श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।।7.30।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।7.30।। जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव तथा अधियज्ञ के सहित मुझे जानते हैं, वे युक्तचित्त वाले पुरुष अन्तकाल में भी मुझे जानते हैं।।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।7.30।। साधिभूताधिदैवम् अधिभूतं च अधिदैवं च अधिभूताधिदैवम् सह अधिभूताधिदैवेन वर्तते इति साधिभूताधिदैवं च मां ये विदुः साधियज्ञं च सह अधियज्ञेन साधियज्ञं ये विदुः प्रयाणकाले अपि च मरणकाले अपि च मां ते विदुः युक्तचेतसः समाहितचित्ता इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्यश्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये

सप्तमोऽध्यायः।।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।7.30।। आत्मानुभवी पुरुष न केवल मन के स्वभाव (अध्यात्म) और कर्म ऋ़े स्वरूप को ही जानते हैं वरन् वे अधिभूत (पंच विषय रूप जगत्) अधिदैव (इन्द्रिय मन और बुद्धि की कार्य प्रणाली) और अधियज्ञ अर्थात् उन परिस्थितियों को भी जानते हैं जिनमें विषय ग्रहण रूप यज्ञ सम्पन्न होता है।ईश्वर के किसी रूप विशेष के भक्त के विषय में सम्भवत यह धारणा उचित हो सकती है कि भक्तजन अव्यावहारिक होते हैं और उनमें सांसारिक जीवन को सफलतापूर्वक जीने की कुशलता नहीं होती। एक सगुण उपासक अपने इष्ट देवता का ध्यान करने में ही इतना भावुक और व्यस्त हो जाता है कि उसमें संसार को समझने की न रुचि होती है और न क्षमता। परन्तु वेदान्त शास्त्र में आत्मज्ञानी पुरुष का जो चित्रण मिलता है उसके अनुसार वह पुरुष न केवल आत्मानुभव में दृढ़निष्ठ होता है वरन् वह सर्वत्र सदा एवं समस्त परिस्थितियों में अपने मन का स्वामी बना रहता है और ऐसी सार्मथ्य से सम्पन्न होता है जिसे सम्पूर्ण जगत् को स्वीकार करना पड़ता है।ऐसा स्वामित्व प्राप्त पुरुष ही जगत् को नेतृत्व प्रदान कर सकता है। सब प्रकार के असंयम एवं विपर्ययों से मुक्त वह ज्ञानी पुरुष अध्यात्म और अधिभूत को जानते हुए जगत् में ईश्वर के समान रहता है। सारांशत इस अध्याय की समाप्ति भगवान् की इस घोषणा के साथ होती है कि जो पुरुष मुझे जानता है वह सब कुछ जानता है। भगवान् श्रीकृष्ण के समान वह अपनी वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों के भाग्य निर्माण में मार्गदर्शक बनता है।इस अध्याय के अन्तिम दो श्लोक उनमें प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों का पूर्णरूप से वर्णन नहीं करते हैं। ये सूत्ररूप श्लोक हैं जिनका विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में किया गया है। दो अध्यायों को संबद्ध करने की पारम्परिक शास्त्रीय पद्धतियों में से यह एक पद्धति है।conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का ज्ञानविज्ञानयोग नामक सप्तम अध्याय समाप्त होता है।उपनिषदों में उपदिष्ट सिद्धांत महर्षि व्यास के समय केवल काव्यत्मक पूर्णत्व के काल्पनिक वर्णन के रूप में रह गये थे जिनका जीवन की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस प्रकार अपनी संस्कृति के मूल वैभव एवं सार्मथ्य से विलग हुए हिन्दुओं की सांस्कृतिक चेतना में पुनर्जीवित करना आवश्यक था। यह कार्य उन्हें उनके दार्शनिक सिद्धांतों में सौन्दर्य एवं तेजस्विता को दर्शा कर सम्पन्न किया जा सकता था। इस अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने निश्चयात्मक रूप से यह सिद्ध किया है तथा इस पर बल दिया है कि वेदान्त प्रतिपादित पूर्णत्व कोई कल्पना नहीं वरन् वह साधक की वास्तविक उपलब्धि बन सकती है जिसे जीवन में सफलतापूर्वक जी कर वह अप्ानी पीढ़ी का कल्याण कर सकता है। अत इस अध्याय का ज्ञानविज्ञानयोग शीर्षक अत्यन्त उपयुक्त है। केवल ज्ञान विशेष उपयोगी नहीं होता। ज्ञान का पूर्णत्व उसके यथार्थ अनुभव में है। ज्ञान का उपदेश तो दिया जा सकता है परन्तु अनुभव (विज्ञान) नहीं। धर्म तत्त्व ज्ञान का उपदेश देता है और उसके साथ ही उन उपायों का भी निर्देशन करता है जिनके द्वारा वह ज्ञान साधक का अपना विज्ञान बन सके और जीवन के साथ एकरूप हो जाय। इस प्रकार धर्म का प्रयोजन ऐसे अनुभवी पुरुषों का निर्माण करना है जो जीवन के परम पुरुषार्थ को प्राप्त करके धर्म को सत्योचित प्रमाणित कर सकें और अपनी पीढ़ियों को आनन्दाभिभूत करके कृतार्थ करने में सक्षम हों।

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।7.28 7.30।।येषामित्यादि युक्तचेतस इत्यन्तम्। ये तु विनष्टतामसाः पुण्यापुण्यपरिक्षयक्षेमीकृतात्मानः ते विपाटितमहामोहवितानाः सर्वमेव भगवद्रश्मिखचितं जरामरणमयतमिस्रस्रुतं ब्रह्म विदन्ति आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकाधियाज्ञिकानि च ममैव रूपान्तराणि। प्रयाणकाले च नित्यं भगवद् भावितान्तःकरणत्वात् मां जानन्ति यतो येषां जन्म पूर्वमेव भगवत्तत्त्वं ते अन्तकाले परमेश्वरं संस्मरेयुः। किं जन्मासेवनया इति ये मन्यन्ते तेषां तूष्णींभाव एव शोभनः इति।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

7.30 Yesam etc. upto yukta-cetasah. Those, in whom the darkness (ignorance) has totally vanished, and the Self is well secured due to the decaying of the good and bad effects of actions-they break off the canopy of their [castle of the] mighty delusion and realise everything as the Brahman studded (purified) with the rays of the Bhagavat, emerging out of the darkness of old age and death; and realise 'what governs the Self, the beings, the deities and the sacrifices are all My own different aspects'. They also experience Me at the time of their journey, on account of their having internal organ permanently immersed in the thought of the Bhagavat. For, those who remember the Bhagavat even earlier, since their birth-they at the last momnet would very well remember the Absolute Lord. [Hence] it is good to simply keep silent with regard to those who opine 'What is the use of worshiping since [the time of] birth ?'

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

7.30 Ye, those who; viduh, know; mam, Me; sa-adhi-bhuta-adhidaivam, as existing in the physical and the divine planes; ca, and also; sa-adhiyajnam, as existing in the context of the sacrifice; te, they; yukta-cetasah, of concentrated minds-those who have their minds absorbed in God; viduh, know; mam, Me; api ca, even; prayanakale, at the time of death. [For those who are devoted to God, there is not only the knowledge of Brahman as identified with all individuals and all actions (see previous verse), but also the knowledge of It as existing in all things on the physical, the divine and the sacrificial planes. Those who realize Brhaman as existing in the context of all the five, viz of the individual, of actions, of the physical,of the divine, and of the sacrifices-for them with such a realization there is no forgetting, loss of awareness, of Brahman even at the critical moment of death.]

English Translation By Swami Gambirananda

7.30 Those who know me as existing in the physical and the divine planes, and also in the context of the sacrifice, they of concentrated minds know Me even at the time of death.