श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।

एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।13.2।।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।13.2।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे कौन्तेय ! यह शरीर क्षेत्र कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसे तत्त्वज्ञ जन, क्षेत्रज्ञ कहते हैं।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।13.2।। --,इदम् इति सर्वनाम्ना उक्तं विशिनष्टि शरीरम् इति। हे कौन्तेय? क्षतत्राणात्? क्षयात्? क्षरणात्? क्षेत्रवद्वा अस्मिन् कर्मफलनिष्पत्तेः क्षेत्रम् इति -- इतिशब्दः एवंशब्दपदार्थकः -- क्षेत्रम् इत्येवम् अभिधीयते कथ्यते। एतत् शरीरं क्षेत्रं यः वेत्ति विजानाति? आपादतलमस्तकं ज्ञानेन विषयीकरोति? स्वाभाविकेन औपदेशिकेन वा वेदनेन विषयीकरोति विभागशः? तं वेदितारं प्राहुः कथयन्ति क्षेत्रज्ञः इति -- इतिशब्दः एवंशब्दपदार्थकः एव पूर्ववत् -- क्षेत्रज्ञः इत्येवम् आहुः। के तद्विदः तौ क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ ये विदन्ति ते तद्विदः।।एवं क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ उक्तौ। किम् एतावन्मात्रेण ज्ञानेन ज्ञातव्यौ इति न इति उच्यते --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।13.2।। पूर्णत्व का अनुभव आत्मरूप से होता है? न कि दृश्य रूप से। हिन्दू ऋषियों का इस विषय में एकमत है कि अन्तर्मुखी होकर आत्मविचार करना ही आत्मबोध तथा उसके साक्षात् अनुभव का साधन मार्ग है। इस अध्याय में आत्मा और उसकी उपाधियों का सुन्दर दार्शनिक पद्धति से विभाजन किया गया है। आत्मानात्मविवेक जनित बोध ही साधक को दर्शायेगा कि किस प्रकार पारमर्थिक सत्य की दृष्टि से जड़ अनात्मा का आत्यन्तिक (सर्वथा) अभाव है।जाग्रत पुरुष ही अपनी किसी एक विशेष मनस्थिति से स्वप्नद्रष्टा बन जाता है? और जब तक स्वप्न बना रहता है तब तक उस स्वप्नद्रष्टा के लिये वह अत्यन्त सत्य प्रतीत होता है। परन्तु जाग जाने पर उस स्वप्न का अभाव हो जाता है? और जाग्रत् पुरुष यह जानता है कि वह स्वप्न उसके ही मन का विभ्रम मात्र था। इसी प्रकार आत्मानुभूति की वास्तविक जागृति में इस दृश्य प्रपंच का अभाव होता है। साधक अपने आत्मस्वरूप से ही आत्मा का अनुभव करता है? जिसमें इस छायारूप जगत् का कोई अस्तित्व ही नहीं है।इस प्रकार? वेदान्त दर्शन के अनुसार विचार करने पर ज्ञात होता है कि समस्त प्राणी दो तत्त्वों से बने हैं। एक तत्त्व है जड़अचेतन और दूसरा है चेतन तत्त्व। प्रस्तुत श्लोक में इन दोनों को परिभाषित किया गया है।यह शरीर क्षेत्र कहलाता है इस यान्त्रिक युग में यह समझना सरल है कि ऊर्जा को व्यक्त होने अथवा कार्य करने के लिए उपयुक्त क्षेत्र की आवश्यकता होती है। तभी वह व्यक्त होकर मानव की सेवा कर सकती है।इंजन के बिना वाष्पशक्ति तथा पंखे के बिना विद्युत् शक्ति हमें क्रमश गति और मन्द समीर प्रदान नहीं कर सकती। इसी प्रकार? जिन शरीरादि उपाधियों के माध्यम से आत्मचैतन्य व्यक्त होता है? उन्हें ही यहाँ क्षेत्र कहा गया है।इसको जो जानता है उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं यह क्षेत्र जड़ पदार्थों से बना हुआ है। तथापि? इसमें चैतन्य की अभिव्यक्ति होने से यह कार्य करता है और विषयों को जानता है। वास्तव में? यह चेतन तत्त्व जो इन उपाधियों से व्यक्त होकर विषयों को प्रकाशित कर रहा है वह क्षेत्रज्ञ है। शास्त्रीय भाषा में कहेंगे कि उपाधि से अवच्छिन्न चैतन्य ही क्षेत्रज्ञ अथवा जीव कहलाता है।जब तक जीव शरीर धारण किये रहता है? उसकी उपस्थिति जानने की प्रवृत्ति से स्पष्ट ज्ञात होती है। इस जिज्ञासा की प्रवृत्ति की मात्रा विभिन्न व्यक्तियों में विभिन्न तारतम्य में हो सकती है। परन्तु? इसके व्यक्त होने को ही हम जीवन का लक्षण मानते हैं। प्राणी की विषय ग्रहण की तथा उनके प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करने की क्षमता ही जीवन का व्यवहार है? और जब यह ज्ञाता? शरीर का त्याग करके चला जाता है तब हम उस शरीर को मृत घोषित करते हैं। यह ज्ञाता ही क्षेत्रज्ञ है।तद्विद (तत्त्वज्ञजन) यहाँ? भगवान् श्रीकृष्ण हमें आश्वस्त करते हैं कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की ये परिभाषाएं उनकी स्वच्छन्द घोषणा नहीं हैं और न ही ये केवल परिकल्पित अनुमान है? अपितु स्वयं ब्रह्मनिष्ठ ऋषियों द्वारा ही ये प्रमाणित की गई हैं। संक्षेप में? संपूर्ण जड़ जगत् क्षेत्र है? और चैतन्य स्वरूप आत्मा क्षेत्रज्ञ कहा जाता है।क्या इस विषय में केवल इतना ही जानना है नहीं? आगे सुनो

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।13.2 -- 13.3।।क्वचित् श्रुतौ क्षेत्रज्ञ उपास्यः इति श्रूयते। स च किमात्मा? उत ईश्वरः अथ तृतीयः कश्चिदन्य एव इति प्रश्नाशङ्कायाम् -- श्रीभगवानादिशतिं -- इदमिति? क्षेत्रज्ञमिति। संसारिणां शरीरं क्षेत्रम्? यत्र कर्मबीजप्ररोहः। अत एव तेषामात्मा आगन्तुककालुष्यरूषितः क्षेत्रज्ञ उच्यते। प्रबुद्धानां तदेव क्षेत्रम्। अन्वर्थभेदस्तु तद्यथा -- क्षिणोति कर्मबन्धमुपभोगेन? त्रायते जन्ममरणभयात् इति। तांश्च प्रति परमात्मा वासुदेवः (S? वासुदेवाख्यः) क्षेत्रज्ञः। एतत्क्षेत्रं (S?N यो वेदयति। वेदेत्यन्तर्भा यो वेदयति अन्तर्भा -- ) यो वेद? वेदयति इत्यन्तर्भावितण्यर्थो (N -- ण्यर्थोऽत्र) विदिः। तेन यत्प्रसादादचेतनमिदं चेतनीभावमायाति स एव क्षेत्रज्ञो नान्यः कश्चित्। विशेषस्तु परिमितव्याप्तिकं रूपमालम्ब्य आत्मेति भण्यते अपरिच्छिन्नसर्वक्षेत्रव्याप्त्या परमात्मा भगवान् वासुदेवः। ममेति कर्मणि षष्ठी अहमनेन ज्ञानेन ज्ञेयः इत्यर्थः।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

13.2 See Comment under 13.3

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

13.2 The Lord specifies the body as the object referred to by the pronoun idam (this). O son of Kunti, (this body) abhidhiyate, is referred to; ksetram iti, as the field-because it is protected (tra) against injury (ksata), or because it perishes (ksi), wastes away (ksar), or because the results of actions get fulfilled in the body as in a field (ksetra). The word iti is used in the sense of 'as'. They-who?-tadvidah, who are versed in this, who know the 'field' and the 'knower of the field'; ahuh, call; tam, him, the knower; yah, who; vetti etat, is concious of, knows, it, the body, the field-makes it, from head to foot, an abject of his knowledge; makes it an object of perception as a separate entity, through knowledg which is spontaneous or is acired through instruction; ksetrajna iti, as the knower of the field. As before, the word iti is used in the sense of 'as'. They call him as the knower of the field. Is it that the field and the knower of the field thus mentioned are to be understood through this much knowledge only? The answer is, no.

English Translation By Swami Gambirananda

13.2 The Blessed Lord said O son of Kunti, this body is referred to as the 'field'. Those who are versed in this call him who is conscious of it as the 'knower of the field'.