नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.16।। असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व, तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।।
।।2.16।।इसलिये भी शोक और मोह न करके शीतोष्णादिको सहन करना उचित है जिससे कि
वास्तवमें अविद्यमान शीतोष्णादिका और उनके कारणोंका भावहोनापन अर्थात् अस्तित्व है ही नहीं क्योंकि प्रमाणोंद्वारा निरूपण किये जानेपर शीतोष्णादि और उनके कारण कोई पदार्थ ही नहीं ठहरते
क्योंकि वे शीतोष्णादि सब विकार हैं और विकार सदा बदलता रहता है। जैसे चक्षुद्वारा निरूपण किया जानेपर घटादिका आकार मिट्टीको छोड़कर और कुछ भी उपलब्ध नहीं होता इसलिये असत् है वैसे ही सभी विकार कारणके सिवा उपलब्ध न होनेसे असत् हैं।
क्योंकि उत्पत्तिसे पूर्व और नाशके पश्चात् उन सबकी उपलब्धि नहीं है।
पू0 मिट्टी आदि कारणकी और उसके भी कारणकी अपने कारणसे पृथक् उपलब्धि नहीं होनेसे उनका
अभाव सिद्ध हुआ फिर इसी तरह उसका भी अभाव सिद्ध होनेसे सबके अभावका प्रसङ्ग आ जाता है।
उ0 यह कहना ठीक नहीं क्योंकि सर्वत्र सत्बुद्धि और असत्बुद्धि ऐसी दो बुद्धियाँ उपलब्ध होती हैं।
जिस पदार्थको विषय करनेवाली बुद्धि बदलती नहीं वह पदार्थ सत् है और जिसको विषय करनेवाली बुद्धि बदलती हो वह असत् है। इस प्रकार सत् और असत्का विभाग बुद्धिके अधीन है।
सभी जगह समानाधिकरणमें ( एक ही अधिष्ठानमें ) सबको दो बुद्धियाँ उपलब्ध होती हैं।
नील कमलके सदृश नहीं किन्तु घड़ा है कपड़ा है हाथी है इस तरह सब जगह दोदो बुद्धियाँ उपलब्ध होती हैं।
उन दोनों बुद्धियोंसे घटादिको विषय करनेवाली बुद्धि बदलती है यह पहले दिखलाया जा चुका है परंतु सत्बुद्धि बदलती नहीं।
अतः घटादि बुद्धिका विषय ( घटादि ) असत् है क्योंकि उसमें व्यभिचार ( परिवर्तन ) होता है। परंतु सत्बुद्धिका विषय ( अस्तित्व ) असत् नहीं है क्योंकि उसमें व्यभिचार ( परिवर्तन ) नहीं होता।
पू0 घटका नाश हो जानेपर घटविषयक बुद्धिके नष्ट होते ही सत् बुद्धि भी तो नष्ट हो जाती है।
उ0 यह कहना ठीक नहीं क्योंकि वस्त्रादि अन्य वस्तुओंमें भी सत्बुद्धि देखी जाती है। वह सत्बुद्धि केवल विशेषणको ही विषय करनेवाली है।
पू0 सत्बुद्धिकी तरह घटबुद्धि भी तो दूसरे घटमें दीखती है।
उ0 यह ठीक नहीं क्योंकि वस्त्रादिमें नहीं दीखती।
पू0 घटका नाश हो जानेपर उसमें सत्बुद्धि भी तो नही दीखती।
उ0 यह ठीक नहीं क्योंकि ( वहाँ ) घटरूप विशेष्यका अभाव है। सत्बुद्धि विशेषणको विषय करनेवाली है अतः जब घटरूप विशेष्यका अभाव हो गया तब बिना विशेष्यके विशेषणकी अनुपपत्ति होनसे वह
( सत्बुद्धि ) किसको विषय करे पर विषयका अभाव होनेसे सत्बुद्धिका अभाव नहीं होता।
पू0 घटादि विशेष्यका अभाव होनेसे एकाधिकरणता ( दोनों बुद्धियोंका एक अधिष्ठानमें होना ) युक्तियुक्त नहीं होती।
उ0 यह ठीक नहीं क्योंकि मृगतृष्णिकादिमें अधिष्ठानसे अतिरिक्त अन्य वस्तुका ( जलका ) अभाव है तो भी यह जल है ऐसी बुद्धि होनेसे समानाधिकरणता देखी जाती है।
इसलिये असत् जो शरीरादि एवं शीतोष्णादि द्वन्द्व और उनके कारण हैं उनका किसीका भी भाव अस्तित्व नहीं है।
वैसे ही सत् जो आत्मतत्व है उसका अभाव अर्थात् अविद्यमानता नहीं है क्योंकि वह सर्वत्र अटल है यह पहले कह आये हैं।
इस प्रकार सत्आत्मा और असत्अनात्मा इन दोनोंका ही यह निर्णय तत्त्वदर्शियोंद्वारा देखा गया है अर्थात् प्रत्यक्ष किया जा चुका है कि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है।
तत् यह सर्वनाम है और सर्व ब्रह्म ही है। अतः उसका नाम तत् है उसके भावको अर्थात् ब्रह्मके यथार्थ स्वरूपको तत्त्व कहते हैं उस तत्त्वको देखना जिनका स्वभाव है वै तत्त्वदर्शी हैं उनके द्वारा उपर्युक्त निर्णय देखा गया है।
तू भी तत्त्वदर्शी पुरुषोंकी बुद्धिका आश्रय लेकर शोक और मोहको छोड़कर तथा नियत और अनियतरूप शीतोष्णादि द्वन्द्वोंको इस प्रकार मनमें समझकर कि ये सब विकार है ये वास्तवमें न होते हुए ही मृगतृष्णाके जलकी भाँति मिथ्या प्रतीत हो रहे हैं ( इनको ) सहन कर। यह अभिप्राय है।
।।2.16।।
न असतः अविद्यमानस्य शीतोष्णादेः सकारणस्य न विद्यते नास्ति भावो भवनम् अस्तिता।।
न हि शीतोष्णादि सकारणं प्रमाणैर्निरूप्यमाणं वस्तु सम्भवति। विकारो हि सः विकारश्च व्यभिचरति। यथा घटादिसंस्थानं चक्षुषा निरूप्यमाणं मृद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरसत् तथा सर्वो विकारः कारणव्यतिरेकेणानुपलब्धेरसन्।
जन्मप्रध्वंसाभ्यां प्रागूर्ध्वं च अनुपलब्धेः कार्यस्य घटादेः मृदादिकारणस्य च तत्कारणव्यतिरेकेणानुपलब्धेरसत्त्वम्।।
तदसत्त्वे सर्वाभावप्रसङ्ग इति चेत् न सर्वत्र बुद्धिद्वयोपलब्धेः सद्बुद्धिरसद्बुद्धिरिति। यद्विषया बुद्धिर्न
व्यभिचरति तत् सत् यद्विषया व्यभिचरति तदसत् इति सदसद्विभागे बुद्धितन्त्रे स्थिते सर्वत्र द्वे बुद्धी सर्वैरुपलभ्येते समानाधिकरणे न नीलोत्पलवत् सन् घटः सन् पटः सन् हस्ती इति। एवं सर्वत्र। तयोर्बुद्धयोः घटादिबुद्धिः व्यभिचरति। तथा च दर्शितम्। न तु सद्बुद्धिः। तस्मात् घटादिबुद्धिविषयः असन् व्यभिचारात् न तु सद्बुद्धिविषयः अव्यभिचारात्।।
घटे विनष्टे घटबुद्धौ व्यभिचरन्त्यां सद्बुद्धिरपि व्यभिचरतीति चेत् न पटादावपि सद्बुद्धिदर्शनात्। विशेषणविषयैव सा सद्बुद्धिः।।
सद्बुद्धिवत् घटबुद्धिरपि घटान्तरे दृश्यत इति चेत् न पटादौ अदर्शनात्।।
सद्बुद्धिरपि नष्टे घटे न दृश्यत इति चेत् न विशेष्याभावात्। सद्बुद्धिः विशेषणविषया सती विशेष्याभावे विशेषणानुपपत्तौ किंविषया स्यात् न तु पुनः सद्बुद्धेः विषयाभावात्।।
एकाधिकरणत्वं घटादिविशेष्याभावे न युक्तमिति चेत् न इदमुदकम् इति मरीच्यादौ अन्यतराभावेऽपि सामानाधिकरण्यदर्शनात्।।
तस्माद्देहादेः द्वन्द्वस्य च सकारणस्य असतो न विद्यते भाव इति। तथा सत श्च आत्मनः अभावः अविद्यमानता न विद्यते सर्वत्र अव्यभिचारात् इति अवोचाम।।
एवम् आत्मानात्मनोः सदसतोः उभयोरपि दृष्टः उपलब्धः अन्तो निर्णयः सत् सदेव असत् असदेवेति तु अनयोः यथोक्तयोः तत्त्वदर्शिभिः। तदिति सर्वनाम् सर्वं च ब्रह्म तस्य नाम तदिति तद्भावः तत्त्वम् ब्रह्मणो याथात्म्यम्। तत् द्रष्टुं शीलं येषां ते तत्त्वदर्शिनः तैः तत्त्वदर्शिभिः। त्वमपि तत्त्वदर्शिनां दृष्टिमाश्रित्य शोकं मोहं च हित्वा शीतोष्णादीनि नियतानियतरूपाणि द्वन्द्वानि विकारोऽयमसन्नेव मरीचिजलवन्मिथ्यावभासते इति मनसि निश्चित्य तितिक्षस्व इत्यभिप्रायः।।
किं पुनस्तत् यत् सदेव सर्वदा इति उच्यते