योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.48।।यदि कर्मफलसे प्रेरित होकर कर्म नहीं करने चाहिये तो फिर किस प्रकार करने चाहिये इसपर कहते हैं
हे धनंजय योगमें स्थित होकर केवल ईश्वरके लिय कर्म कर। उनमें भी ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों। इस आशारूप आसक्तिको भी छोड़कर कर।
फलतृष्णारहित पुरुषद्वारा कर्म किये जानेपर अन्तःकरणकी शुद्धिसे उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है और उससे विपरीत ( ज्ञानप्राप्तिका न होना ) असिद्धि है ऐसी सिद्धि और असिद्धिमें भी सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर।
वह कौनसा योग है जिसमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहा है यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है इसीको योग कहते हैं।
।।2.48।।
योगस्थः सन् कुरु कर्माणि केवलमीश्वरार्थम् तत्रापि ईश्वरो मे तुष्यतु इति सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। फलतृष्णाशून्येन क्रियमाणे कर्मणि सत्त्वशुद्धिजा ज्ञानप्राप्तिलक्षणा सिद्धिः तद्विपर्ययजा असिद्धिः तयोः सिद्ध्यसिद्ध्योः अपि समः तुल्यः भूत्वा कुरु कर्माणि। कोऽसौ योगः यत्रस्थः कुरु इति उक्तम् इदमेव तत् सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वं योगः उच्यते।।
यत्पुनः समत्वबुद्धियुक्तमीश्वराराधनार्थं कर्मोक्तम् एतस्मात्कर्मणः
।।2.48।। हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
।।2.48।। हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।