श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3.3।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.3।।प्रश्नके अनुसार ही उत्तर देते हुए श्रीभगवान् बोले हे निष्पाप अर्जुन इस मनुष्यलोकमें शास्त्रोक्त कर्म और ज्ञानके जो अधिकारी हैं ऐसे तीनों वर्णवालोंके लिये ( अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्योंके लिये ) दो प्रकारकी निष्ठास्थिति अर्थात् कर्तव्य तत्परता पहलेसृष्टिके आदिकालमें प्रजाको रचकर उनकी लौकिक उन्नति और मोक्षकी प्राप्तिके साधनरूप वैदिक सम्प्रदायको आविष्कार करनेवाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वरद्वारा कही गयी हैं। वह दो प्रकारकी निष्ठा कौनसी हैं सो कहते हैं जो आत्मअनात्मके विषयमें विवेकजन्य ज्ञानसे सम्पन्न हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्यआश्रमसे ही संन्यास ग्रहण कर लिया है जिन्होंने वेदान्तके विज्ञानद्वारा आत्मतत्त्वका भलीभाँति निश्चय कर लिया है जो परमहंस संन्यासी हैं जो निरन्तर ब्रह्ममें स्थित हैं ऐसे सांख्ययोगियोंकी निष्ठा ज्ञानरूप योगसे कही है। तथा कर्मयोगसे कर्मयोगियोंकी अर्थात् कर्म करनेवालोंकी निष्ठा कही है। यदि एक पुरुषद्वारा एक ही प्रयोजनकी सिद्धिके लिये ज्ञान और कर्म दोनों एक साथ अनुष्ठान करने योग्य हैं ऐसा अपना अभिप्राय भगवान्द्वारा गीतामें पहले कहीं कहा गया होता या आगे कहा जानेवाला होता अथवा वेदमें कहा गया होता तो शरणमें आये हुए प्रिय अर्जुनको यहाँ भगवान् यह कैसे कहते कि ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा अलगअलग भिन्नभिन्न अधिकारियोंद्वारा ही अनुष्ठान की जानेयोग्य हैं। यदि भगावन्का यह अभिप्राय मान लिया जाय कि ज्ञान और कर्म दोनोंको सुनकर अर्जुन स्वयं ही दोनोंका अनुष्ठान कर लेगा दोनोंको भिन्न भिन्न पुरुषोंद्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य तो दूसरोंके लिये कहूँगा। तब तो भगवान्को रागद्वेषयुक्त और अप्रामाणिक मानना हुआ। ऐसा मानना सर्वथा अनुचित है। इसलिये किसी भी युक्तिसे ज्ञान और कर्मका समुच्चय नहीं माना जा सकता। कर्मोंकी अपेक्षा ज्ञानकी श्रेष्ठता जो अर्जुनने कही थी वह तो सिद्ध है ही क्योंकि भगवान्ने उसका निराकरण नहीं किया। उस ज्ञाननिष्ठाके अनुष्ठानका अधिकार संन्यासियोंका ही है क्योंकि दोनों निष्ठा भिन्नभिन्न पुरुषोंद्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य बतलायी गयी हैं। इस कारण भगवान्की यही सम्मति है। यह प्रतीत होता है। बन्धनके हेतुरूप कर्मोंमें ही भगवान् मुझे लगाते हैं ऐसा समझकर व्यथितचित्त हुए और मैं कर्म नहींकरूँगा ऐसा माननेवाले अर्जुनको देखकर भगवान् बोले न कर्मणामनारम्भात् इति। अथवा ज्ञाननिष्ठाका और कर्मनिष्ठाका परस्पर विरोध होनेके कारण एक पुरुषद्वारा एक कालमें दोनोंका अनुष्ठान नहीं किया जा सकता। इससे एक दूसरेकी अपेक्षा न रखकर दोनों अलगअलग मोक्षमें हेतु हैं ऐसा शंका होनेपर

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।3.3।। लोके अस्मिन् शास्त्रार्थानुष्ठानाधिकृतानां त्रैवर्णिकानां द्विविधा द्विप्रकारा निष्ठा स्थितिः अनुष्ठेयतात्पर्यं पुरा पूर्वं सर्गादौ प्रजाः सृष्ट्वा तासाम् अभ्युदयनिःश्रेयसप्राप्तिसाधनं वेदार्थसंप्रदायमाविष्कुर्वता प्रोक्ता मया सर्वज्ञेन ईश्वरेण हे अनघ अपाप। तत्र का सा द्विविधा निष्ठा इत्याह तत्र ज्ञानयोगेन ज्ञानमेव योगः तेन सांख्यानाम् अत्मानात्मविषयविवेकविज्ञानवतां ब्रह्मचर्याश्रमादेव कृतसंन्यासानां वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थानां परमहंसपरिव्राजकानां ब्रह्मण्येव अवस्थितानां निष्ठा प्रोक्ता। कर्मयोगेन कर्मैव योगः कर्मयोगः तेन कर्मयोगेन योगिनां कर्मिणां निष्ठा प्रोक्ता इत्यर्थः। यदि च एकेन पुरुषेण एकस्मै पुरुषार्थाय ज्ञानं कर्म च समुच्चित्य अनुष्ठेयं भगवता इष्टम् उक्तं वक्ष्यमाणं वा गीतासु वेदेषु चोक्तम् कथमिह अर्जुनाय उपसन्नाय प्रियाय विशिष्टभिन्नपुरुषकर्तृके एव ज्ञानकर्मनिष्ठे ब्रूयात् यदि पुनः अर्जुनः ज्ञानं कर्म च द्वयं श्रुत्वा स्वयमेवानुष्ठास्यति अन्येषां तु भिन्नपुरुषानुष्ठेयतां वक्ष्यामि इति मतं भगवतः कल्प्येत तदा रागद्वेषवान् अप्रमाणभूतो भगवान् कल्पितः स्यात्। तच्चायुक्तम्। तस्मात् कयापि युक्त्या न समुच्चयो ज्ञानकर्मणोः।।यत् अर्जुनेन उक्तं कर्मणो ज्यायस्त्वं बुद्धेः तच्च स्थितम् अनिराकरणात्। तस्याश्च ज्ञाननिष्ठायाः संन्यासिनामेवानुष्ठेयत्वम् भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्ववचनात्। भगवतः एवमेव अनुमतमिति गम्यते।।मां च बन्धकारणे कर्मण्येव नियोजयसि इति विषण्णमनसमर्जुनम् कर्म नारभे इत्येवं मन्वानमालक्ष्य आह भगवान् न कर्मणामनारम्भात् इति। अथवा ज्ञानकर्मनिष्ठयोः परस्परविरोधात् एकेन पुरुषेण युगपत् अनुष्ठातुमशक्यत्वे सति इतरेतरानपेक्षयोरेव पुरुषार्थहेतुत्वे प्राप्ते कर्मनिष्ठाया ज्ञाननिष्ठाप्राप्तिहेतुत्वेन पुरुषार्थहेतुत्वम् न स्वातन्त्र्येण ज्ञाननिष्ठा तु कर्मनिष्ठोपायलब्धात्मिका सती स्वातन्त्र्येण पुरुषार्थहेतुः अन्यानपेक्षा इत्येतमर्थं प्रदर्शयिष्यन् आह भगवान्

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।3.3।। श्रीभगवान् बोले - हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोकमें दो प्रकारसे होनेवाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे होती है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।3.3।। श्री भगवान् ने कहा हे निष्पाप (अनघ) अर्जुन इस श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की (सांख्यानां) ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से।।

English Translation by Shri Purohit Swami

3.3 Lord Shri Krishna replied: In this world, as I have said, there is a twofold path, O Sinless One! There is the Path of Wisdom for those who meditate, and the Path of Action for those who work.