श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।15.1।।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।15.1।। श्री भगवान् ने कहा -- (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।15.1।। -- ऊर्ध्वमूलं कालतः सूक्ष्मत्वात् कारणत्वात् नित्यत्वात् महत्त्वाच्च ऊर्ध्वम् उच्यते ब्रह्म अव्यक्तं मायाशक्तिमत्? तत् मूलं अस्येति सोऽयं संसारवृक्षः ऊर्ध्वमूलः। श्रुतेश्च -- ऊर्ध्वमूलोऽर्वाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः (क0 उ0 2।6।1) इति। पुराणे च -- अव्यक्तमूलप्रभवस्तस्यैवानुग्रहोच्छ्रितः। बुद्धिस्कन्धमयश्चैव इन्द्रियान्तरकोटरः।।महाभूतविशाखश्च विषयैः पत्रवांस्तथा। धर्माधर्मसुपुष्पश्च सुखदुःखफलोदयः।।आजीव्यः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। एतद्ब्रह्मवनं चैव ब्रह्माचरति नित्यशः।।एतच्छित्त्वा च भित्त्वा च ज्ञानेन परमासिना। ततश्चात्मरतिं प्राप्य तस्मान्नावर्तते पुनः।। इत्यादि। तम् ऊर्ध्वमूलं संसारं मायामयं वृक्षम् अधःशाखं महदहंकारतन्मात्रादयः शाखा इव अस्य अधः भवन्तीति सोऽयं अधःशाखः? तम् अधःशाखम्। न श्वोऽपि स्थाता इति अश्वत्थः तं क्षणप्रध्वंसिनम् अश्वत्थं प्राहुः कथयन्ति अव्ययं संसारमायायाः अनादिकालप्रवृत्तत्वात् सोऽयं संसारवृक्षः अव्ययः? अनाद्यन्तदेहादिसंतानाश्रयः हि सुप्रसिद्धः? तम् अव्ययम्। तस्यैव संसारवृक्षस्य इदम् अन्यत् विशेषणम् -- छन्दांसि यस्य पर्णानि? छन्दांसि च्छादनात् ऋग्यजुःसामलक्षणानि यस्य संसारवृक्षस्य पर्णानीव पर्णानि। यथा वृक्षस्य परिरक्षणार्थानि पर्णानि? तथा वेदाः संसारवृक्षपरिरक्षणार्थाः? धर्माधर्मतद्धेतुफलप्रदर्शनार्थत्वात्। यथाव्याख्यातं संसारवृक्षं समूलं यः तं वेद सः वेदवित्? वेदार्थवित् इत्यर्थः। न हि समूलात् संसारवृक्षात् अस्मात् ज्ञेयः अन्यः अणुमात्रोऽपि अवशिष्टः अस्ति इत्यतः सर्वज्ञः सर्ववेदार्थविदिति समूलसंसारवृक्षज्ञानं स्तौति।।तस्य एतस्य संसारवृक्षस्य अपरा अवयवकल्पना उच्यते --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।15.1।। यह श्लोक हमें कठोपनिषद् में वर्णित अश्वत्थ वृक्ष का स्मरण कराता है। वहाँ संसार वृक्ष का केवल निर्देश किया गया है? किन्तु यहाँ महर्षि व्यास पूर्ण रूप से उसका चित्रण करते हैं। अनित्य संसार का नित्य परमात्मा के साथ जो संबंध है उसको भी इस वर्णन में दर्शाया गया है। यदि परमात्मा एकमेव अद्वितीय सत्य है? तो उससे परिच्छिन्न जड़ जगत् कैसे उत्पन्न हुआ उत्पन्न होने के पश्चात् कौन इसका धारण पोषण करता है सृष्टिकर्ता अनन्त ईश्वर और सृष्ट सान्त जगत् के मध्य वस्तुत क्या संबंध है जीवन के विषय में गंभीरता से विचार करना प्रारंभ करते ही मन में इस प्रकार के प्रश्न उठने लगते हैं।इस अध्याय में विवेचित अध्यात्म का सम्पूर्ण सिद्धान्त पीपल के वृक्ष के सुन्दर रूपक के माध्यम से इस अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में वर्णित है।वनस्पति शास्त्र में अश्वत्थ वृक्ष का नाम फाइकस रिलिजिओसा है जो लोक में पीपल के वृक्ष के नाम से प्रसिद्ध है। यह ध्यान रहे कि अश्वत्थ वृक्ष से वटवृक्ष नहीं सूचित किया गया है। शंकराचार्य जी के अनुसार संसार को अश्वत्थ नाम व्युत्पत्ति के आधार पर दिया गया है। अश्वत्थ का अर्थ इस प्रकार है श्व का अर्थ आगामी कल है? त्थ का अर्थ है स्थित रहने वाला? अत अश्वत्थ का अर्थ है वह जो कल अर्थात् अगले क्षण पूर्ववत् स्थित नहीं रहने वाला है। तात्पर्य यह हुआ कि अश्वत्थ शब्द से इस सम्पूर्ण अनित्य और परिवर्तनशील दृश्यमान जगत् की ओर इंगित किया गया है।इस श्लोक में कहा गया है कि इस अश्वत्थ का मूल ऊर्ध्व में अर्थात् ऊपर है। इसका यदि केवल वाच्यार्थ ही ग्रहण करें? तो ऐसा प्रतीत होगा कि किसी अशिक्षित चित्रकार ने इस संसार वृक्ष को चित्रित किया है। यह चित्र आध्यात्मिक दृष्टि से असंगत? धार्मिक दृष्टि से हानिकर और सौन्दर्य की दृष्टि से कुरूप लग सकता है। परन्तु ऐसा विचार इस ध्रर्मशास्त्रीय चित्र के महान् गौरव का अपमान है।शंकराचार्यजी ने ही उपनिषद् के भाष्य में यह लिखा है कि संसार को वृक्ष कहने का कारण यह है कि उसको काटा जा सकता है व्रश्चनात् वृक्ष। वैराग्य के द्वारा हम अपने उन समस्त दुखों को समाप्त कर सकते हैं जो इस संसार में हमें अनुभव होते हैं। जो संसारवृक्ष परमात्मा से अंकुरित होकर व्यक्त हुआ प्रतीत होता है? उसे हम अपना ध्यान परमात्मा में केन्द्रित करके काट सकते हैं।इतिहास के विद्यार्थियों को अनेक राजवंशों की परम्पराओं का स्मरण रखना होता है। उसमें जो परम्परा दर्शायी जाती है? वह इस ऊर्ध्वमूल वृक्ष के समान ही होती है। एक मूल पुरुष से ही उस वंश का विस्तार होता है। इसी प्रकार? इस संसार वृक्ष का मूल ऊर्ध्व कहा है? जो सच्चिदानन्द ब्रह्म है। वृक्ष को आधार तथा पोषण अपने ही मूल से ही प्राप्त होता है इसी प्रकार? भोक्ता जीव और भोग्य जगत् दोनों अपना आधार और पोषण शुद्ध अनन्तस्वरूप ब्रह्म से ही प्राप्त करते हैं।तथापि अनेक लोगों की जिज्ञासा ऊर्ध्व शब्द के उपयोग को जानने की होती है। ऊर्ध्व शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में किया गया है? जैसे लोक में हम उच्च वर्ग? उच्च अधिकारी? उच्च आभूषण आदि का प्रयोग करते हैं। उच्च शब्द से तात्पर्य रेखागणितीय उच्चता से नहीं है वरन् श्रेष्ठ? आदर्श अथवा मूल्य से है। भावनाओं की दृष्टि से भी स्वभावत मनुष्य सूक्ष्म और दिव्य तत्त्व को उच्चस्थान प्रदान करता है और स्थूल व आसुरी तत्त्व को अधस्थान। देश काल और कारण के परे होने पर भी परमात्मा को यहाँ ऊर्ध्व कहा गया है। वह जड़ प्रकृति को चेतनता प्रदान करने वाला स्वयंप्रकाश स्वरूप तत्त्व है। स्वाभाविक है कि यहाँ रूपक की भाषा में दर्शाया गया है कि यह संसार वृक्ष ऊर्ध्वमूल वाला है।इस परिवर्तनशील जगत् (अश्वस्थ) को अव्यय अर्थात् अविनाशी माना गया है। परन्तु केवल आपेक्षिक दृष्टि से ही उसे अव्यय कहा गया है। किसी ग्राम में स्थित पीपल का वृक्ष अनेक पीढ़ियों को देखता है? जो उसकी छाया में खेलती और बड़ी होती हैं। इस प्रकार? मनुष्य की औसत आयु की अपेक्षा वह वृक्ष अव्यय या नित्य कहा जा सकता है। इसी प्रकार इन अनेक पीढ़ियों की तुलना में जो विकसित होती हैं? कल्पनाएं और योजनाएं बनाती हैं? प्रयत्न करके लक्ष्य प्राप्त कर नष्ट हो जाती हैं यह जगत् अव्यय कहा जा सकता है।छन्द अर्थात् वेद इस वृक्ष के पर्ण हैं। वेद का अर्थ है ज्ञान। ज्ञान की वृद्धि से मनुष्य के जीवन में अवश्य ही गति आ जाती है। आधुनिक जगत् की भौतिक उन्नति? विज्ञान की प्रगति? औद्योगिक क्षेत्र की उपलब्धि और अतिमानवीय स्फूर्ति की तुलना में प्राचीन पीढ़ी को जीवित भी नहीं कहा जा सकता। ज्ञान की वृद्धि से भावी लक्ष्य और अधिक स्पष्ट दिखाई देता है ? जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य उसे पाने के लिये और अधिक प्रयत्नशील हो जाता है। वेद अर्थात् ज्ञान की तुलना वृक्ष के पर्णों के साथ करना अनुपयुक्त नहीं है। वृक्ष के पर्ण वे स्थान हैं जहाँ से जल वाष्प बनकर उड़ जाता है? जिससे वृक्ष की जड़ों में एक दबाव उत्पन्न होता है। इस दबाव के कारण जड़ों को पृथ्वी से अधिक जल और पोषक तत्त्व एकत्र करने में सुविधा होती है। अत यदि वृक्ष के पत्तों को काट दिया जाये? तो वृक्ष का विकास तत्काल अवरुद्ध हो जायेगा। पत्तों की संख्या जितनी अधिक होगी वृक्ष का परिमाण और विकास उतना ही अधिक होगा। जहाँ ज्ञान की अधिकता होती है वहाँ व्यक्त जीवन की चमक भी अधिक दिखाई देती है।जो पुरुष न केवल अश्वत्थ वृक्ष को ही जानता है? वरन् उसके पारमार्थिक सत्यस्वरूप ऊर्ध्वमूल को भी पहचानता है? वही पुरुष वास्तव में वेदवित् अर्थात् वेदार्थवित् है। उसका वेदाध्ययन का प्रयोजन सिद्ध हो गया है। वेदों का प्रयोजन सम्पूर्ण विश्व के आदि स्रोत एकमेव अद्वितीय परमात्मा का बोध कराना है। सत्य का पूर्णज्ञान न केवल शुद्धज्ञान (भौतिक विज्ञान) से और न केवल भक्ति से ही प्राप्त हो सकता है। यह गीता का निष्कर्ष है। जब हम इहलोक और परलोक? सान्त और अनन्त? सृष्ट और सृष्टिकर्ता इन सबको तत्त्वत जानते हैं? तभी हमारा ज्ञान पूर्ण कहलाता है। ज्ञान की अन्य शाखाएं कितनी ही दर्शनीय क्यों न हों? वे सम्पूर्ण सत्य के किसी पक्ष्ा विशेष को ही दर्शाती हैं। वेदों के अनुसार पूर्ण ज्ञानी पुरुष वह है? जो इस नश्वर संसारवृक्ष तथा इसके अनश्वर ऊर्ध्वमूल (परमात्मा) को भी जानता है। भगवान् श्रीकृष्ण उसे यहाँ वेदवित् कहते हैं।संसार वृक्ष के अन्य अवयवों का रूपकीय वर्णन अगले श्लोक में किया गया है

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।15.1 -- 15.2।।ऊर्ध्वमूलमिति। अधश्चेति। अनेन शास्त्रान्तरेषु यदुच्यते अश्वत्थः सर्वं? स एवोपासनीयः इत्यादि? तस्य भगवद्ब्रह्मोपासा तात्पर्यमित्युच्यते। मूलं प्रशान्तरूपम् (K प्रशान्तं रूपम्)। तत् ऊर्ध्वं? सर्वतो हि निवृत्तस्य तदाप्तिः। छन्दांसि पर्णानि इति -- यथा वृक्षस्य मानत्वफलवत्त्वसरसतादयः (S? फलत्व -- ) पर्णैः सूच्यन्ते? एवं ब्रह्मतत्त्वस्य वेदोपलक्षितशास्त्रद्वारिका प्रतीतिरित्याख्यायते। गुणैः? सत्त्वादिभिः प्रवृद्धाः? देवादिस्थावरान्ततया। तस्य च शुभाशुभात्मकानि कर्माणि अधस्तनमूलानि (?N -- मूलानि यस्य)।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

15.1 See Comment under 15.2

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

15.1 Urdhva-mulam, that which has its roots upwards:- Brahman, possessed of the unmanifest power in the form of Maya, is referred to by the word 'upward' because of Its subtleness in point of time by virtue of Its being the Cause, and also because of Its eternality and vastness; and That is the root (mulam) of this world. The Tree of the World which is such, is urdhva-mulam. This accords with the Upanisadic text, 'This has its roots above and branches below' (Ka. 2.6.1). In the Purana also we have: It sprouts from the Root in the form of the Unmanifest; it grows through the sturdiness of that very One. And it has abundance of intelligence as its trunk, and the appertures of the organs as the hollows. The great elements are its boughs [A.G. takes the word visakha (boughs) in the sense of stambha, perhaps meaning the aerial roots.-Tr.]; so also, it has the objects of perception as its leaves. It has virtue and vice as its beautiful flowers, and happiness and sorrow are the fruits it bears. This eternal Tree presided over by Brahman is a means of livelihood to all creatures. And this verily is the resort of Brahman [Or, etat brahma-vanam means: This Tree has Brahman as its object of adoration, its support. For, the world has nothing but Brahman as its support.] in it Brahman dwells for ever. Having felled and split this Tree with the great sword of Knowledge, and then attaining the bliss of the Self, one does not return from that (bliss).' (Cf. Mbh. As. 47.12-15.) That Tree which has its roots upwards and is constituted by the enchantment of mundane existence, and adhah-sakham, which has the branches downwards-mahat, [See under 7.4.-Tr.] egoism, subtle elements, etc. are its branches (sakhah), as it were, extending downwards (adhah); so, it has its branches downwards-; that Tree with its branches downwards, which does not (a) last (stha) even for the morrow (svah), is asvatthah (lit. Peepul tree). Ahuh, they say; that the asvatthah, Peepul Tree, undergoing destruction every moment; is avyayam, imperishable, and constituted by the enchantments of mundane existence. Having been in existence from time without beginning, that Tree of the World is imperishable. It is, indeed, will known as the sustainer of the beginningless and ceaseless series of bodies etc. They call that the imperishable. Of that very Tree of the World here is another alification: Yasya, that Tree of the World of which; chandamsi-chandas being derived in the sense of covering (protecting)-, the Vedas in the form of Rk, Yajus and Sama; are the parnani, leaves, as it were. As leaves serve as protectors of a tree, so the Vedas serve as the protectors of the world; for they reveal what are virtue and vice as also their causes and results. Yah, he who; veda, knows; tam, that-the Tree of the World along with its root, as has been explained; sah, he; is a vedavit, knower of the Vedas, i.e. versed in the meaning of the Vedas. Since, apart from this Tree of the World along with its root, not even an iota of any other thing remains to be known, therefore he who knows the purport of the Vedas is omniscient. In this way the Lord euligizes the knowledge of the Tree together with its root. An imagery of the other parts of that very Tree of the World is being presented:

English Translation By Swami Gambirananda

15.1 The Blessed Lord said They say that the peepul Tree, which has its roots upward and the branches downward, and of which the Vedas are the leaves, is imperishable. He who realizes it is knower of the Vedas.