श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।

अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।7.4।। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।7.4।। भूमिः इति पृथिवीतन्मात्रमुच्यते न स्थूला भिन्ना प्रकृतिरष्टधा इति वचनात्। तथा अबादयोऽपि तन्मात्राण्येव उच्यन्ते आपः अनलः वायुः खम्। मनः इति मनसः कारणमहंकारो गृह्यते। बुद्धिः इति अहंकारकारणं महत्तत्त्वम्। अहंकारः इति अविद्यासंयुक्तमव्यक्तम्। यथा विषसंयुक्तमन्नं विषमित्युच्यते एवमहंकारवासनावत् अव्यक्तं मूलकारणमहंकार इत्युच्यते प्रवर्तकत्वात् अहंकारस्य। अहंकार एव हि सर्वस्य प्रवृत्तिबीजं दृष्टं लोके। इतीयं यथोक्ता प्रकृतिः मे मम ऐश्वरी मायाशक्तिः अष्टधा भिन्ना भेदमागता।।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।7.4।। वैदिक काल के महान् मनीषियों ने जगत् की उत्पत्ति पर सूक्ष्म विचार करके यह बताया है कि जगत् जड़ पदार्थ (प्रकृति) और चेतनतत्त्व (पुरुष) के संयोग से उत्पन्न होता है। उनके अनुसार पुरुष की अध्यक्षता में जड़ प्रकृति से बनी शरीरादि उपाधियाँ चैतन्ययुक्त होकर समस्त व्यवहार करने में सक्षम होती हैं। एक आधुनिक दृष्टान्त से इस सिद्धांत को स्पष्ट किया जा सकता है।लोहे के बने वाष्प इंजिन में स्वत कोई गति नहीं होती। परन्तु जब उसका सम्बन्ध उच्च दबाब की वाष्प से होता है तब वह इंजिन गतिमान हो जाता है। केवल वाष्प भी किसी यन्त्र की सहायता के बिना अपनी शक्ति को व्यक्त नहीं कर सकती दोनों के सम्बन्ध से ही यह कार्य सम्पादित किया जाता है।भारत के तत्त्वचिन्तक ऋषियों ने वैज्ञानिक विचार पद्धति से इसका वर्णन किया है कि किस प्रकार सनातन पूर्ण पुरुष प्रकृति की जड़ उपाधियों के संयोग से इस नानाविध सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ है।भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में प्रकृति का वर्णन करते हैं तथा अगले श्लोक में चेतन तत्त्व का। यदि एक बार मनुष्य प्रकृति और पुरुष जड़ और चेतन का भेद स्पष्ट रूप से समझ ले तो वह यह भी सरलता से समझ सकेगा कि जड़ उपाधियों के साथ आत्मा का तादात्म्य ही उसके सब दुखों का कारण है। स्वाभाविक ही इस मिथ्या तादात्म्य की निवृत्ति होने पर वह स्वयं अपने स्वरूप को पहचान सकता है जो पूर्ण आनन्दस्वरूप है। आत्मा और अनात्मा के परस्पर तादात्म्य से जीव उत्पन्न होता है। यही संसारी दुखी जीव आत्मानात्मविवेक से यह समझ पाता है कि वह तो वास्तव में जड़ प्रकृति का अधिष्ठान चैतन्य पुरुष है जीव नहीं।अर्जुन को जड़ और चेतन का भेद स्पष्ट करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण प्रथम प्रकृति के आठ भागों को बताते हैं जिसे यहाँ अष्टधा प्रकृति कहा गया है। इस विवेक से प्रत्येक व्यक्ति अपने शुद्ध और दिव्य स्वरूप को पहचान सकता है।आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी वे पंचमहाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार यह है अष्टधा प्रकृति जो परम सत्य के अज्ञान के कारण उस पर अध्यस्त (कल्पित) है। व्यष्टि (एक जीव) में स्थूल पंचमहाभूत का रूप है स्थूल शरीर तथा उनके सूक्ष्म भाव का रूप पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जिनके द्वारा मनुष्य बाह्य जगत् का अनुभव करता है। ज्ञानेन्द्रियाँ ही वे कारण हैं जिनके द्वारा विषयों की संवेदनाएं मन तक पहुँचती हैं। इन प्राप्त संवेदनाओं का वर्गीकरण तथा उनका ज्ञान और निश्चय करना बुद्धि का कार्य है। इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण मन के द्वारा उनका एकत्रीकरण तथा बुद्धि के द्वारा उनका निश्चय इन तीनों स्तरों पर एक अहं वृत्ति सदा बनी रहती है जिसे अहंकार कहते हैं। ये जड़ उपाधियाँ हैं जो चैतन्य का स्पर्श पाकर चेतनवत् व्यवहार करने में समर्थ होती हैं।इसके पश्चात् अपनी पराप्रकृति बताने के लिए भगवान् कहते हैं

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।7.4 7.5।।भूमिरिति। अपरेति। इयमिति प्रत्यक्षेण या संसारावस्थायां। सर्वजनपरिदृश्यमाना सा चैकैव सती प्रकाराष्टकेन भिद्यते इति एकप्रकृत्यारब्धत्वादेकमेव विश्वमिति प्रकृतिवादेऽपि अद्वैतं प्रदर्शितम्। सैव जीवत्वं पुरुषत्वं प्राप्ता परा ममैव नान्यस्य च। सा (S omits सा) उभयरूपा वेद्यवेदकात्मकप्रपञ्चोपरचनविचित्रा तत एव स्वात्मविमलमुकुरतलकलितसकलभावभूमिः स्वस्वभावात्मिका सततमव्यभिचारिणी प्रकृतिः। इदं जगत् भूम्यादि।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

7.4 See Comment under 7.5

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

7.4 Iyam, this; prakrtih, Prakrti, [Prakrti here does not mean the Pradhana of the Sankhyas.] the divine power called Maya; me, of Mine, as described; bhinna, is divided; astadha, eight-forl; iti, thus: bhumih, earth-not the gross earth but the subtle element called earth, this being understood from the statement, 'Prakrti (of Mine) is divided eight-fold'. Similarly, the subtle elements alone are referred to even by the words water etc. Apah, water; analah, fire; vayuh, air; kham, space; manah, mind. By 'mind' is meant its source, egoism. By buddhih, intellect, is meant the principle called mahat [Mahat means Hiranyagarbha, or Cosmic Intelligence.] which is the source of egoism. By ahankarah, egoism, is meant the Unmanifest, associated [Associated, i.e. of the nature of.] with (Cosmic) ignorance. As food mixed with position is called poison, similarly the Unmainfest, which is the primordial Cause, is called egoism since it is imbued with the impressions resulting from egoism; and egoism is the impelling force (of all). It is indeed seen in the world that egoism is the impelling cause behind all endeavour.

English Translation By Swami Gambirananda

7.4 This Prakrti of Mine is divided eight-fold thus: earth, water, fire, air, space, mind, intellect and also egoism.