श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।12.1।।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।12.1।। अर्जुन ने कहा -- जो भक्त, सतत युक्त होकर इस (पूर्वोक्त) प्रकार से आपकी उपासना करते हैं और जो भक्त अक्षर, और अव्यक्त की उपासना करते हैं, उन दोनों में कौन उत्तम योगवित् है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।12.1।। --,एवम् इति अतीतानन्तरश्लोकेन उक्तम् अर्थं परामृशति मत्कर्मकृत् इत्यादिना। एवं सततयुक्ताः? नैरन्तर्येण भगवत्कर्मादौ यथोक्ते अर्थे समाहिताः सन्तः प्रवृत्ता इत्यर्थः। ये भक्ताः अनन्यशरणाः सन्तः त्वां यथादर्शितं विश्वरूपं पर्युपासते ध्यायन्ति ये चान्येऽपि त्यक्तसर्वैषणाः संन्यस्तसर्वकर्माणः यथाविशेषितं ब्रह्म अक्षरं निरस्तसर्वोपाधित्वात् अव्यक्तम् अकरणगोचरम्। यत् हि करणगोचरं तत् व्यक्तम् उच्यते? अञ्जेः धातोः तत्कर्मकत्वात् इदं तु अक्षरं तद्विपरीतम्? शिष्टैश्च उच्यमानैः विशेषणैः विशिष्टम्? तत् ये चापि पर्युपासते? तेषाम् उभयेषां मध्ये के योगवित्तमाः के अतिशयेन योगविदः इत्यर्थः।।श्रीभगवान् उवाच -- ये तु अक्षरोपासकाः सम्यग्दर्शिनः निवृत्तैषणाः? ते तावत् तिष्ठन्तु तान् प्रति यत् वक्तव्यम्? तत् उपरिष्टात् वक्ष्यामः। ये तु इतरे --,श्रीभगवानुवाच --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।12.1।। यद्यपि भगवद्गीता के दार्शनिक प्रवचन संवाद की शैली में लिखे गये हैं? तथापि उनमें विचारों के क्रमिक विकास की कभी भी उपेक्षा नहीं की गई है। उसमें न केवल एक अध्याय के अन्तर्गत विचारों में संगति है? वरन् एक अध्याय से अन्य अघ्यायों के मध्य भी यही संगति देखने को मिलती है। पूर्व अध्याय की समाप्ति भगवान् के इस आश्वासन के साथ हुई थी कि कोई भी साधक भक्त अनन्यभक्ति के द्वारा ईश्वर के विराट् वैभव का स्वयं में साक्षात् अनुभव कर सकता है। इस चुनौती भरे वाक्य ने क्षत्रिय राजपुत्र अर्जुन की महत्त्वाकांक्षा को जगा दिया। जगत् के एक व्यावहारिक पुरुष के रूप में वह जानना चाहता है कि वह परमात्मा के कौन से रूप की उपासना करे।यहाँ प्रश्न बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक रखा गया है। यह सुविदित तथ्य है कि जगत् में दो प्रकार के साधक होते हैं? जो वस्तुत एक ही साध्य को प्राप्त करने के लिए साधनारत होते हैं। कोई साधक परमात्मा के सगुण? साकार व्यक्त रूप की आराधनाउपासना करते हैं? जबकि अन्य साधक निर्गुण? निराकार अव्यक्त का ध्यान करते हैं। दोनों ही निष्ठावान् हैं और अपनेअपने मार्ग पर प्रगति की ओर अग्रसर होते हैं। परन्तु? प्रश्न यह है कि इन दोनों में कौन उत्तम योगवित् या योगनिष्ठ है।दर्शनशास्त्र में इन्द्रियगोचर वस्तु को व्यक्त कहते हैं तथा जो वस्तु प्रमाण गोचर नहीं होती? उसे अव्यक्त कहा जाता है। विद्यार्थी दशा में अर्जुन को यह बताया गया था कि परमात्मा अव्यक्त और सर्वव्यापी है। परन्तु? पूर्व अध्याय में ही उसने ईश्वरी विराट रूप का साक्षात् दर्शन किया था। वह उसका व्यक्तिगत अनुभव था। स्वाभाविक ही है कि आध्यात्मिक विकास के लिए मार्गदर्शन का इच्छुक अर्जुन एक उचित प्रश्न पूछता है कि सगुण और निर्गुण के इन दो उपासकों में कौन साधक श्रेष्ठ है सगुण और निर्गुण में श्रेष्ठता का प्रश्न आज भी विवाद का विषय बना हुआ है। क्या मूर्तिपूजा के द्वारा ईश्वर का ध्यान और साक्षात्कार किया जा सकता है क्या कोई भी प्रतीक परमात्मा का सूचक हो सकता है क्या एक तरंग समुद्र का प्रतीक या प्रतिनिधि बन सकती है प्रथम? भगवान् श्रीकृष्ण सगुणोपासना का वर्णन करते हुए कहते हैं

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।12.1।।एवमिति। एवम् उक्तेन नयेन ये सेश्वरब्रह्मोपासका ये च (S omits ये च) केवलं आत्ममात्रमुपासते? तेषां विशेषाख्यानाय प्रश्नः।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

12.1 Evam etc. The estion is for getting an explanation regarding the superiority among those who are the worshippers of the Absolute with Sovereign power, by the said method and those who worship the Self alone [without any attribute].

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

12.1 The subject-matter stated in the immediately preceding verse, '৷৷.he who works for Me,' etc. is referred to by the word evam (thus). Ye bhaktah, those devotees who, seeking no other refuge; evam, thus; satata-yuktah, being ever-devoted, i.e., remaining unceasingly engaged in the works of the Lord, etc., intent on the aforesaid purpose; paryupasate, meditate; tvam, on You, in the Cosmic form as revealed earlier; ye ca api, and those others, again, who have renounced all desires, who have given up all actions; who meditate on Brahman as described (below), aksaram, on the Immutable; avyaktam, on the Unmanifested, which is so on account of being bereft of all limiting adjuncts, (and) which is beyond the comprehension of the organs-in the world, whatever comes within the range of the organs is said to be manifest, for the root anj conveys that sense; but this Immutable is the opposite of that and is endowed with alifications that are spoken of by the great ones; those again, who meditate on that-; tesam, of them, among the two (groups); ke, who; are the yoga-vit-tamah, best experiencers of yoga, i.e., who are those that are surpassingly versed in yoga? But leave alone those who meditate on the Immutable, who are fully enlightened and are free from desires. Whatever has to be said with regard to them, we shall say later on. As for those others-

English Translation By Swami Gambirananda

12.1 Arjuna said Those devotees who, being thus ever dedicated, meditate on You, and those again (who meditate) on the Immutable, the Unmanifested-of them, who are the best experiencers of yoga [(Here) yoga means samadhi, spiritual absorption.] ?