श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।

स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।4.28।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।4.28।। दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत करनेवाले प्रयत्नशील साधक द्रव्य-सम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं, और कितने ही तपोयज्ञ करनेवाले हैं, और दूसरे कितने ही योगयज्ञ करनेवाले हैं, तथा कितने ही स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।4.28।। कुछ (साधक) द्रव्ययज्ञ, तपयज्ञ और योगयज्ञ करने वाले होते हैं;  और दूसरे कठिन व्रत करने वाले स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ करने वाले योगीजन होते हैं।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।4.28।।एवं त्रिभिः श्लोकैः प़ञ्चयज्ञानुक्त्वाऽधुनैकेन श्लोकेन षड्यज्ञानाह द्रव्यत्याग एव यथाशास्त्रं यज्ञो येषां ते द्रव्ययज्ञाः पूर्तदत्ताख्यरूपस्मार्तकर्मपराः। तथाच स्मृतिःवापीकूपतडागादि देवतायतनानि च। अन्नप्रदानमारामः पूर्तमित्यभिधीयते।।शरणागतसंत्राणं भूतानां चाप्यहिंसनम्। बहिर्वेदि च यद्दानं दत्तमित्यभिधीयते।। इति। इष्टाख्यं श्रौतं कर्म तुदैवमेवापरे यज्ञमित्यत्रोक्तम्। अन्तर्वेदि दानमपि तत्रैवान्तर्भूतम्। तथा कृच्छ्रचांन्द्रायणादि तप एव यज्ञो येषां ते तपोयज्ञास्तपस्विनः। तथा योगश्चित्तवृत्तिनिरोधोऽष्टाङ्गो यज्ञो येषां ते योगयज्ञा यमनियमासनादियोगाङ्गानुष्ठानपराः। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयो हि योगस्यष्टावङ्गानि। तत्र प्रत्याहारः श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्य इत्यत्रोक्तः। धारणाध्यानसमाधय आत्मसंयमयोगाग्नावित्यत्रोक्ताः। प्राणायामोऽपाने जुह्वति प्राणमित्यनन्तरश्लोके वक्ष्यते। यमनियमासनान्यत्रोच्यन्ते। अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः पञ्च। शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः पञ्च। स्थिरसुखमासनं पद्मकस्वस्तिकाद्यनेकविधम्। अशास्त्रीयः प्राणिवधो हिंसा। सा च कृतकारितानुमोदितभेदेन त्रिविधा। एवमयथार्थभाषणमवध्यहिंसानुबन्धि यथार्थभाषणं चानृतम् स्तेयमशास्त्रीयमार्गेण परद्रव्यस्वीकरणम् अशास्त्रीयःस्त्रीपुंसव्यतिकरो मैथुनम् शास्त्रनिषिद्धमार्गेण देहयात्रानिर्वाहकाधिकभोगसाधनस्वीकारः परिग्रहः। एतन्निवृत्तिलक्षणा उपरमा यमाः।यम उपरमे इति स्मरणात्। तथा शौचं द्विविधं बाह्यमाभ्यन्तरं च। मृज्जलादिभिः कायादिक्षालनं हितमितमेध्याशनादि च बाह्मम्। मैत्रीमुदितादिभिर्मदमानादिचित्तमलक्षालनमान्तरम्। संतोषो विद्यमानभोगोपकरणादधिकस्यानुपादित्सारूपा चित्तवृत्तिः। तपः क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिद्वन्द्वसहनं काष्ठमौनाकारमौनादिव्रतानि च। इङ्गितेनापि स्वाभिप्रायाप्रकाशनं काष्ठमौनम् अवचनमात्रमाकारमौनमिति भेदः। स्वाध्यायो मोक्षशास्त्राणामध्ययनं प्रणवजपो वा। ईश्वरप्रणिधानं सर्वकर्मणां तस्मिन्परमगुरौ फलनिरपेक्षतयाऽर्पणम्। एते विधिरूपा नियमाः। पुराणेषु येऽधिका उक्तास्त एष्वेव यमनियमेष्वन्तर्भाव्याः। एतादृशयमनियमाद्यभ्यासपरा योगयज्ञाः। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यथाविधि वेदाभ्यापराः स्वाध्याययज्ञाः। न्यायेन वेदार्थनिश्चयपरा ज्ञानयज्ञाः। यज्ञान्तरमाह यतयो यत्नशीलाः संशितव्रताः सम्यक् शितानि तीक्ष्णीकृतान्यतिदृढानि व्रतानि येषां ते संशितव्रतयज्ञा इत्यर्थः। तथाच भगवान्पतञ्जलिःते जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् इति। ये पूर्वमहिंसाद्याः पञ्च यमा उक्तास्त एव जात्याद्यनवच्छेदेन दृढभूमयो महाव्रतशब्दवाच्याः। तत्राहिंसा जात्यवच्छिन्ना यथा मृगयोर्मृगातिरिक्तान्न हनिष्यामीति। देशावच्छिन्ना न तीर्थे हनिष्यामीति। सैव कालवच्छिन्ना यथा न चतुर्दश्यां न पुण्येऽहनीति। सैव प्रयोजनविशेषरूपसमयावच्छिन्ना तथा क्षत्रियस्य देवब्राह्मणप्रयोजनव्यतिरेकेणन हनिष्यामि युद्धं विना न हनिष्यामीति च। एवं विवाहादिप्रयोजनव्यतिरेकेणानृतं न वदिष्यामीति एवमापत्कालव्यतिरेकेण क्षुद्भयाद्यतिरिक्तस्तेयं न करिष्यामीति च। एवमृतुव्यतिरिक्तकाले पत्नीं न गमिष्यामीति एवं गुर्वादिप्रयोजनमन्तरेण न परिग्रहीष्यामीति यथायोग्यमवच्छेदो द्रष्टव्यः। एतादृगवच्छेदपरिहारेण यदा सर्वजातिसर्वदेशसर्वकालसर्वप्रयोजनेषु भवाः सार्वभौमा अहिंसादयो भवन्ति महता प्रयत्नेन परिपाल्यमानत्वात् तदा ते महाव्रतशब्देनोच्यन्ते। एवं काष्ठमौनादिव्रतमपि द्रष्टव्यम्। एतादृशव्रतदार्ढ्ये चकामक्रोधलोभमोहानां चतुर्णामपि नरकद्वारभूतानां निवृत्तिः। तत्राहिंसया क्षमया क्रोधस्य ब्रह्मचर्येण वस्तुविचारेण कामस्य अस्तेयापरिग्रहरूपेण संतोषेण लोभस्य सत्येन यथार्थज्ञानरूपेण विवेकेन मोहस्य तन्मूलानां च सर्वेषां निवृत्तिरिति द्रष्टव्यम्। इतराणि च फलानि सकामानां योगाशास्त्रे कथितानि।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।4.28।। द्रव्ययज्ञाः तीर्थेषु द्रव्यविनियोगं यज्ञबुद्ध्या कुर्वन्ति ये ते द्रव्ययज्ञाः। तपोयज्ञाः तपः यज्ञः येषां तपस्विनां ते तपोयज्ञाः। योगयज्ञाः प्राणायामप्रत्याहारादिलक्षणो योगो यज्ञो येषां ते योगयज्ञाः। तथा अपरे स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च स्वाध्यायः यथाविधि ऋगाद्यभ्यासः यज्ञः येषां ते स्वाध्याययज्ञाः। ज्ञानयज्ञाः ज्ञानं शास्त्रार्थपरिज्ञानं यज्ञः येषां ते ज्ञानयज्ञाश्च यतयः यतनशीलाः संशितव्रताः सम्यक् शितानि तनूकृतानि तीक्ष्णीकृतानि व्रतानि येषां ते संशितव्रताः।।किञ्च

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।4.28।। द्रव्ययज्ञ यहां द्रव्य शब्द को उसके व्यापक अर्थ में समझना चाहिये। ईमानदारी से अर्जित किये धन का समाज सेवा में भक्तिभाव सहित विनियोग करने को द्रव्ययज्ञ कहते हैं। यह आवश्यक नहीं कि इसमें केवल अन्न या धन का ही दान हो।द्रव्य शब्द के अर्थ में वे सब वस्तुएं समाविष्ट हैं जो हमारे पास हैं जैसे भौतिक सम्पत्ति प्रेम और सद्विचार। ईश्वर की पूजा समझ कर अपनी इन भौतिक मानसिक एवं बौद्धिक सम्पदाओं का समाजसेवा में सदुपयोग करना ही द्रव्ययज्ञ कहलाता है। अत इस यज्ञ के अनुष्ठान के लिए साधक का धनवान होना आवश्यक नहीं है। दरिद्र अथवा शरीर से अपंग होते हुए भी हम जगत् के कल्याण की कामना कर सकते हैं और हृदय से प्रार्थना कर सकते हैं। हार्दिक सहानुभूति का एक शब्द कृपा का एक कटाक्ष स्नेह सिंचित स्मिति अथवा मैत्रीपूर्ण सदव्यवहार पाषाणीमन से दी हुई बड़ी धनराशि से भी अधिक महत्व का होता है।तपोयज्ञ कुछ साधक गण अपना तपोमय जीवन ईश्वर को अर्पित करते हैं। विश्व में ऐसा कोई धर्म नहीं जो किसी न किसी प्रकार से तप या व्रत का जीवन जीने का उपदेश न करता हो। ये व्रत परमेश्वर प्रीत्यर्थ ही किये जाते हैं। यह तो सब जानते ही हैं कि भक्त द्वारा किये गये भोग के त्याग से समस्त विश्व के पालन और पोषणकर्त्ता करुणासागर परमात्मा का कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध होने का नहीं तथापि साधकगण उसे ईश्वरार्पण करते हैं जिससे उन्हें आत्मसंयम और चित्त शुद्धि प्राप्त हो। कोईकोई तप शरीर के लिये अत्यन्त पीड़ादायक होते हैं फिर भी यदि उन्हें समझ कर किया जाय तो इन्द्रिय संयम प्राप्त हो सकता है।योगयज्ञ अपने मन से निकृष्ट प्रवृत्तियों का त्याग करके उत्कृष्ट जीवन जीने के सतत् प्रयत्न का नाम है योग। इसकी प्राथमिक साधना है अपने हृदय के इष्ट भगवान् की भक्ति पूर्वक पूजा करना। इसका ही नाम है उपासना। निष्काम भावना से उपासना का अनुष्ठान करने पर साधक की अध्यात्म मार्ग में प्रगति होती है इसलिये इसे योग कहा गया है और यज्ञ भावना से इसका अनुष्ठान करने के कारण यहां योगयज्ञ कहा गया है।स्वाध्याय यज्ञ प्रतिदिन शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। शास्त्रों के अध्ययन के बिना हम न तो अपने लक्ष्य को ही निर्धारित कर सकते हैं और न ही साधना अभ्यास का अर्थ ही समझ सकते हैं। ज्ञानरहित यन्त्रवत् साधना से अपेक्षित प्रगति नहीं हो सकती। यही कारण है कि सभी धर्मों में दैनिक स्वाध्याय पर विशेष बल दिया जाता है। आत्मानुभव के पश्चात् भी ऋषि मुनि अपना अधिकांश समय शास्त्राध्ययन तथा उसके गम्भीर चिन्तन मनन में व्यतीत करते हैं।अध्यात्म दृष्टि से स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का अध्ययन अर्थात् आत्मनिरीक्षण के द्वारा अपनी दुर्बलताओं को समझना जिससे उनका परित्याग किया जा सके। साधक के लिये यह आत्मविकास का एक साधन है तो सिद्ध पुरुषों के लिये आत्मानुभव में रमण का।ज्ञानयज्ञ गीता में यह शब्द अनेक स्थानों पर प्रयुक्त है और व्यास जी ने जिन मौलिक शब्दों का प्रयोग गीता में किया है उनमें से यह एक है। वह साधना ज्ञानयज्ञ कहलाती है जिसमें साधक ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित करके उसमें अपने अज्ञान की आहुति देता है। आत्मानात्मविवेक के द्वारा अनात्म वस्तु का निषेध एवं आत्मा के पारमार्थिक सत्यस्वरूप का प्रतिपादन इस यज्ञ के अंग हैं। निदिध्यासन में इसी का अभ्यास किया जाता है।आत्मोन्नति के उपर्युक्त पाँच साधनों का लाभ दृढ़ निश्चयी एवं उत्साहपूर्ण अभ्यासी साधकों को ही मिल सकता है। इन साधकों को केवल ज्ञान अथवा आत्मविकास की इच्छामात्र से कोई प्रगति नहीं हो सकती। पूर्ण लगन से जो निरन्तर साधना का अभ्यास करते हैं केवल वे ही साधक अध्यात्म के मार्ग पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ सकते हैं।साधनोपदेश के क्रम में अब भगवान् प्राणायाम की विधि बताते हैं

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।4.28।।जो यज्ञबुद्धिसे तीर्थादिमें द्रव्य लगाते हैं वे द्रव्ययज्ञा यानी द्रव्यसम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं। जो तपस्वी हैं वे तपोयज्ञा यानी तपरूप यज्ञ करनेवाले हैं। प्राणायाम प्रत्याहाररूप योग ही जिनका यज्ञ है वे योगयज्ञा यानी योगरूप यज्ञ करनेवाले हैं। वैसे ही अन्य कई स्वाध्याययज्ञ और ज्ञानयज्ञकरनेवाले भी हैं। जिनका यथाविधि ऋग्वेद आदिका अभ्यासरूप स्वाध्याय ही यज्ञ है वे स्वाध्याययज्ञ करनेवाले हैं और शास्त्रोंका अर्थ जाननारूप ज्ञान जिनका यज्ञ है वे ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं। इसी तरह कई यत्नशील संशित व्रतवाले हैं। जिनके व्रतनियम अच्छी प्रकार तीक्ष्ण किये हुए यानी सूक्ष्मशुद्ध किये हुए होते हैं वे पुरुष संशितव्रत कहलाते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।4.28।।द्रव्यं जुह्वतीति द्रव्ययज्ञाः। तपः परमेश्वरार्पणबुद्ध्या तत्र जुह्वतीति तपोयज्ञा इत्यादि। इदं तपो हविः एतद्ब्रह्माग्नौ जुहोति तत्पूजार्थमिति होमः। तदर्पण एव होमबुद्धिः।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।4.28।।केचित् कर्मयोगिनो द्रव्ययज्ञाः न्यायतो द्रव्याणि आदाय देवार्चने प्रयतन्ते केचित् च दानेषु केचित् च यागेषु केचित् च होमेषु एते सर्वे द्रव्ययज्ञाः।केचित्तपोयज्ञाः कृच्छ्रचान्द्रायणोपवासादिषु निष्ठां कुर्वन्ति योगयज्ञाःअपरे पुण्यतीर्थे पुण्यस्थानप्राप्तिषु निष्ठां कुर्वन्ति। इह योगशब्दः कर्मनिष्ठाभेदप्रकरणात् तद्विषयः।केचित् स्वाध्यायपराः स्वाध्यायाभ्यासपराः केचित्तदर्थज्ञानाभ्यासपराः यतयः यतनशीलाः शंसितव्रताः दृढसंकल्पाः।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

4.27-28 Sarvani etc. Dravyayajnak etc. Again all the activities of their sense-organs, the activities of their mind, and the activities of their vital airs, such as issuing through the mouth and nose, driving down the urine etc., other [seekers] established in the fire of concentration, named Yoga, which is the means for subduing the self i.e., the mind, and which is set ablaze by i.e., to be filled with, knowledge. The idea is this : With their intellect that has completely abandoned all other activities due to their concentration on the object, they receive the object that is being perceived on conceived. That has been stated in the Sivopanisad : 'When the intellect, concentrated on a certain object, not rejected, would not go to another object, at that time the meditation, remaining in the core of the objects, blossoms very much.' Thus the Yoga-sacrifices are explained. So far the performers of the material-object-sacrifices, the austerity-sacrifices, and the yoga-sacrifices have been defined. Those, who are the performers of the svadhyaya-knowledge-sacrifices are defined now [as] -

English Translation by Shri Purohit Swami

4.28 And yet others offer as their sacrifice wealth, austerities and meditation. Monks wedded to their vows renounce their scriptural learning and even their spiritual powers.

English Translation By Swami Sivananda

4.28 Others again offer wealth, austerity and Yoga as sacrifice, while the ascetics of self-restraint and rigid vows offer study of scriptures and knowledge as sacrifice.