नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।8.27।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।8.27।। हे पार्थ इन दो मार्गों को (तत्त्व से) जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। इसलिए, हे अर्जुन ! तुम सब काल में योगयुक्त बनो।।
।।8.27।। --,न एते यथोक्ते सृती मार्गौ पार्थ जानन् संसाराय एका अन्या मोक्षाय इति योगी न मुह्यति कश्चन कश्चिदपि। तस्मात् सर्वेषु कालेषु योगयुक्तः समाहितो भव अर्जुन।।शृणु तस्य योगस्य माहात्म्यम् --,
।।8.27।। शुक्लगति और कृष्णगति इन दोनों के ज्ञान का फल यह है कि इनका ज्ञाता योगी पुरुष कभी मोहित नहीं होता है मन में उठने वाली निम्न स्तर की प्रवृत्तियों के कारण धैर्य खोकर वह कभी निराश नहीं होता।भगवान् श्रीकृष्ण ने अब तक पुनरावृत्ति और अपुनरावृत्ति के मार्गों का वर्णन किया और अब इस श्लोक में वे ज्ञान और उसके फल को संग्रहीत करके कहते हैं कि इसलिए हे अर्जुन तुम सब काल में योगी बनो। जिसने अनात्मा से तादात्म्य हटाकर मन को आत्मस्वरूप में एकाग्र करना सीखा हो वह पुरुष योगी है।संक्षेप में इस सम्पूर्ण अध्याय के माध्यम से भगवान् द्वारा अर्जुन को उपदेश दिया गया है कि उसको जगत् में कार्य करते हुए भी सदा अक्षर पुरुष के साथ अनन्य भाव से तादात्म्य स्थापित कर आत्मज्ञान में स्थिर होने का प्रयत्न करना चाहिए।अन्त में इस योग का महात्म्य बताते हुए भगवान् कहते हैं --
।।8.27।।नैते इति। एते सृति यो वैत्ति आभ्यन्तरेण क्रमेण योगाभ्यासस्वीकृतेनेत्यर्थः। एतच्च वितत्य प्रकाश्यमानं ग्रन्थं विस्तारयतीत्यलम्। तस्मादिति -- सर्वे ये काला आभ्यन्तराः (N अभ्यन्तराः) तद्विषयं योगमभ्यस्येः (K अभ्यसेत्)। अस्मद्गुरवस्तु आहुः -- सर्वानुग्राहकतया मध्ये आभ्यन्तरकालकृतमुत्क्रान्तिभेदमभिधाय (S omits आभ्यन्तर -- ) प्रकृतमेव बाह्यकालविषयं (S omits बाह्यकालविषयं) मुख्यं (N मुख्यप्रमेयं) प्रमेयमुपसंहृतम् तस्मात्सर्वेषु कालेषु इत्यादिना।