श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।16.23।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।16.23।। जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि-(अन्तःकरणकी शुद्धि-) को, न सुखको और न परमगतिको ही प्राप्त होता है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।16.23।। जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी कामना से प्रेरित होकर ही कार्य करता है, वह न पूर्णत्व की सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न परा गति।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।16.23।।यस्मादश्रेयोनाचरणस्य श्रेयआचरणस्य न शास्त्रमेव निमित्तं तयोः शास्त्रैकगम्यत्वात्तस्मात् -- यः शास्त्रविधिमुत्सृज्येति। शिष्यतेऽनुशिष्यतेऽपूर्वोऽर्थो बोध्यतेऽनेनेति शास्त्रं वेदस्तदुपजीविस्मृतिपुराणादि च? तत्संबन्धी विधिर्लिङादिशब्दः कुर्यान्न कुर्यादित्येवं प्रवर्तनानिवर्तनात्मकः कर्तव्याकर्तव्यज्ञानहेतुर्विधिनिषेधाख्यस्तं शास्त्रविधिं विधिनिषेधातिरिक्तमपि ब्रह्मप्रतिपादकं शास्त्रमस्तीति सूचयितुं विधिशब्दः। उत्सृज्याश्रद्धया परित्यज्य कामकारतः स्वेच्छामात्रेण वर्तते विहितमपि नाचरति निषिद्धमप्याचरति यः सः संसिद्धिं पुरुषार्थप्राप्तियोग्यामन्तःकरणशुद्धिं कर्माणि कुर्वन्नपि नाप्नोति। न सुखमैहिकं? नापि परां प्रकृष्टां गतिं स्वर्गं मोक्षं वा।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।16.23।। --,यः शास्त्रविधिं शास्त्रं वेदः तस्य विधिं कर्तव्याकर्तव्यज्ञानकारणं विधिप्रतिषेधाख्यम् उत्सृज्य त्यक्त्वा वर्तते कामकारतः कामप्रयुक्तः सन्? न सः सिद्धिं पुरुषार्थयोग्यताम् अवाप्नोति? न अपि अस्मिन् लोके सुखं न अपि परां प्रकृष्टां गतिं स्वर्गं मोक्षं वा।।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।16.23।। गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण का उपदेश यह है कि कामक्रोधादि आत्मघातक अवगुणों के त्याग से आन्तरिक शक्तियों का जो संचय किया जाता है? उसका आत्मोन्नति के लिए सदुपयोग करना चाहिए। ऐसा न करने पर मनुष्य का जो पतन होता है? उससे पुन ऊपर उठना अति कठिन हो जाता है। रावणादि के समान असुरों का चरित्र इस तथ्य का विशिष्ट प्रमाण है। ये असुर तपश्चर्या के द्वारा असीम शक्तियां प्राप्त करते थे? परन्तु उसके दुरुपयोग करके वे आत्मनाश ही करते थे उनकी शक्तियां ऐसी अद्भुत और भयंकर थीं कि उन्होंने अपनी पीढ़ी को हिला दिया था और उसे चूरचूर कर पृथ्वी की धूल चटा दी थी। स्वयं को तथा इस जगत् को अनर्थ से सुरक्षित रख्ाने के लिए लोगों को गम्भीर चेतावनी की आवश्यकता है। इन अन्तिम दो श्लोकों में यही चेतावनी दी गयी है।जो पुरुष शास्त्रविधि की उपेक्षा करके अपनी स्वच्छन्द प्रकृति के अनुसार ही काम करता है? उसे वस्तुत किसी प्रकार का भी लाभ नहीं होता। यहाँ शास्त्र शब्द से कठिन और विस्तृत कर्मकाण्ड को ही समझना आवश्यक नहीं है? जिसका अनुष्ठान और उपदेश रूढ़िवादी लोग विशेष बल देकर करते हैं। ब्रह्यविद्या का तथा तत्प्राप्ति के साधनों का उपदेश जिन ग्रन्थों में दिया गया है उन्हें यहाँ शास्त्र कहा गया है। ऐसे ग्रन्थ मुख्यत उपनिषद् हैं। वेदान्त के प्रतिपाद्य विषय तथा परिभाषिक शब्दावली का वर्णन करने वाले ग्रन्थों को प्रकरण ग्रन्थ कहा जाता हैं। गीता में ब्रह्मविद्या तथा तत्प्राप्ति के साधन उपदिष्ट है? इसलिए गीता भी शास्त्र ही है।कामकारत प्रस्तुत खण्ड में काम? क्रोध और लोभ के त्याग का उपदेश दिया गया है। हमने यह देखा कि क्रोध और लोभ का मूल कारण काम ही है। इसलिए? भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ केवल काम का ही उल्लेख करते हुए कहते हैं कि काम से प्रेरित मनुष्य को परम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती।वह न सिद्धि प्राप्त करता है न सुख और न परा गति। गीता के उपदेश का पालन न करने से क्या हानि होगी इसका उत्तर यह है कि कामना से प्रेरित? लोभ से प्रोत्साहित और क्रोध से विक्षिप्त पुरुष सदैव अशान्ति और क्रूर मनाद्वेगों से पूर्ण जीवन को ही प्राप्त करता है। ऐसा पुरुष न सुख प्राप्त करता है और न आत्मविकास।अत? निष्कर्ष यह निकलता है कि

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।16.23।।इस समस्त आसुरी सम्पत्तिके त्यागका और कल्याणमय आचरणोंका? मूल कारण शास्त्र है? शास्त्रप्रमाणसे ही दोनों किये जा सकते हैं? अन्यथा नहीं? अतः --, जो मनुष्य शास्त्रके विधानको? अर्थात् कर्तव्यअकर्तव्यके ज्ञानका कारण जो विधिनिषेधबोधक आदेश है उसको? छोड़कर कामनासे प्रयुक्त हुआ बर्तता है? वह न तो सिद्धिको -- पुरुषार्थकी योग्यताको पाता है? न इस लोकमें सुख पाता है और न परम गतिको अर्थात् स्वर्ग या मोक्षको ही पाता है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।16.23।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।16.23।।शास्त्रं वेदाः विधिः अनुशासनम् वेदाख्यं मदनुशासनम् उत्सृज्य यः कामकारतो वर्तते स्वच्छन्दानुगणमार्गेण वर्तते? न स सिद्धिम् अवाप्नोति? न काम् अपि आमुष्मिकीं सिद्धिम् अवाप्नोति। न सुखं ऐहिकम् अपि किञ्चिद् अवाप्नोति। न परां गतिम् कुतः परां गतिं प्राप्नोति इत्यर्थः।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

16.23 See Coment under 16.24

English Translation by Shri Purohit Swami

16.23 But he who neglects the commands of the scriptures, and follows the promptings of passion, he does not attain perfection, happiness or the final goal.

English Translation By Swami Sivananda

16.23 He who, having cast aside the ordinances of the scriptures, acts under the impulse of desire, attains not perfection, nor happiness nor the Supreme Goal.