श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2.15।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.15।। कारण कि हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुःखमें सम रहनेवाले जिस धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) व्यथित (सुखी-दुःखी) नहीं कर पाते, वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.15।। हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुख और सुख में समान भाव से रहने वाले जिस धीर पुरुष को ये व्यथित नहीं कर सकते हैं वह अमृतत्व (मोक्ष) का अधिकारी होता है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।2.15।।नन्वन्तःकरणस्य सुखदुःखाद्याश्रयत्वे तस्यैव कर्तृत्वेन भोक्तृत्वेन च चेतनत्वमभ्युपेयम् तथाच तद्व्यतिरिक्ते तद्भासके भोक्तरि मानाभावान्नाममात्रे विवादः स्यात् तदभ्युपगमे च बन्धमोक्षयोर्वैयधिकरण्यापत्तिः अन्तःकरणस्य सुखदुःखाश्रयत्वेन बद्धत्वात् आत्मनश्च तद्व्यतिरिक्तस्य मुक्तत्वादित्याशङ्कामर्जुनस्यापनेतुमाह भगवान् यं स्वप्रकाशत्वेन स्वतएव प्रसिद्धंअत्रायं पुरुषः स्वयंज्योतिर्भवति इति श्रुतेः। पुरुषं पूर्णत्वेन पुरि शयानंस वा अयं पुरुषः सर्वासु पूर्षु पुरिशयो नैतेन किंचनानावृतं नैतेन किंचनासंवृतम् इति श्रुतेः। समदुःखसुखं समे दुःखसुखे अनात्मधर्मतया भास्यतया च यस्य निर्विकारस्य स्वयंज्योतिषस्तम्। सुखदुःखग्रहणमशेषान्तःकरणपरिणामोपलक्षणार्थम्।एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न कर्मणा वर्धते नो कनीयान् इति श्रुत्या वृद्धिकनीयस्तारूपयोः सुखदुःखयोः प्रतिषेधात्। धीरं धियमीरयतीति व्युत्पत्त्या चिदाभासद्वारा धीतादात्म्याध्यासेन धीप्रेरकम्। धीसाक्षिणमित्यर्थः।स धीरः स्वप्नो भूत्वेमं लोकमतिक्रामति इति श्रुतेः। एतेन बन्धप्रसक्तिर्दर्शिता। तदुक्तम्यतो मानानि सिध्यन्ति जाग्रदादित्रयं तथा। भावाभावविभागश्च स ब्रह्मास्मीति बोध्यते इति। एते सुखदुःखदा मात्रास्पर्शाः हि यस्मान्न व्यथयन्ति परमार्थतो न विकुर्वन्ति सर्वविकारभासकत्वेन विकारायोग्यत्वात्सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः इति श्रुतेः। अतः स पुरुषः स्वस्वरूपभूतब्रह्मात्मैक्यज्ञानेन सर्वदुःखोपादानतदज्ञाननिवृत्त्युपलक्षिताय निखिलद्वैतानुपरक्तस्वप्रकाशपरमानन्दरूपाय अमृतत्वाय मोक्षाय कल्पते। योग्यो भवतीत्यर्थः। यदि ह्यात्मा स्वाभाविकबन्धाश्रयः स्यात्तदा स्वाभाविकधर्माणां धर्मिनिवृत्तिमन्तरेणानिवृत्तेर्न कदापि मुच्येत। तथाचोक्तम्आत्मा कर्त्रादिरूपश्चेन्मा काङ्क्षीस्तर्हि मुक्तताम्। नहि स्वभावो भावानां व्यावर्तेतौष्ण्यवद्रवेः।। इति। प्रागभावासहवृत्तेर्युगपत्सर्वविशेषगुणनिवृत्तेर्धर्मिनिवृत्तेर्नान्तरीयकत्वदर्शनात्। अथात्मनि बन्धो न स्वाभाविकः किंतु बुद्ध्याद्युपाधिकृतःआत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः इति श्रुतेः। तथाच धर्मिसद्भावेऽपि तन्निवृत्त्या मुक्त्युपपत्तिरितिचेत् हन्त तर्हि यः स्वधर्ममन्यनिष्ठतया भासयति स उपाधिरित्यभ्युपगमाद्बुद्ध्यादिरुपाधिः स्वधर्ममात्मनिष्ठतया भासयतीत्यायातम्। तथाचायातं मार्गे बन्धस्यासत्यत्वाभ्युपगमात् नहि स्फटिकमणौ जपाकुसुमोपधाननिमित्तो लोहितिमा सत्यः अतः सर्वसंसारधर्मासंसर्गिणोऽप्यात्मन उपाधिवशात्तत्संसर्गित्वप्रतिभासो बन्धः। स्वस्वरूपज्ञानेन तु स्वरूपाज्ञानतत्कार्यबुद्ध्याद्युपाधिनिवृत्त्या तन्निमित्तनिखिलभ्रमनिवृत्तौ निर्मृष्टनिखिलभास्योपरागतया शुद्धस्य स्वप्रकाशपरमानन्दतया पूर्णस्यात्मनः स्वत एव कैवल्यं मोक्ष इति न बन्धमोक्षयोर्वैयधिकरण्यापत्तिः। अतएवनाममात्रे विवादः इत्यपास्तम् भास्यभासकयोरेकत्वानुपपत्तेः।दुःखी स्वव्यतिरिक्तभास्यः भास्यत्वात् घटवत् इत्यनुमानात् भास्यस्य भासकत्वादर्शनात् एकस्यैव भास्यत्वे भासकत्वे च कर्तृकर्मविरोधादात्मनः कथमिति चेत्। न। तस्य भासकत्वमात्राभ्युपगमात्। अहं दुःखीत्यादिवृत्तिसहिताहंकारभासकत्वेन तस्य कदापि भास्यकोटावप्रवेशात्। अतएवदुःखी न स्वातिरिक्तभासकापेक्षः भासकत्वात् दीपवत् इत्यनुमानमपि न। भास्यत्वेन स्वातिरिक्तभासकसाधकेन प्रतिरोधात्। भासकत्वं च भानकरणत्वं स्वप्रकाशभानरूपत्वं वा। आद्ये दीपस्येव करणान्तरानपेक्षत्वेऽपि स्वातिरिक्तभानसापेक्षत्वं दुःखिनो न व्याहन्यते। अन्यथा दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्यापत्तेः। द्वितीये त्वसिद्धो हेतुरित्यधिकबलतया भास्यत्वहेतुरेव विजयते बुद्धिवृत्त्यतिरिक्तभानानभ्युपगमात्। बुद्धिरेव भानरूपेतिचेत्। न। भानस्य सर्वदेशकालानुस्यूततया भेदकधर्मशून्यतया च

विभोर्नित्यस्यैकस्य चानित्यपरिच्छिन्नानेकरूपबुद्धिपरिणामात्मकत्वानुपपत्तेः उत्पत्तिविनाशादिप्रतीतेश्चावश्यकल्प्यविषयसंबन्धविषयतयाप्युपपत्तेः। अन्यथा तत्तज्ज्ञानोत्पत्तिविनाशभेदादिकल्पनायामतिगौरवापत्तेरित्याद्यन्यत्र विस्तरः। तथाच श्रुतिःनहि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात्आकाशवत्सर्वगतश्च नित्यःमहद्भूतमनन्तमपारं विज्ञानघन एवतदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यभयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूः इत्याद्या विभुनित्यस्वप्रकाशज्ञानरूपतामात्मनो दर्शयति। एतेनाविद्यालक्षणादप्युपाधेर्व्यतिरेकः सिद्धः। अतोऽसत्योपाधिनिबन्धनबन्धभ्रमस्य सत्यात्मज्ञानान्निवृत्तौ मुक्तिरिति सर्वमवदातम्। पुरुषर्षभेति संबोधयन्स्वप्रकाशचैतन्यरूपत्वेन पुरुषत्वं परमानन्दरूपत्वेन चात्मन ऋषभत्वं सर्वद्वैतापेक्षया श्रेष्ठत्वमजानन्नेव शोचसि अतः स्वस्वरूपज्ञानादेव तव शोकनिवृत्तिः सुकरातरति शोकमात्मवित् इति श्रुतेरिति सूचयति। अत्र पुरुषमित्येकवचनेन सांख्यपक्षो निराकृतः। तैः पुरुषबहुत्वाभ्युपगमात्।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.15।।

 यं हि पुरुषं  समे दुःखसुखे यस्य तं  समदुःखसुखं  सुखदुःखप्राप्तौ हर्षविषादरहितं धीरं धीमन्तं  न व्यथयन्ति  न चालयन्ति नित्यात्मदर्शनाद् एते यथोक्ताः शीतोष्णादयः    नित्यात्मस्वरूपदर्शननिष्ठो द्वन्द्वसहिष्णुः  अमृतत्वाय  अमृतभावाय मोक्षायेत्यर्थः  कल्पते  समर्थो भवति।।
इतश्च शोकमोहौ अकृत्वा शीतोष्णादिसहनं युक्तं यस्मात्

 

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।2.15।। सुख और दुख को शान्त भाव से सहन करने का नाम तितिक्षा है जो उपनिषदों के अनुसार आत्मसाक्षात्कार के लिये एक आवश्यक गुण है। इसी को ध्यान में रखकर भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस प्रकार की तितिक्षा से सम्पन्न व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।
यहाँ मोक्ष का तात्पर्य अमृतत्व शब्द से किया है। इस शब्द से स्थूल शरीर का मोक्ष नहीं समझना चाहिये। यहाँ इस शब्द का उपयोग उसके व्यापक अर्थ में किया गया है। शरीर मन और बुद्धि तथा इनके द्वारा प्राप्त सभी अनुभव र्मत्य और अनित्य ही हैं। इन उपाधियों के साथ हमारा तादात्म्य होने से इनके जन्ममरणादि धर्मों से हम प्रभावित होकर दुखी होते हैं। अमृतत्व का अर्थ है जो पुरुष अपने नित्य आत्मस्वरूप को पहचान लेता है वह इन सब अनुभवों को प्राप्त कर उनके मध्य रहता हुआ भी शोकमोह को प्राप्त नहीं होता। उसे अपने अमृतस्वरूप का विस्मरण नहीं होता।
गीता के द्वारा महान् कवि व्यास जी भगवान् श्रीकृष्ण के माध्यम से हमें हमारे जीवन का लक्ष्य बताते हैं पूर्णत्व की प्राप्ति। अल्पकाल के लिये प्राप्त इस जीवन में हमको इस लक्ष्य प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये। चिन्तित हुये बिना प्रसन्नतापूर्वक जीवन में आने वाले सुखदुखादि कष्टों को सहन करने की सर्वोच्च साधना करने का इन परिस्थितियों में हमें अवसर मिलता है।
तितिक्षा का अर्थ निराश उदास भाव से जो हो रहा है उसको सहन करना ऐसा नहीं है। यहाँ विशेष रूप से कहा है कि शीतोष्णादि द्वन्द्वों में जिसका मन समभाव में स्थित रहता है वह धीर पुरुष मोक्ष का अधिकारी होता है। यहाँ प्रयोजन निराश व्यक्ति की सहनशक्ति से नहीं बल्कि जगत् के परिर्वतनशील स्वभाव को अच्छी प्रकार समझ लेने से है। विवेकी पुरुष में यह सार्मथ्य आ जाती है कि सुख में उसे हर्षातिरेक नहीं होता और न दुख में अत्यन्त विषाद।
जब तक देह के साथ हमारी अत्यन्त आसक्ति रहती है तब तक उसमें होने वाली पीड़ाओं से हम विलग नहीं हो सकते और हम व्यथित हो जाते हैं। हृदय में प्रेम अथवा घृणा के भाव के प्रादुर्भाव से यदि शारीरिक कष्ट सहने की आवश्यकता पड़ती है तो वह क्षमता हममें आ जाती है। पुत्र के प्रति प्रेम के कारण उसको शिक्षा आदि देने के लिए आवश्यकता पड़ने पर हम बड़ी प्रसन्नता से अपनी शारीरिक सुख सुविधाओं का त्याग करने के लिए तैयार हो जाते हैं। वह असुविधा हमें कष्ट नहीं पहुँचाती। इसी प्रकार बुद्धिनिष्ठ आदर्शों की प्राप्ति के लिए शरीर और मन के आरामों को भी हम त्याग देते हैं। विश्व के अनेक देशभक्त क्रान्तिकारियों ने अपने देश की स्वतन्त्र्ाता के आदर्शों को प्राप्त करने के लिए अनेक कष्ट सहन करके अपने प्राणों की आहुति दी है।
निम्नलिखित कारणों से भी तुम्हारे लिए उचित है कि शोक और मोह को छोड़ कर तुम शान्तिपूर्वक शीतादि को सहन करो। क्योंकि

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.15।।शीतउष्णादि सहन करनेवालेको क्या ( लाभ ) होता है सो सुन

सुखदुःखको समान समझनेवाले अर्थात् जिसकी दृष्टिमें सुखदुःख समान हैं सुखदुःखकी प्राप्तिमें जो हर्षविषादसे रहित रहता है ऐसे जिस धीर बुद्धिमान् पुरुषको ये उपर्युक्त शीतोष्णादि व्यथा नहीं पहँचा सकते अर्थात् नित्य आत्मदर्शनसे विचलित नहीं कर सकते।
वह नित्य आत्मदर्शननिष्ठ और शीतोष्णादि द्वन्द्वोंको सहन करनेवाला पुरुष मृत्युसे अतीत हो जानेके लिये यानी मोक्षके लिये समर्थ होता है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।2.15।।अतः प्रयोजनमाह यं हीति। यमेते मात्रास्पर्शा न व्यथयन्ति। पुरिशयमेव सन्तं शरीरसम्बधाभावे सर्वेषां व्यथाभावात्पुरुषमिति विशेषणम्। कथं न व्यथयन्ति समदुःखसुखत्वात् तत्कथं धैर्येण।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।2.15।। यं पुरुषं  धैर्ययुक्तम् अवर्जनीयदुःखं सुखवन्मन्यमानम् अमृतत्वसाधनतया स्ववर्णोचितं युद्धादिकर्म अनभिसंहितफलं कुर्वाणं तदन्तर्गताः शस्त्रपातादिमृढुक्रूरस्पर्शा  न व्यथयन्ति  स एव अमृतत्वं साधयति न त्वादृशो दुःखासहिष्णुः इत्यर्थः। अतः आत्मनां नित्यत्वाद् एतावद् अत्र कर्तव्यम् इत्यर्थः।
यत्तु आत्मनां नित्यत्वं देहानां स्वाभाविकं नाशित्वं च शोकानिमित्तिम् उक्तम्गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः (गीता 2।11) इति तद् उपपादयितुम् आरभते

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

2.15 But, because all these different situations are of the nature of coming and going, on that account itself are they not to be lamented on ? It is not so. As for instance : What is this which is termed 'coming' ? If it is 'birth', what is that 'birth' itself ? It is wrong to say that is the same as gaining the self by what is non-existent. For, to be of the nature of non-existence, is indeed to be devoid of every inherent nature and to be devoid of the very self. If a thing is devoid of the self and devoid of every nature, how is it possible to convert it into what has an intrinsic nature ? Surely, it is impossible to convert the non-blue into blue. For, it is faulty and undesirable to covert the non-blue into blue. For, it is faulty and undesirable to conclude that a thing with certain in nature changes to be of a different nature. Hence the scritpure goes - 'The intrinsic nature of beings would not cease to exist, e.g., the heat of the sun'. On the other hand, if the 'birth' signifies the gaining of self just by what [really] exists, even then, why the lamentability on its coming ? For, what has gained a self, could never be non-existent and conseently it would be eternal. Likewise, is the act of 'going' also meant for the existent or the non-existent ? What is non-existent is just non-existent [for ever.] How can there be a non-existence-nature even in the case of that which is of the existence-nature ? If it is said that it is of the non-existence-nature in the second moment; [since its birth], then it should be so even in the first moment; and so nothing would be existent. For, the intrinsic nature [ever] remains unabandoned. But is it not that the destruction of it (i.e., of a given thing, like a pot) is brought about by the stroke of a hammer etc.? Yet, if that destruction is altogether different [from the existent one i.e. the pot], then what does it matter for what is existent ? But, it is not be seen [at that time] ? Yet, what is actually existent (pot) may not be seen just as when it is covered with a cloth; but it has not turned to be altogether different. In fact, it has been said [in the scriptures] that this is not different [from the existent]. Summarising all these, [the Lord] says -

English Translation by Shri Purohit Swami

2.15 The hero whose soul is unmoved by circumstance, who accepts pleasure and pain with equanimity, only he is fit for immortality.

English Translation By Swami Sivananda

2.15 That firm man whom, surely, these afflict not, O chief among men, to whom pleasure and pain are the same, is fit for attaining immortality.