कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।4.17।।तुझे यह नहीं समझना चाहिये कि केवल देहादिकी चेष्टाका नाम कर्म है और उसे न करके चुपचाप बैठ रहनेका नाम अकर्म है उसमें जाननेकी बात ही क्या है यह तो लोकमें प्रसिद्ध ही है। क्यों ( ऐसा नहीं समझना चाहिये ) इस पर कहते हैं कर्मकाशास्त्रविहित क्रियाका भी ( रहस्य ) जानना चाहिये विकर्मकाशास्त्रवर्जित कर्मका भी ( रहस्य ) जानना चाहिये और अकर्मका अर्थात् चुपचाप बैठ रहनेका भी ( रहस्य ) समझना चाहिये। क्योंकि कर्मोंकी अर्थात् कर्म अकर्म और विकर्मकी गति उनका यथार्थ स्वरूप तत्त्व बड़ा गहन है समझनेमें बड़ा ही कठिन है।
।।4.17।। कर्मणः शास्त्रविहितस्य हि यस्मात् अपि अस्ति बोद्धव्यम् बोद्धव्यं च अस्त्येव विकर्मणः प्रतिषिद्धस्य तथा अकर्मणश्च तूष्णींभावस्य बोद्धव्यम् अस्ति इति त्रिष्वप्यध्याहारः कर्तव्यः। यस्मात् गहना विषमा दुर्ज्ञेया कर्मणः इति उपलक्षणार्थं कर्मादीनाम् कर्माकर्मविकर्मणां गतिः याथात्म्यं तत्त्वम् इत्यर्थः।।किं पुनस्तत्त्वं कर्मादेः यत् बोद्धव्यं वक्ष्यामि इति प्रतिज्ञातम् उच्यते
।।4.17।। कर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मकी गति गहन है।
।।4.17।। कर्म का (स्वरूप) जानना चाहिये और विकर्म का (स्वरूप) भी जानना चाहिये ; (बोद्धव्यम्) तथा अकर्म का भी (स्वरूप) जानना चाहिये (क्योंकि) कर्म की गति गहन है।।