श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

न जायते म्रियते वा कदाचि

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2.20।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.20।। यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.20।। यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है,  शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।2.20।।कस्मादयमात्मा हननक्रियायाः कर्ता कर्म च न भवति अविक्रियत्वादित्याह द्वितीयेन मन्त्रेण जायतेऽस्ति वर्धते विपरिणमतेऽपक्षीयते विनश्यति इति षड्भावविकारा इति वार्ष्यायणिरिति नैरुक्ताः। तत्राद्यन्तयोर्निषेधः। क्रियते न जायते म्रियते वेति। वाशब्दः समुच्चयार्थः। न जायते न म्रियते चेत्यर्थः। कस्मादयमात्मा नोत्पद्यते यस्मादयमात्मा कदाचित्कस्मिन्नपि काले न भूत्वा अभूत्वा प्राक् भूयः पुनरपि भविता न। यो ह्यभूत्वा भवति स उत्पत्तिलक्षणां विक्रियामनुभवति। अयं तु प्रागपि सत्त्वाद्यतो नोत्पद्यतेऽतोऽजः। तथायमात्मा भूत्वा प्राक् कदाचित् भूयः पुनः न भविता। न वा शब्दाद्वाक्यविपरिवृत्तिः। यो हि

प्राग्भूत्वोत्तरकाले न भवति स मृतिलक्षणां विक्रियामनुभवति अयं तूत्तरकालेऽपि सत्त्वाद्यतो न म्रियतेऽतो नित्यः। विनाशायोग्य इत्यर्थः। अत्र न भूत्वेत्यत्र समासाभावेऽपि नानुपपत्तिर्नानुयाजेष्वितिवत्। भगवता पणिनिना महाविभाषाधिकारे नञ्समासपाठात्। यत्तु कात्यायनेनोक्तंसमासनित्यताभिप्रायेण वा वचनानर्थक्यं तु स्वभावसिद्धत्वात् इति तत्

भगवत्पाणिनिवचनविरोधादनादेयम्। तदुक्तमाचार्यशबरस्वामिनाअसद्वादी हि कात्यायनः इति। अत्र न जायते म्रियते वेति प्रतिज्ञा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय इति तदुपपादनं अजो नित्य इति तदुपसंहार इति विभागः।

आद्यन्तयोर्विकारयोर्निषेधेन मध्यवर्तिविकाराणां तद्व्याप्यानां निषेधे जातेऽपि गमनादिविकाराणामनुक्तानामप्युपलक्षणयापक्षयश्च वृद्धिश्च स्वशब्देनैव निराक्रियते। तत्र कूटस्थनित्यत्वादात्मनो निर्गुणत्वाच्च न स्वरूपतो गुणतो वापक्षयः संभवतीत्युक्तं शाश्वत इति। शश्वत्सर्वदा भवति नापक्षीयते नापचीयत इत्यर्थः। यदि नापक्षीयते तर्हि वर्धतामिति नेत्याह पुराण इति। पुरापि नव एकरूपो नत्वधुना नूतनां कांचिदवस्थामनुभवति। यो हि नूतनां कांचिदुपचयावस्थामनुभवति स वर्धत इत्युच्यते लोके। अयं तु सर्वदैकरूपत्वान्नापचीयते नोपचीयते चेत्यर्थः। अस्तित्वविपरिणामौ तु जन्मविनाशान्तर्भूतत्वात्पृथङ्निषिद्धौ।

यस्मादेवं सर्वविकारशून्य आत्मा तस्माच्छरीरे हन्यमाने तत्संबद्धोऽपि केनाप्युपायेन न हन्यते न हन्तुं शक्यत इत्युपसंहारः।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.20।।

 न जायते  न उत्पद्यते जनिलक्षणा वस्तुविक्रिया न आत्मनो विद्यते इत्यर्थः। तथा  न म्रियते वा । वाशब्दः चार्थे। न म्रियते च इति अन्त्या विनाशलक्षणा विक्रिया प्रतिषिध्यते।  कदाचिच्छ ब्दः सर्वविक्रियाप्रतिषेधैः संबध्यते न कदाचित् जायते न कदाचित् म्रियते इत्येवम्। यस्मात्  अयम्  आत्मा  भूत्वा  भवनक्रियामनुभूय पश्चात्  अभविता  अभावं गन्ता  न भूयः  पुनः तस्मात् न म्रियते। यो हि भूत्वा न भविता स म्रियत इत्युच्यते लोके। वाशब्दात् न शब्दाच्च अयमात्मा अभूत्वा वा भविता देहवत् न भूयः। तस्मात् न जायते। यो हि अभूत्वा भविता स जायत इत्युच्यते। नैवमात्मा। अतो न जायते। यस्मादेवं तस्मात्  अजः  यस्मात् न म्रियते तस्मात्  नित्य श्च। यद्यपि आद्यन्तयोर्विक्रिययोः प्रतिषेधे सर्वा विक्रियाः प्रतिषिद्धा भवन्ति तथापि मध्यभाविनीनां विक्रियाणां स्वशब्दैरेव प्रतिषेधः कर्तव्यः अनुक्तानामपि यौवनादिसमस्तविक्रियाणां प्रतिषेधो यथा स्यात् इत्याह  शाश्वत  इत्यादिना। शाश्वत इति अपक्षयलक्षणा विक्रिया प्रतिषिध्यते। शश्वद्भवः शाश्वतः। न अपक्षीयते स्वरूपेण निरवयवत्वात्। नापि गुणक्षयेण अपक्षयः निर्गुणत्वात्। अपक्षयविपरीतापि वृद्धिलक्षणा विक्रिया प्रतिषिध्यते पुराण इति। यो हि अवयवागमेन उपचीयते स वर्धते अभिनव इति च उच्यते।  अयं  तु आत्मा निरवयवत्वात् पुरापि नव एवेति  पुराणः  न वर्धते इत्यर्थः। तथा  न हन्यते । हन्तिः अत्र विपरिणामार्थे द्रष्टव्यः अपुनरुक्ततायै। न विपरिणम्यते इत्यर्थः।

 हन्यमाने  विपरिणम्यमानेऽपि  शरीरे । अस्मिन् मन्त्रे षड् भावविकारा लौकिकवस्तुविक्रिया आत्मनि प्रतिषिध्यन्ते। सर्वप्रकारविक्रियारहित आत्मा इति वाक्यार्थः। यस्मादेवं तस्मात् उभौ तौ न विजानीतः इति पूर्वेण मन्त्रेण अस्य संबन्धः।।
य एनं वेत्ति हन्तारम् इत्यनेन मन्त्रेण हननक्रियायाः कर्ता कर्म च न भवति इति प्रतिज्ञाय न जायते इत्यनेन अविक्रियत्वं हेतुमुक्त्वा प्रतिज्ञातार्थमुपसंहरति

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।2.20।। इस श्लोक में बताया गया है कि शरीर में होने वाले समस्त विकारों से आत्मा परे है। जन्म अस्तित्व वृद्धि विकार क्षय और नाश ये छ प्रकार के परिर्वतन शरीर में होते हैं जिनके कारण जीव को कष्ट भोगना पड़ता है। एक र्मत्य शरीर के लिये इन समस्त दुख के कारणों का आत्मा के लिये निषेध किया गया है अर्थात् आत्मा इन विकारों से सर्वथा मुक्त है।
शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की उत्पत्ति होती है और उनका नाश होता है परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश। जिसका आदि है उसी का अन्त भी होता है। उत्ताल तरंगे ही मृत्यु की अन्तिम श्वांस लेती हैं। सर्वदा विद्यमान आत्मा के जन्म और नाश का प्रश्न ही नहीं उठता। अत यहाँ कहा है कि आत्मा अज और नित्य है।
आत्मा में क्रिया के कर्तृत्व और विषयत्व का निषेध तथा उसके बाद तर्क के द्वारा उसके अविकारत्व को सिद्ध करने के बाद भगवान् इस विषय का उपसंहार करते हुये कहते हैं

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.20।।आत्मा निर्विकार कैसे है इसपर दूसरा मन्त्र ( इस प्रकार है )

यह आत्मा उत्पन्न नहीं होता अर्थात् उत्पत्तिरूप वस्तुविकार आत्मामें नहीं होता और यह मरता भी नहीं। वा शब्द यहाँ च के अर्थमें है।
मरता भी नहीं इस कथनसे विनाशरूप अन्तिम विकारका प्रतिषेध किया जाता है।
कदाचित् शब्द सभी विकारोंके प्रतिषेधके साथ सम्बन्ध रखता है। जैसे यह आत्मा न कभी जन्मता है न कभी मरता है इत्यादि।
जिससे कि यह आत्मा उत्पन्न होकर अर्थात् उत्पत्तिरूप विकारका अनुभव करके फिर अभावको प्राप्त होनेवाला नहीं है इसलिये मरता नहीं क्योंकि जो उत्पन्न होकर फिर नहीं रहता वह मरता है इस प्रकार लोकमें कहा जाता है।
वा शब्दसे और न शब्दसे यह भी पाया जाता है कि यह आत्मा शरीरकी भाँति पहले न होकर फिर होनेवाला नहीं है इसलिये यह जन्मता नहीं क्योंकि जो न होकर फिर होता है वहीं जन्मता है यह कहा जाता है। आत्मा ऐसा नहीं है इसलिये नहीं जन्मता।
ऐसा होनेके कारण आत्मा अज है और मरता नहीं इसलिये नित्य है।
यद्यपि आदि और अन्तके दो विकारोंके प्रतिषेधसे ( बीचके ) सभी विकारोंका प्रतिषेध हो जाता है तो भी बीचमें होनेवाले विकारोंका भी उनउन विकारोंके प्रतिषेधार्थक खासखास शब्दोंद्वारा प्रतिषेध करना उचित

है। इसलिये ऊपर न कहे हुए जो यौवनादि सब विकार हैं उनका भी जिस प्रकार प्रतिषेध हो ऐसे भावको शाश्वत इत्यादि शब्दोंसे कहते हैं
सदा रहनेवालेका नाम शाश्वत है शाश्वत शब्दसे अपक्षय ( क्षय होना ) रूप विकारका प्रतिषेध किया जाता है क्योंकि आत्मा अवयवरहित है इस कारण स्वरूपसे उसका क्षय नहीं होता और निर्गुण होनेके कारण गुणोंके क्षयसे भी उसका क्षय नहीं होता।
पुराण इस शब्दसे अपक्षयके विपरीत जो वृद्धिरूप विकार है उसका भी प्रतिषेध किया जाता है। जो पदार्थ किसी अवयवकी उत्पत्तिसे पुष्ट होता है। वह बढ़ता है नया हुआ है ऐसे कहा जाता है परंतु यह आत्मा तो अवयवरहित होनेके कारण पहले भी नया था अतः पुराण है अर्थात् बढ़ता नहीं।
तथा शरीरका नाश होनेपर यानी विपरीत परिणामको प्राप्त हो जानेपर भी आत्मा नष्ट नहीं होता अर्थात् दुर्बलतादि अवस्थाको प्राप्त नहीं होता।
यहाँ हन्ति क्रियाका अर्थ पुनरुक्तिदोषसे बचनेके लिये विपरीत परिणाम समझना चाहिये इसलिये यह अर्थ हुआ कि आत्मा अपने स्वरूपसे बदलता नहीं।
इस मन्त्रमें लौकिक वस्तुओंमें होनेवाले छः भावविकारोंका आत्मामें अभाव दिखलाया जाता है। आत्मा सब प्रकारके विकारोंसे रहित है यह इस मन्त्रका वाक्यार्थ है।
ऐसा होनेके कारण वे दोनों ही ( आत्मस्वरूपको ) नहीं जानते। इस प्रकार पूर्व मन्त्रसे इसका सम्बन्ध है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।2.20।।अत्र मन्त्रवर्णोऽप्यस्तीत्याह न जायत इति। नचेश्वरज्ञानवद्भूत्वा भविता। तद्धि तदैक्षत छां.उ.6।2।3देशतः कालतो योऽसाववस्थातः स्वतोऽन्यतः। अविलुप्तावबोधात्मा इत्यादिश्रुतिस्मृतिसिद्धम्। कुतः अजादिलक्षणेश्वरसरूपत्वात्। शाश्वतः सदेकरूपः। पुरं देहमणतीति पुराणः। तथापि न हन्यते हन्यमानेऽपि देहे।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।2.20।।उक्तैः एव हेतुभिः नित्यत्वाद् अपरिणामित्वाद् आत्मनो जन्ममरणादयः सर्व एव अचेतनदेहधर्मा न सन्ति इति उच्यते।
तत्र  न जायते म्रियत  इति वर्तमानतया सर्वेषु देहेषु सर्वैः अनुभूयमाने जन्ममरणे  कदाचिद्  अपि आत्मानं न स्पृशतः।  नायं भूत्वा भवति वा न भूयः  अयं कल्पादौ भूत्वा भूयः कल्पान्ते च न भविता इति न। केषुचित् प्रजापतिप्रभृतिदेहेषु आगमेन उपलभ्यमानं कल्पादौ जननं कल्पान्ते च मरणम् आत्मानं न स्पृशति इत्यर्थः।
अतः सर्व देहगत आत्मा  अजः  अत एव  नित्यः   शाश्वतः  प्रकृतिवदविशदसततपरिणामैः अपि न अन्वीयते। अतः पुराणः पुरातनः अपि नवः सर्वदा अपूर्ववद् अनुभाव्य इत्यर्थः। अतः  शरीरे हन्यमाने  अपि  न हन्यते अयम्  आत्मा।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

2.20 Na jayate etc. Having not been at one time, This etc. : this Self will come to be, having not been at any time non-existent, but only having been existent. Therefore This is not born, This does not die too. For, having been [at one time], This will never be non-existent [at another time]; but certainly This will be [always] existent.

English Translation by Shri Purohit Swami

2.20 It was not born; It will never die, nor once having been, can It cease to be. Unborn, Eternal, Ever-enduring, yet Most Ancient, the Spirit dies not when the body is dead.

English Translation By Swami Sivananda

2.20 It is not born, nor does It ever die; after having been, It again ceases not to be; unborn, eternal, changeless and ancient, It is not killed when the body is killed.