्यक्त की गति कठिनाई से प्राप्त की जाती है। इस श्लोक में परीक्षणीय शब्द है देहवद्भि अर्थात् देहधारियों के द्वारा। प्राय इस शब्द का यही वाच्यार्थ स्वीकार किया जाता है। परन्तु यदि हम इस प्रकार की व्याख्या के दूसरे स्वाभाविक पक्ष को देखें? तो ऐसे अर्थ की असंगति स्पष्ट हो जायेगी। यदि सभी देहधारी मनुष्य केवल सगुणसाकार की ही उपासना कर सकते हैं? तो इसका अर्थ यह होगा कि निराकार का ध्यान करना केवल देहत्याग के बाद ही संभव होगा।इसलिए? श्रीशंकराचार्य इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि देहवद्भि का अर्थ है देहाभिमानवद्भि अर्थात् देहधारी से तात्पर्य उन लोगों से है? जिन्हें देहाभिमान बहुत दृढ़ है। जो देह को ही अपना स्वरूप समझते हैं? वे लोग उनमें आसक्त होकर सदा विषयोपभोग का ही जीवन जीते हैं। ऐसे विषयासक्त पुरषों के लिए अनन्त निराकार और सर्वव्यापी तत्त्व का ध्यान करना प्राय असंभव होता है। जिसकी दृष्टि मन्द हो और हाथ काँपते हों? ऐसे वृद्ध व्यक्ति को सुई में धागा डालने में बड़ी कठिनाई हो सकती है। इसी प्रकार? जो मन और बुद्धि क्षुब्ध हैं? चंचल और विषयोपभोग में लालायित रहती है? ऐसे अन्तकरण से युक्त पुरुष समस्त नाम और रूपों के अतीत अनन्त आत्मवैभव को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि स्वयं अव्यक्तोपासना में कष्ट नहीं है? वरन् देहाभिमानियों के लिए वह कष्टप्रद प्रतीत होती है।संक्षेप में बहुसंख्यक साधकों के लिए विश्व में व्यक्त भगवान् के सगुण साकार रूप का ध्यान करना अधिक सरल और लाभदायक है। यदि मनुष्य जगत् की सेवा को ही ईश्वर की पूजा समझकर करे? तो शनैशनै उसकी देहासक्ति तथा विषयोपभोग की तृष्णा समाप्त हो जाती है। और मन इतना शुद्ध और सूक्ष्म हो जाता है कि फिर वह निराकार? अव्यक्त और अविनाशी तत्त्व का ध्यान करने में समर्थ हो जाता है।अक्षरोपासकों के जीवनवर्तन के विषय को इसी अध्याय के अन्तिम भाग में वर्णन किया जायेगा। तथापि अब? सगुण की उपासना करने वालों के लिए उपयोगी साधनाओं का वर्णन किया जा रहा है

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।12.3 -- 12.5।।येत्वित्यादि अवाप्यते इत्यन्तम्। ये पुनरक्षरं (S ये त्वक्षरम्) ब्रह्म उपास्ते आत्मानं [ तैरपि ] सर्वत्रगम् इत्यादिभिर्विशेषणैः आत्मनः सर्वे ईश्वरधर्मा आरोप्यन्ते। अतो ब्रह्मोपासका अपि मामेव यद्यपि यान्ति तथापि अधिकतरस्तेषां क्लेशः। आत्मनि किल अपहतपाप्मत्वादिगुणाष्टकारोपं विधाय पश्चात्तमेव उपासते इति स्वतः सिद्धगुणग्रामगरिमणि ईश्वरे ( ईश्वरेऽपि) अयत्नसाध्ये स्थितेऽपि द्विगुणमायासं विन्दन्ति।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

12.3-5 Ye tu etc. upto avapyate. On the other hand, those, who contemplate on the Self as the motionless Brahman - by them also all the attributes of Absolute Lord are superimposed on the Self - the attributes that are indicated by the adjectives 'omni-present' etc. Therefore even the contemplators of the [attributeless] Brahman reach nothing but Me, of course. However, the trouble they undergo, is much more. For, they [first] superimposed on the Self the actonary of attributes like absence-of-sin etc., and then comtemplate on It. Thus, while without any effort [on the part of the contemplator] the Lord is readily available with the greatness due to the host of self-accomplished attributes, these persons undergo two-fold trouble.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

12.5 Tesam, for them; avyakta-asakta-cetasam, who have their minds attached to the Unmanifest; klesah,the struggle; is adhika-tarah, greater. Although the trouble is certainly great for those who are engaged in works etc. for Me, still owing to the need of giving up self-identification with the body, it is greater in the case of those who accept the Immutable as the Self and who kept in view the supreme Reality. Hi, for; avyakta gatih, the Goal which is the Unmanifest-(the goal) which stands in the form of the Immutable; that is avapyate, attained; duhkham, with difficulty; dehavadbhih, by the embodied ones, by those who identify themselves with the body. Hence the struggle is greater. We shall speak later of the conduct of those who meditate on the Unmanifest.

English Translation By Swami Gambirananda

12.5 For them who have their minds attached to the Unmanifested the struggle is greater; for, the Goal which is the Unmanifest is attained with difficulty by the embodied ones.