श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः।

यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।10.1।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।10.1।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे महाबाहो ! पुन: तुम मेरे परम वचनों का श्रवण करो, जो मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिये हित की इच्छा से कहूँगा।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।10.1।। --,भूयः एव भूयः पुनः हे महाबाहो श्रृणु मे मदीयं परमं प्रकृष्टं निरतिशयवस्तुनः प्रकाशकं वचः वाक्यं यत् परमं ते तुभ्यं प्रीयमाणाय -- मद्वचनात् प्रीयसे त्वम् अतीव अमृतमिव पिबन्? ततः -- वक्ष्यामि हितकाम्यया हितेच्छया।।किमर्थम् अहं वक्ष्यामि इत्यत आह --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।10.1।। प्रथम अध्याय के अनिश्चय की स्थिति में देखे गये कम्पित अर्जुन ने अब तक एक अतुलनीय आन्तरिक सन्तुलन प्राप्त कर लिया था। हिन्दू दर्शन के बुद्धिमत्तापूर्वक किये गये अध्ययन से? जो आन्तरिक शान्ति प्राप्त होती है? उसे भगवान् इस अध्याय के प्रारम्भ में ही अपने शिष्य अर्जुन को प्रीयमाण कहकर स्पष्ट करते हैं। प्रीयमाण का अर्थ है जो प्रसन्न हो। यहाँ अर्जुन की प्रसन्नता का कारण भगवान् के उपदेश का श्रवण है।शिष्यों के उत्साह एवं रुचिपूर्ण श्रवण से गुरु का उत्साह भी द्विगुणित हो जाता है। वेदान्त दर्शन के गूढ़ अभिप्रायों को अधिकाधिक समझने पर आन्तरिक शान्ति और सन्तोष का अनुभव हुए बिना नहीं रह सकता। गीताचार्य श्रीकृष्ण पुन उत्साह से भरकर इस ज्ञान का विस्तार से वर्णन करते हैं। पुन तुम मेरे परम वचनों को सुनो? जो मैं तुम्हारे हित की इच्छा से कहूँगा।यहाँ अर्जुन को महाबाहो कहकर सम्बोधित किया गया है। यह सम्बोधन अर्जुन को इस बात का स्मरण कराता है कि उसको अपने आन्तरिक जीवन में भी एक वीर पुरुष के समान प्राप्त परिस्थिति में से ही एक दिव्य आनन्द के राज्य का निर्माण करना चाहिए? जो कि उसकी वास्तविक धरोहर है यह स्पष्ट है कि भगवान् का प्रवचन किसी लौकिक विषय पर न होकर मनुष्य में ही निहित आध्यात्मिक श्रेष्ठता की सम्भावनाओं तथा उन्हें उजागर करने के उपायों पर है क्योंकि यहाँ कहा गया है कि तुम मेरे परम वचनों को सुनो? जो मैं तुम्हारे (आध्यात्मिक) हित की इच्छा से कहूंगा।पुन प्रवचन प्रारम्भ करने का क्या प्रयोजन है? इसे वे अब बताते हैं --

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।10.1 -- 10.5।।प्राक्तनैर्नवभिरध्यायैर्य एवार्थो लक्षितः? स एव प्रतिपदपाठैरस्मिन्नध्याये प्रतायते। तथा चाह -- भूय एव इति। उक्तमेवार्थं स्फुटीकर्तुं (?N?K विस्पष्टीकर्तुं) पुनः कथ्यमानं श्रृण्विति। अर्जुनोऽपि एवमेवाभिधास्यति भूयः कथय (X? 18) इति। इत्यध्यायतात्पर्यम्। शिष्टं निगदव्याख्यातमिति ( -- व्याख्यानमिति) किं पुनरुक्तेन सन्दिग्धं तु निर्णेष्यते।भूय इत्यादि पृथग्विधा इत्यन्तम्। असंमोहः उत्साहः।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

10.1 See Comment under 10.5

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

10.1 O mighty-armed one, srnu, listen; bhuyah eva, over agiain; me, to My; paramam, supreme; vacah, utterance, which is expressive of the transcendental Reality; yat, which supreme Truth; aham, I; vaksyami, shall speak; te, to you; priyamanaya, who take delight (in it). You become greatly pleased by My utterance, like one drinking ambrosia. Hence, I shall speak to you hita-kamyaya, wishing your welfare. 'Why shall I speak?' In answer to this the Lord says:

English Translation By Swami Gambirananda

10.1 The Blessed Lord said O mighty-armed one, listen over again ot My supreme utterance, which I, wishing your welfare, shall speak to you who take delight (in it).