श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।9.3।। हे परन्तप ! इस धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूपी संसार में रहते हैं (भ्रमण करते हैं)।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।9.3।। --,अश्रद्दधानाः श्रद्धाविरहिताः आत्मज्ञानस्य धर्मस्य अस्यस्वरूपे तत्फले च नास्तिकाः पापकारिणः? असुराणाम् उपनिषदं देहमात्रात्मदर्शनमेव प्रतिपन्नाः असुतृपः पापाः पुरुषाः अश्रद्दधानाः? परंतप? अप्राप्य मां परमेश्वरम्? मत्प्राप्तौ नैव आशङ्का इति मत्प्राप्तिमार्गसाधनभेदभक्तिमात्रमपि अप्राप्य इत्यर्थः। निवर्तन्ते निश्चयेन वर्तन्ते क्व -- मृत्युसंसारवर्त्मनि मृत्युयुक्तः संसारः मृत्युसंसारः तस्य वर्त्म नरकतिर्यगादिप्राप्तिमार्गः? तस्मिन्नेव वर्तन्ते इत्यर्थः।।स्तुत्या अर्जुनमभिमुखीकृत्य आह --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।9.3।। नित्यसिद्ध आत्मा का अनादर करके जीने वाले लोग निश्चय ही नित्यस्वरूप मुझे प्राप्त न होकर संसार को लौटते हैं। बहिर्मुखी प्रवृत्ति के लोग सदैव विषयों का ही चिन्तन करके अपनी बौद्धिक क्षमता? मानसिक शक्ति और शारीरिक बल का अपव्यय करते हैं। विषयभोग के नित्य नवीन साधन खोजने में लगे हुए ये लोग मृत्युरूपी संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं।जब मनुष्य विषयों का चिन्तन करके उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करता है तब उसे भोग प्राप्त तो हो जाते हैं? परन्तु वे सब अनित्य होने के कारण उनका अन्तिम परिणाम दुख ही होता है। और विडम्बना यह है कि वह फिर भी उनमें ही और अधिक आसक्त हो जाता है परमात्मा की अपरा प्रकृति का वह पूजक बन जाता है। कितना ही विशाल समुद्र क्यों न हो? उसमें से किसी भी स्थान से लिया गया प्रत्येक बूँद स्वाद में खारा ही होता है। इसी प्रकार? विषय प्रेम के पीछे हमारा कोई भी उद्देश्य क्यों न हो? एक बार विषयलोलुप हो जाने पर हम निश्चय ही दुख के खारे अश्रु पीने को बाध्य हो जाते हैं? क्योंकि अनित्यता? नश्वरता तो हमारे प्रेम के विषय का स्वरूप ही है। नामरूपमय यह जगत् परिच्छिन्न और नित्य परिवर्तनशील है। यहाँ प्रतिक्षण प्रत्येक वस्तु परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रही है? और प्रत्येक परिवर्तन वस्तु की पूर्व स्थिति की मृत्यु है। इस प्रकार? यहाँ भगवान् द्वारा प्रयुक्त मृत्यु शब्द को उसके व्यापक अर्थ में ग्रहण करना चाहिए। संक्षेप में? विषयलोलुप लोग सदैव दुखपूर्ण मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं।यद्यपि वेदान्तशास्त्र में श्रद्धा शब्द गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के आशय को भी सूचित करता है? तथापि यह श्रद्धा भावुकता के कोहरे पर निर्मित नहीं? वरन् सिद्धांत की युक्तियुक्तता के ज्ञान के स्थित प्रकाश पर स्थिर है। श्रीशंकराचार्य श्रद्धा की परिभाषा इस प्रकार देते हैं? शास्त्र और आचार्य के उपदेश को सत्यबुद्धि से ग्रहण करना श्रद्धा है जिसके द्वारा परमार्थ सत्य वस्तु की प्राप्ति होती है। श्रद्धा वह दृढ़ विश्वास है? जो हमें मन और बुद्धि से परे तत्त्व की ऊँचाई तक उठाता है? और र्मत्यपरिच्छिन्न जीव से अमृत स्वरूप अनन्त सत्य के गढ़ने में सहायक होता है।किसी वस्तु का धर्म वह कुछ होता है? जिसके बिना उस वस्तु का उस रूप में अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता? जैसे अग्नि की उष्णता? बर्फ की शीतलता और सूर्य का प्रकाश। जिन लोगों को अपने दिव्य आत्मस्वरूप के अस्तित्व में श्रद्धा नहीं होती वे अपनी भावनाओं के कूजन? बुद्धि के गर्जन और देह की फुंकारों द्वारा बड़ी सरलता से आनन्दस्वरूप से अपहरण कर लिये जाते हैं। वे विकास की सीढ़ी से नीचे गिर कर द्विपाद पशुओं के समान जीवन जीते हैं। जैसे कोई विक्षिप्त (पागल) राजा अपने आप को भूलकर अपनी राजप्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है? और फिर एक निराश्रित व्रात्य (आवारा) पुरुष के समान व्यवहार करता हुआ गलियों मे नग्नावस्था में घूम्ाता रहता है? वैसे ही यह जीव अज्ञानवश अपने आत्मस्वरूप की गरिमा को भूलकर विषयोपभोगांे की खुली नालियों में सुख को खोजता हुआ ऐसे घूमता है? मानो वह किसी नाली में रेंगने वाले काड़े से भी निकृष्ट हो।सरलता का आभास लिये हुए? यह श्लोक वास्तव में अत्यन्त सारगर्भित है। अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में ज्ञान के मार्ग का अज्ञान के मार्ग से भेद दर्शाकर? भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन की बुद्धि में ज्ञानमार्ग की उपादेयता को बैठा देते हैं। ज्ञानमार्ग अक्षर पुरुष की स्वानुभूति का मार्ग है।अब भगवान् श्रीकृष्ण ज्ञान का उपदेश देना प्रारम्भ करते हैं --

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।9.3।।अश्रद्दधाना इति। निवर्तन्ते ( adds न च मत्स्था यथाकाशमें (ए) वं हि सर्वभूतानि -- before निवर्तन्ते। Obviously this is to go the next verse) ? पुनः पुनर्जायन्ते म्रियन्ते च।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

9.3 Asraddadhanah etc. They remain eternally : Again and again they are born and they die.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

9.3 Parantapa, O destroyer of foes; those purusah, persons, again; who are asraddadhanah, regardless of, devoid of faith in; asya dharmasya, this Dharma, this knowledge of the Self-those who are faithless as regards its true nature as well as its result, who are sinful, who have taken recourse to the 'upanisad' (mystical teaching) of demoniacal people, consisting in consideration the body alone as the Self, and who delight in life (sense enjoyments); nivartante, certainly go round and round;-where?-mrtyu-samsara-vartmani, along the path (vartma) of transmigration (samsara) fraught with death (mrtyu), the path leading to hell, birth as low creatures, etc., i.e., they go round and round along that very path; aprapya, without reaching; mam, Me, the supreme God. Certainly there is no estion of their attaining Me. Hence, the implication is that (they go round and round) without even aciring a little devotion, which is one of the disciplines [Ast. omits the word sadhana, disciplines.-Tr.] constituting the path for reaching Me. Having drawn Arjuna's attention through the (above) eulogy, the Lord says:

English Translation By Swami Gambirananda

9.3 O destroyer of foes, persons who are regardless of this Dharma (knowledge of the Self) certainly go round and round, without reaching Me, along the path of transmigration which is fraught with death.