श्री भगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।16.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।16.1।। श्री भगवान् ने कहा -- अभय, अन्त:करण की शुद्धि, ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप और आर्जव।।
।।16.1।। --,अभयम् अभीरुता। सत्त्वसंशुद्धिः सत्त्वस्य अन्तःकरणस्य संशुद्धिः संव्यवहारेषु परवञ्चनामायानृतादिपरिवर्जनं शुद्धसत्त्वभावेन व्यवहारः इत्यर्थः।।ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ज्ञानं शास्त्रतः आचार्यतश्च आत्मादिपदार्थानाम् अवगमः? अवगतानाम् इन्द्रियाद्युपसंहारेण एकाग्रतया स्वात्मसंवेद्यतापादनं योगः? तयोः ज्ञानयोगयोः व्यवस्थितिः व्यवस्थानं तन्निष्ठता। एषा प्रधाना दैवी सात्त्विकी संपत्। यत्र येषाम् अधिकृतानां या प्रकृतिः संभवति? सात्त्विकी सा उच्यते। दानं यथाशक्ति संविभागः अन्नादीनाम्। दमश्च बाह्यकरणानाम् उपशमः अन्तःकरणस्य उपशमं शान्तिं वक्ष्यति। यज्ञश्च श्रौतः अग्निहोत्रादिः। स्मार्तश्च देवयज्ञादिः? स्वाध्यायः ऋग्वेदाद्यध्ययनम् अदृष्टार्थम्। तपः वक्ष्यमाणं शारीरादि। आर्जवम् ऋजुत्वं सर्वदा।।किं च --,
।।16.1।। इस प्रथम श्लोक को पढ़ने से हमें उन अमानित्वादि बीस गुणों (जीवनादर्शों) का स्मरण होता है? जिन्हें क्षेत्राध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने ज्ञान की संज्ञा प्रदान की थी। इस श्लोक में उन आदर्श गुणों की प्राय सम्पूर्ण सूची प्रस्तुत की गयी है? जो आध्यात्मिक जीवन जीने वाले एक सुसंस्कृत पुरुष में देखे जाते हैं। अपने व्यावहारिक जीवन में उन बीस गुणों को जीना ही आध्यात्मिक जीवन कहलाता है। भगवान् श्रीकृष्ण इन दैवी गुणों की गणना करते समय प्रथम स्थान अभय को देते हैं। भय अविद्या का लक्षण है। जहाँ विद्या है? वहाँ निर्भयता है। गुणों की इस सूची में अभय को प्रथम स्थान देकर गीताचार्य़ यह इंगित करते हैं कि किसी साधक की नैतिक पूर्णता उसके आध्यात्मिक विकास के समान अनुपात में होती है।अन्तकरण की शुद्धि अपने व्यक्तित्व के बाह्य स्तर पर साधक को कितना ही संयम क्यों न हो? फिर भी वह संयम उसे रचनात्मक और निश्चयात्मक शक्ति प्रदान नहीं कर सकता? जो कि नैतिक जीवन का सार है? मर्म है। गीता? सैद्धांतिक और व्यावहारिक इन दोनों ही दृष्टियों से एक शक्तिशाली धर्म का उपदेश देती है। निष्क्रिय सदाचार का पालन करने वाली आज्ञाकारी पीढ़ी से भगवान् श्रीकृष्ण सन्तुष्ट नहीं हैं। वे चाहते हैं कि समाज के सभी लोग न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में ही सर्वोच्च नैतिक मूल्यों को जियें? वरन् सामाजिक जीवन में भी धर्माचरण की ऐसी नवचेतना जाग्रत करें? जिससे मनुष्यों की सम्पूर्ण पीढ़ी ही सत्य और धर्म के प्रकाश से उज्वल बन जाये। धर्म शब्द के अर्थ में उद्देश्यों की सत्यता और साधनों की शुद्धता अन्तर्निहित है।ज्ञानयोगव्यवस्थिति अत्यन्त देहासक्त और विषयासक्त पुरुष को उपर्युक्त अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। आत्मा के दिव्य गान के साथ एकस्वर हुए मन में ही अपनी निम्न स्तर की वृत्तियों? बन्धनकारक आसक्तियों और निन्द्य उद्देश्यों को त्यागने की आवश्यक सार्मथ्य होती है। ये हीन वृत्तियां सदैव अन्तकरण में उभर कर सामने आती रहती हैं। ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति ही मन को निम्नस्तर के प्रलोभनों से निवृत्त करने का निश्चयात्मक उपाय है। यदि कोई बालक कांच की निर्मित नाजुक कलाकृति के साथ खेल रहा हो? तो उसके मातापिता? उस बहुमूल्य वस्तु की सुरक्षा के लिए? प्राय बालक को चॉकलेट आदि कोई वस्तु देते हैं और वह बालक उसे पान्ो के लिए उस कांच की मूल्यवान् वस्तु को त्याग देता है। इसी प्रकार? आत्मा के आनन्द को अनुभव करने वाले पुरुष इन्द्रियों के विषयों तथा तज्जनित क्षणिक सुखों में स्वभावत आसक्त नहीं होता।दान? दम (इन्द्रिय संयम) और यज्ञ ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति प्राप्त करने के ये तीन साधन हैं जिनके द्वारा एक साधक अन्तकरण की योग्यता प्राप्त कर सकता है। बहुलता के भाव से उत्पन्न हुई दान की प्रवृत्ति ही वास्तविक दान है। जब हम अन्यों के साथ एकत्व का अनुभव करते हैं? तभी हम सबके साथ अपने सर्वस्व का विभाजन करने के लिए तत्पर होते हैं? अन्यथा नहीं। इस प्रकार? दान का उदय हमारी इस क्षमता से होता है? जिसके द्वारा हम अपनी परिग्रह और लोभ की प्रवृत्ति को संयमित करते हैं। जहाँ इनका संयमन एक पक्ष है? तो दूसरा पक्ष है यज्ञ अर्थात् त्याग की भावना। यज्ञ भावना से प्रेरित होने पर ही हम अपने संग्रह का दान कर सकते हैं। दान शब्द से केवल धन या वस्तुओं का ही दान नहीं? वरन् दुखियों के साथ सहानुभूति का भाव तथा ज्ञानदान भी इसमें सम्मिलित है।यदि दान साधक के वैराग्य को विकसित करता है? जिससे वह साधक अपनी सम्पत्ति का विनियोग दीनजनों की सहायता में करता है? तो हम कह सकते हैं कि हमारे व्यक्तिगत जीवन में इन्द्रियसंयम (दम)? उसी यज्ञ भावना का संप्रयोग है। इन्द्रियों के विषयों में विचरण करने का पूर्ण अधिकार देने का अर्थ अपनी सम्पूर्ण शक्ति का निष्फल ही अपव्यय करना है। साधक को चाहिए कि अपनी इस शक्ति का उपयोग वह अपने ध्यानाभ्यास में करे। मन को आत्मा में समाहित करने के लिए सूक्ष्म शक्ति की आवश्यकता होती है और उसे साधक इन्द्रियसंयम के द्वारा अपने में ही निहित देख सकता है। दान और दम के बिना सत्य की तीर्थयात्रा मात्र स्वप्न ही है।यज्ञ वैदिककाल में यज्ञ शब्द का अर्थ श्रद्धायुक्त होमहवन आदि का अनुष्ठान समझा जाता था। उस काल में साधकगण इन यज्ञों का श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करते थे। पौराणिक काल में वैदिक कर्मकाण्ड का स्थान मूर्तिपूजा? प्रार्थना जैसी भक्ति साधनाओं ने ले लिया जो उसी रूप में आज भी विद्यमान हैं। यज्ञ अर्थात् पूजा के अनुष्ठान से मन को एक आलम्बन प्राप्त होने से इन्द्रियों का संयमन करने में सरलता होती है। उसी प्रकार? चित्त की शुद्धता भी प्राप्त होने से दान की भावना भी जागृत होती है। इन गुणों के होने से आत्मानुभूति सहज सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार? इस श्लोक में यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रत्येक उत्तरोत्तर गुण अपने पूर्व के गुण से किस्ा प्रकार संबद्ध है।स्वाध्याय इस शब्द का पारम्परिक अर्थ है? वेदों का नित्य पठन तथा यथासंभव उसका अध्ययन भी करना। वेदों के नित्य? नियमित अध्ययन से हमें अपने व्यावहारिक जीवन में दैवी गुणों को जीने की प्रेरणा मिलती है। परन्तु? स्वाध्याय से मात्र वेदपठन या बौद्धिक स्तर पर उसके अर्थ को समझना ही पर्याप्त नहीं है। संस्कृत के इस शब्द का आशय है स्वयं का अध्ययन अर्थात् आत्मनिरीक्षण। वेदप्रतिपादित सत्यों को समझकर उनका स्वानुभवकरण ही वास्तविक स्वाध्याय है। स्वाध्याय और यज्ञ से हमें आत्मसंयम का जीवन जीने का साहस प्राप्त होगा? जो हमें अपने ध्यानाभ्यास में चित्त की स्थिरता प्रदान करेगा।तप शारीरिक स्तर पर पालन किये जाने वाले व्रत? उपवास आदि तप कहलाते हैं। तपाचरण से बाह्यजगत् के भोगों में व्यर्थ ही नष्ट होने वाली हमारी शक्ति का संचय होता है? जिसके सदुपयोग आत्मविकास के लिए किया जा सकता है।आर्जवम् इसका अर्थ है सरलता। बुद्धि के विचार? मन की भावनाओं और कर्मों में कुटिलता का साधक के व्यक्तित्व पर आत्मघातक परिणाम होता है। हमारे वास्तविक उद्देश्यों और प्रेरणाओं? निश्चय और आकांक्षाओं? विवेक और अनुभवों को असत्य सिद्ध करने वाले हमारे कर्मों का परिणाम अपने व्यक्तित्व की वक्रता होता है। जो व्यक्ति इस प्रकार का व्यक्तित्व जीता है? उसका जीवन दो भागों में विभाजित हो जाता है और शीघ्र ही वह अपनी कार्यकुशलता की आभा को खो देता है और व्यक्तिगत दृढ़ता की शक्ति की दृष्टि से भी दुर्बल हो जाता है।इस प्रकार? इस अध्याय के प्रथम श्लोक में ही? दैवीगुणों का उल्लेख करते हुए? उनके परस्पर संबंधों को भी दर्शाया गया है। हिन्दू धर्ण में वर्णित नैतिक मूल्य और सदाचार के नियम किसी कल्पनाकुशल सन्त या उदास देवदूत की स्वैच्छिक घोषणाएं नहीं हैं। विवेक और अनुभवों की दृढ़ चट्टानों की नींव पर उनका निर्णाण हुआ है। निष्ठापूर्वक उनका पालन करने और सजगतापूर्वक उन्हें जीने पर? वे हमारी प्राय सुप्त दैवी क्षमताओं को व्यक्त करने में अपना योगदान देते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार ये दैवी गुण अपने आप में स्वर्ग प्रवेश का अधिकार प्रदान नहीं कर सकते? परन्तु मनुष्य के हृदय में स्थित दिव्य आत्मतत्त्व को पूर्णतया उजागर करने म्ों वे पूर्ण तैयारी के रूप में सहायक होते हैं।और आगे कहते हैं
।।16.1 -- 16.5।।एतद्बुद्ध्वा इत्युक्तम्। बोधश्च नाम श्रुतिमयज्ञानान्तरम् (S श्रुत -- ) इदमित्थम् इत्येवंभूतयुक्तिचिन्ताभावनामयज्ञानोदेयेन (S??N चिन्तामयज्ञानोदयेन) विचारविमर्शपरमर्शादिरूपेण विजातीयन्यक्कारविरहिततद्भावनामयस्वभ्यस्ताकारविज्ञानलाभे सति भवति। यद्वक्ष्यते (S तद्वक्ष्यते N तद्वक्ष्यति) -- विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसी तथा कुरु (XVIII? 63) इति। तत्र श्रुतिमये ज्ञाने गुरुशास्त्रे एव प्राधान्येन प्रभवतः युक्तिचिन्ताभावनामये तु विमर्शक्षमता असाधारणा शिष्यगुणसंपत् ( -- रणशिष्य -- ) प्रधानभूता। अतः अर्जुनस्यास्त्येवासौ इत्यभिप्रायेण वक्ष्यमाणं विमृश्यैतत् इति वाक्यं सविषयं कर्तुं परिकरबन्धयोजनाभिप्रायेण आह भगवान् गुरुः अभयम् इत्यादि।आसुरभागसन्नविष्टा तामसी किल अविद्या। सा प्रवृद्धया दिव्यांशग्राहित्या विद्यया बाध्यते ( प्रवृद्धाया -- विद्याया बध्यते) इति वस्तुस्वभाव एषः। त्वं च विद्यात्मानं दिव्यमंशं सात्त्विकमभिप्रपन्नः तस्मादान्तरीं मोहलक्षणामविद्यां विहाय बाह्याविद्यात्मशत्रुहननलक्षणं (S बाह्यविद्या) शास्त्रीयव्यापारम् अनुतिष्ठ इत्यध्यायारम्भः।तथाहि -- अभयमित्यादि पाण्डवेत्यन्तम्। दिव्यांशस्य इमानि चिह्नानि तानि स्फुटमेवाभिलक्ष्यन्ते (S? स्फुटमेवोपलक्ष्यन्ते)। दमः (S omits दमः) इन्द्रियजयः। चापलं पूर्वापरमविमृश्य यत् करणम्? तदभावः अचापलम्। तेजः आत्मनि उत्साहग्रहणेन मितत्वापाकरणम्। दैवी संपदेषा। सा च तव विमोक्षाय? कामनापरिहारात्। अतस्त्वं शोकं मा प्रापः -- यथा भ्रात्रादीन् हत्वा सुखं कथमश्नुवीय इति। शिष्टं स्पष्टम्।