श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2.2।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.2।। श्रीभगवान् बोले (टिप्पणी प0 38.1) - हे अर्जुन! इस विषम अवसरपर तुम्हें यह कायरता कहाँसे प्राप्त हुई, जिसका कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्गको देनेवाली नहीं है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं है।
।।2.2।। श्री भगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह मोह कहाँ से उत्पन्न हुआ? यह आर्य आचरण के विपरीत न तो स्वर्ग प्राप्ति का साधन ही है और न कीर्ति कराने वाला ही है।।
।।2.2।।तदेव भगवतो वाक्यमवतारयति श्रीभगवानुवाचेति।ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। वैराग्यस्याथ मोक्षस्य षण्णां भग इतीङ्गना।। समग्रस्येति प्रत्येकं संबन्धः। मोक्षस्येति तत्साधनस्य ज्ञानस्य। इङ्गना संज्ञा। एतादृशं समग्रमैश्वर्यादिकं नित्यमप्रतिबन्धेन यत्र वर्तते स भगवान्। नित्ययोगे मतुप्। तथा उत्पत्तिं च विनाशं च भूतानामागतिं गतिम्। वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति।। अत्र भूतानामिति प्रत्येकं संबध्यते। उत्पत्तिविनाशशब्दौ तत्कारणस्याप्युपलक्षकौ। आगतिगती आगामिन्यौ संपदापदौ। एतादृशो भगवच्छब्दार्थः श्रीवासुदेव एव पर्यवसित इति तथोच्यते इदं स्वधर्मात्पराङ्मुखत्वं कृपाव्यामोहाश्रुपातादिपुरःसरं कश्मलं शिष्टगर्हितत्वेन मलिनं विषमे सभये स्थाने त्वा त्वां सर्वक्षत्रियप्रवरं कुतो हेतोः समुपस्थितं प्राप्तं किं मोक्षेच्छातः किंवा स्वर्गेच्छातः अथवा कीर्तीच्छात इति किंशब्देनाक्षिप्यते। हेतुत्रयमपि निषेधति त्रिभिर्विशेषणैरुत्तरार्धेन। आर्यैर्मुमुक्षुभिर्न जुष्टमसेवितम्।स्वधर्मैराशयशुद्धिद्वारा मोक्षमिच्छद्भिरपक्वकषायैर्मुमुक्षुभिः कथं स्वधर्मस्त्याज्य इत्यर्थः। संन्यासाधिकारी तु पक्वकषायोऽग्रे वक्ष्यते। अस्वर्ग्यं स्वर्गहेतुधर्मविरोधित्वान्न स्वर्गेच्छया सेव्यम्। अकीर्तिकरं कीर्त्यभावकरमपकीर्तिकरं वा न कीर्तीच्छया सेव्यम्। तथाच मोक्षकामैः स्वर्गकामैः कीर्तिकामैश्च वर्जनीयम्। तत्काम एव त्वं सेवस इत्यहो अनुचितचेष्टितं तवेति भावः।
2.2 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
।।2.2।। अपने आप को आर्य कहलाने वाले एक राजा को युद्धभूमि में इस प्रकार हतबुद्धि देखकर भगवान् को आश्चर्य हो रहा था। एक सच्चे आर्य अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष का स्वभाव तो यह होता है कि जीवन में आने वाली किसी भी परिस्थिति में अपने मनसंयम से विचलित न होकर उन परिस्थितियों का कुशलता से सामना करता है और उनको अपने अनुकूल बना लेता है। समुचित शैली में जीवन यापन करके अत्यन्त प्रतिकूल और विषम परिस्थितियों को भी आनन्ददायक सफलता में परिवर्तित किया जा सकता है। यह सब मनुष्य की बुद्धिमत्ता पर निर्भर है कि वह अपने आप को जीवन के उत्थानपतन में सही दिशा में किस प्रकार ले जाता है। यहाँ भगवान् अर्जुन के आचरण को अनार्य कहते हैं। आर्य पुरुष जीवन के उच्च आदर्शों पवित्रता और गरिमा के आह्वान के प्रति सदैव जागरूक और प्रयत्नशील रहते हैं ।
अर्जुन की इस शोकाकुल अवस्था को देखकर श्रीकृष्ण को आश्चर्य इसलिये हो रहा था कि वे दीर्घ काल से अच्छी प्रकार जानते थे और इस प्रकार का शोकमोह अर्जुन के स्वभाव के सर्वथा विपरीत था। इसीलिये वे यहाँ कहते हैं तुमको इस विषमस्थल में৷৷.आदि।
हिन्दुओं का यह विश्वास है कि क्षत्रिय कुल में जन्मे हुये व्यक्ति का कर्तव्य है धर्म के लिये युद्ध करना और इस प्रकार यदि उसे रणभूमि में प्राण त्यागना पड़े तो उस वीर को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
।।2.2।।No such translation is available. Translation starts from 2.10
।।2.2।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
।।2.2।।संजय उवाच श्रीभगवानुवाच एवम् उपविष्टे पार्थे कुतः अयम् अस्थाने समुत्थितः शोक इति आक्षिप्य तम् इमं विषमस्थं शोकम् अविद्वत्सेवितं परलोकविरोधिनम् अकीर्तिकरम् अतिक्षुद्रं हृदयदौर्बल्यकृतं परित्यज्य युद्धाय उत्तिष्ठ इति श्रीभगवान् उवाच।