श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।

रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्।।14.16।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।14.16।।(विवेकी पुरुषोंने) शुभ-कर्मका तो सात्त्विक निर्मल फल कहा है, राजस कर्मका फल दुःख कहा है और तामस कर्मका फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।14.16।। शुभ कर्म का फल सात्विक और निर्मल कहा गया है; रजोगुण का फल दु;ख और तमोगुण का फल अज्ञान है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।14.16।।इदानीं स्वानुरूपकर्मद्वारा सत्त्वादीनां विचित्रफलतां संक्षिप्याह -- सुकृतस्य सात्त्विकस्य कर्मणो धर्मस्य सात्त्विकं सत्त्वेन निर्वृत्तं निर्मलं रजस्तमोमलामिश्रितं सुखं फलमाहुः परमर्षयः। रजसो राजसस्य तु कर्मणः पापमिश्रस्य पुण्यस्य फलं राजसं दुःखं दुःखबहुलमल्पसुखं। कारणानुरूप्यात्कार्यस्य। अज्ञानमविवेकप्रायं दुःखं तामसं तमसस्तामसस्य कर्मणोऽधर्मस्य फलमाहुरित्यनुषज्यते। सात्त्विकादिकर्मलक्षणं चनियतं सङ्गरहितम् इत्यादिनाष्टादशे वक्ष्यति। अत्र रजस्तमःशब्दौ तत्कार्ये कर्मणि प्रयुक्तौ कार्यकरणयोरभेदोपचारातगोभिः श्रीणीत मत्सरम् इत्यत्र यथा गोशब्दस्तत्प्रभवे पयसि? यथावाधान्यमसि धिनुहि देवान् इत्यत्र धान्यशब्दस्तत्प्रभवे तण्डुले? तत्र पयस्तण्डुलयोरिवात्रापि कर्मणः प्रकृतत्वात्।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।14.16।। --,कर्मणः सुकृतस्य सात्त्विकस्य इत्यर्थः? आहुः शिष्टाः सात्त्विकम् एव निर्मलं फलम् इति। रजसस्तु फलं दुःखं राजसस्य कर्मणः इत्यर्थः? कर्माधिकारात् फलम् अपि दुःखम् एव? कारणानुरूप्यात् राजसमेव। तथा अज्ञानं तमसः तामसस्य कर्मणः अधर्मस्य पूर्ववत्।।किं च गुणेभ्यो भवति --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।14.16।। इस श्लोक में संभाषण कुशल भगवान् श्रीकृष्ण पूर्व के श्लोकों में कथित विषय को ही साररूप से वर्णन करते हैं। प्रत्येक गुण के प्रवृद्ध होने पर जो फल प्राप्त होते हैं उनका निर्देश यहाँ एक ही स्थान पर किया गया है।शुभ कर्मों का फल सात्विक और निर्मल कहा गया है। सावधानीपूर्वक अध्ययन करने पर हमें ज्ञात होगा कि अन्तकरण का विचार ही समस्त कर्मों का जनक है विचार बोये गये बीज हैं? तो कर्म हैं अर्जित की गयी उपज। घासपात के बीजों से मात्र घास ही उत्पन्न होगी वैसे ही अशुभ संकल्पों से अशुभ कर्म ही होंगे। बाह्य जगत् में व्यक्त हुए ये अशुभ कर्म दुष्प्रवृत्तियों का संवर्धन करते हैं और इस प्रकार मन के विक्षेप शतगुणित हो जाते हैं।यदि कोई पुरुष सेवा और भक्ति? स्नेह और दया? क्षमा और करुणा का शान्त? सन्तुष्ट? प्रसन्न और पवित्र जीवन जीता है? तो निश्चय ही ऐसा जीवन उसके सात्विक स्वभाव का ही परिचायक है। यह तथ्य जैसे सिद्धान्तत सत्य है वैसे ही लौकिक अनुभव के द्वारा भी सिद्ध होता है। ऐसे आदर्श जीवन जीने वाले पुरुष को अवश्य ही अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त होती है।यहाँ यह प्रश्न सम्भव हो सकता है कि यदि वर्तमान जीवन में कोई व्यक्ति अत्यन्त अधपतित है? तो किस प्रकार वह अपना उद्धार प्रारम्भ कर सकता है। यदि कर्म विचारों की अभिव्यक्ति हैं? और अन्तकरण में स्थित विचारों का स्वरूप अशुभ है? तो ऐसे व्यक्ति के विचारों के आमूल परिवर्तन की अपेक्षा हम कैसे कर सकते हैं विश्व के सभी धर्मों में अपनी विधि और निषेध की भाषा में इस प्रश्न का उत्तर एक मत से यही दिया गया है कि सत्य के साधकों? भगवान् के भक्तों और संस्कृति के समुपासकों को सदाचार और नैतिकता का आदर्श जीवन जीने का प्रयत्न करना चाहिए। वैचारिक परिवर्तन का यह प्रथम चरण है।इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन को अनुशासित करना और विचारों के स्वरूप को परिवर्तित करना सरल कार्य नहीं है किन्तु कर्मों के प्रकार को परिवर्तित करना और अपने बाह्य आचरण और व्यवहार को संयमित करना अपेक्षाकृत सरल कार्य है। इसलिए? सदाचार और अनुशासित व्यवहार आत्मोत्थान की महान् योजना के प्रारम्भिक चरण माने गये हैं। सदाचार के पालन से शनैशनै सद्विचारों का निर्माण भी प्रारम्भ हो जाता है।यही कारण है कि सभी राष्ट्रों की संस्कृतियों में बालकों से कुछ नियमों के पालन का आग्रह किया जाता है? जैसे श्रेष्ठजनों का आदर? आज्ञाओं का पालन? असत्य का त्याग? शास्त्रों का स्वाध्याय? शिक्षा? स्वच्छता आदि। जब बालक से इन नियमों का पालन करने को कहा जाता है? तब सम्भवत उन्हें ये सब नियम क्रूर नियम प्रतीत होते हैं? जिनका पालन करते हुए उन्हें जीने के लिए बाध्य किया जाता है। तथापि? दीर्घकाल की अवधि में अनजाने ही ये नियम बालकों के विचारों को अनुशासित करते हैं।सदाचार से मन सात्विक और निर्मल बन जाता है। इससे प्राप्त होने वाले फल? मनप्रसाद? न्यूनतम विक्षेप? चित्त की एकाग्रता? श्रद्धा? भक्ति? जिज्ञासा इत्यादि है। विकार और विक्षेप ये मन की अशुद्धियां हैं? जो अशुभ कर्मों से और अधिक प्रवृद्ध होती हैं। सत्कर्म अपने स्वभाव से ही मनोद्वेगों को नष्ट करके मन को शान्त और प्रसन्न करते हैं।रजोगुण का फल दुख और तमोगुण का फल अज्ञान है।पूर्वोक्त विवेचन के प्रकाश में भगवान् के इस कथन को समझना कठिन नहीं है। सत्त्व? रज और तम इन तीन गुणों का लक्षण क्रमश विवेक? विक्षेप और आवरण है। अत साधक का अधिक से अधिक प्रयत्न सत्वगुण में स्थिति की प्राप्ति के लिए होना चाहिए क्योंकि सक्रिय शान्ति की स्थिति ही सत्त्व है? जो मनुष्य के आन्तरिक जीवन का रचनात्मक क्षण होता है।इन गुणों से क्या उत्पन्न होता है सुनो

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।14.16।।पहले कहे हुए श्लोकोंके अर्थका ही सार कहा जाता है --, श्रेष्ठ पुरुषोंने शुभ कर्मका? अर्थात् सात्त्विक कर्मका फल सात्त्विक और निर्मल ही बतलाया है? तथा राजस कर्मका फल दुःख बतलाया है? अर्थात् कर्माधिकारसे राजस कर्मका फल भी अपने कारणके अनुसार दुःखरूप राजस ही होता है ( ऐसा कहा है ) और वैसे ही? तामसरूप अधर्मका -- पापकर्मका फल अज्ञान बतलाया है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।14.16।।रजसस्तु फलं दुःखमित्यल्पसुखं दुःखम्। तथा हि शार्कराक्षशाखायाम् -- रजसो ह्येव जायते मात्रया सुखं दुःखं तस्मात्तान्सुखिनो दुःखिन इत्याचक्षते इति। अन्यथा दुःखस्यातिकष्टत्वात्तमोधिकत्वं रजसो न स्यात्।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।14.16।।एवं सत्त्ववृद्धौ मरणम् उपगम्य आत्मविदां कुले जातेन अनुष्ठितस्य सुकृतस्य फलाभिसन्धिरहितस्य मदाराधनरूपस्य कर्मणः फलं पुनः अपि ततः अधिकसत्त्वजनितं निर्मलं दुःखगन्धरहितं भवति? इति आहुः सत्त्वगुणपरिणामविदः।अन्त्यकालप्रवृद्धस्य रजसः तु फलं फलसाधनकर्मसङ्गिकुले जन्म? फलाभिसन्धिपूर्वककर्मारम्भतत्फलानुभवपुनर्जन्मरजोवृद्धिफलाभिसन्धिपूर्वककर्मारम्भपरम्परारूपं सांसारिकं दुखप्रायम् एव इति आहुः तद्गुणयाथात्म्यविदः।अज्ञानं तमसः फलम् एवम् अन्तकालप्रवृद्धस्य तमसः फलम् अज्ञानपरम्परारूपम्।तद् अधिकसत्त्वादिजनितं निर्मलादिफलं किम् इति अत्र आह --

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

14.16 See Comment under 14.20

English Translation by Shri Purohit Swami

14.16 They say the fruit of a meritorious action is spotless and full of purity; the outcome of Passion is misery, and of Ignorance darkness.

English Translation By Swami Sivananda

14.16 The fruit of good action, they say, is Sattvic and pure, verily the fruit of Rajas is pain, and ignorance is the fruit of Tamas.