श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।5.29।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।5.29।। (साधक भक्त) मुझे यज्ञ और तपों का भोक्ता और सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर तथा भूतमात्र का सुहृद् (मित्र) जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya



।।5.29।। एवं समाहितचित्तेन किं विज्ञेयम् इति उच्यते भोक्तारं यज्ञतपसां यज्ञानां तपसां च कर्तृरूपेण देवतारूपेण च सर्वलोकमहेश्वरं सर्वेषां लोकानां महान्तम् ईश्वरं सुहृदं सर्वभूतानां सर्वप्राणिनां प्रत्युपकारनिरपेक्षतया उपकारिणं सर्वभूतानां हृदयेशयं सर्वकर्मफलाध्यक्षं सर्वप्रत्ययसाक्षिणं मां नारायणं ज्ञात्वा शान्तिं सर्वसंसारोपरतिम् ऋच्छति प्राप्नोति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्यश्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये

पञ्चमोऽध्यायः।।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।5.29।। हमको सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भगवान् श्रीकृष्ण जब कभी स्वयं के लिए मैं शब्द का प्रयोग करते हैं तब उनका अभिप्राय भूतमात्र के हृदय में वास करने वाली आत्मा से होता है और न कि देवकी पुत्र शरीरधारी श्रीकृष्ण से। अहंकार का मूलस्वरूप शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा है जो देहादि उपाधियों के साथ तादात्म्य के कारण कर्ता और भोक्ता के रूप में प्रतीत होता है। यज्ञ शब्द का अर्थ पहले भी बताया जा चुका है। गीता के अनुसार किसी भी कार्यक्षेत्र में निस्वार्थ भाव से विश्व कल्याण के लिए अर्पित किया गया कर्म यज्ञ कहलाता है। जिन शक्तियों का हम व्यर्थ में अपव्यय करते हैं उनका आत्मसंयम के द्वारा संचय करना तप है। फिर इस तप का उपयोग आत्म प्राप्ति के लिए किया जाना चाहिए।यह आत्मा वास्तव में सब देवों का देवमहेश्वर है। ज्ञान और कर्म के सम्पूर्ण व्यापारों के नियन्ता के अर्थ में यहाँ ईश्वर शब्द का प्रयोग किया गया है। शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रिय का एकएक अधिष्ठाता देवता है। नेत्र से रूपवर्ण श्रोत्र से शब्द और इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के द्वारा भिन्नभिन्न विषयों का ज्ञान होता है। इन दस इन्द्रियों का शासक और नियन्ता हैचैतन्य आत्मा। अत श्रीकृष्ण यहाँ आत्मा को महेश्वर विशेषण देते हैं।इस श्लोक में हमारा अनुभव यह है कि किसी बड़े पद के शासकीय अधिकारी के पास पहुँचने में अत्यन्त कठिनाई का सामना करना पड़ता है और उसमें भी राजनीति सत्ता के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति की ओर तो सामान्य जन भयमिश्रित आदर के साथ देखते हैं। सामान्य मनुष्य में तो उसके समीप जाने का साहस ही नहीं होता। परन्तु सर्वलोक महेश्वर आत्मा के साथ यह बात नहीं है। भगवान् कहते हैं आत्मा सर्व प्राणियों का सुहृद (मित्र) है।मुझे (इस प्रकार) जानकर वह पुरुष शान्ति को प्राप्त होता है। यहाँ जानकर शब्द का अर्थ यह नहीं कि जैसे हम किसी फूल या फल को विषय रूप में उससे भिन्न रहकर जानते हैं वैसे ही श्रीकृष्ण को जानना है। ज्ञात्वा शब्द से तात्पर्य है श्रीकृष्ण को आत्मरूप से अनुभव करना। यज्ञ और तपों के भोक्ता महेश्वर और सुहृद भगवान् श्रीकृष्ण को आत्मरूप से साक्षात् अनुभव करके साधक परम शान्ति को प्राप्त होता है।Conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्याय।।

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।5.29।।भोक्तारमिति। यज्ञफलेषु भोक्ता त्यक्तफलत्वात् (NK ( n) भोक्तात्यन्तफलत्वात्)। एवं तपस्सु। ईदृशं भगवत्तत्त्वं विदन् यथातथावस्थितोऽपि मुच्यते (S यथा तथा विमुच्यते) इति।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

5.29 Bhokatram etc. [The Lord is deemed to be] the enjoyer in the caste of their fruit of the sacrifices. For, it is in favour of Him that the fruit is renounced. the same is with regard to the austerities. By knowing the nautre of the Lord as such, a man of Yoga is released, whatever way he may remain in.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

5.29 Rcchati, one attains; santim, Peace, complete cessation of transmigration; jnatva, by knowing; mam, Me who am Narayana; who, as the sarva-loka-mahesvaram, great Lord of all the worlds; am the bhoktaram, enjoyer (of the fruits); yajna-tapasam, of sacrifices and austerities, as the performer and the Deity of the sacrifices and austerities (respectively); (and) who am the suhrdam, friend; sarva-bhutanam, of all creatures-who am the Benefactor of all without consideration of return, who exist in the heart of all beings, who am the dispenser of the results of all works, who am the Witness of all perceptions.

English Translation By Swami Gambirananda

5.29 One attains Peace by knowing Me who, as the great Lord of all the worlds, am the enjoyer of sacrifices and austerities, (and) who am the friend of all creatures.