वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.22।। मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है।
।।2.22।। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।
।।2.22।।नन्वेवमात्मनो विनाशित्वाभावेऽपि देहानां विनाशित्वाद्युद्धस्य च तन्नाशकत्वात्कथं
भीष्मादिदेहानामनेकसुकृतसाधनानां मया युद्धेन विनाशः कार्य इत्याशङ्काया उत्तरं जीर्णानि विहाय वस्त्राणि नवानि गृह्णाति विक्रियाशून्य एव नरो यथेत्येतावतैव निर्वाहे अपराणीति विशेषणमुत्कर्षातिशयख्यापनार्थम्। तेन तथा निकृष्टानि वस्त्राणि विहायोत्कृष्टानि जनो गृह्णातीत्यौचित्यायातम्। तथा जीर्णानि वयसा तपसा च कृशानि भीष्मादिशरीराणि विहाय अन्यानि देवादिशरीराणि सर्वोत्कृष्टानि चिरोपार्जितधर्मफलभोगाय संयाति सम्यक् गर्भवासादिक्लेशव्यतिरेकेण प्राप्नोति। देही
प्रकृष्टधर्मानुष्ठातृदेहवान्भीष्मादिरित्यर्थः।अन्यन्नवतरं कल्याणतरं रूपं कुरुते पित्र्यं वा गान्धर्वं वा दैवं वा प्राजापत्यं वा ब्राह्मं वा इत्यादिश्रुतेः। एतदुक्तं भवति भीष्मादयो हि यावज्जीवं धर्मानुष्ठानक्लेशेनैव जर्जरशरीरा वर्तमानशरीरपातमन्तरेण
तत्फलभोगायासमर्था यदि धर्मयुद्धेन स्वर्गप्रतिबन्धकानि जर्जरशरीराणि पातयित्वा दिव्यदेहसंपादनेन स्वर्गभोगयोग्याः क्रियन्ते त्वया तदात्यन्तमुपकृता एव ते। दुर्योधनादीनामपि स्वर्गभोगयोग्यदेहसंपादनान्महानुपकार एव। तथाचात्यन्तमुपकारके
युद्धेऽपकारकत्वभ्रमं मा कार्षीरितिअपराणि अन्यानि संयाति इति पदत्रयवशाद्भगवदभिप्राय एवमभ्यूहितः। अनेन
दृष्टान्तेनाविकृतत्वप्रतिपादनमात्मनः क्रियत इति तु प्राचां व्याख्यानमतिस्पष्टम्।
।।2.22।।
वासांसि वस्त्राणि जीर्णानि दुर्बलतां गतानि यथा लोके विहाय परित्यज्य नवानि अभिनवानि गृह्णाति उपादत्ते नरः पुरुषः अपराणि अन्यानि तथा तद्वदेव शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति संगच्छति नवानि देही आत्मा पुरुषवत् अविक्रिय एवेत्यर्थः।।
कस्मात् अविक्रिय एवेति आह
।।2.22।। गीता के प्राय उद्धृत किये जाने वाले अनेक प्रसिद्ध श्लोकों में यह एक श्लोक है जिसमें एक अत्यन्त व्यावहारिक दृष्टांत के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार जीवात्मा एक देह को छोड़कर अन्य देह के साथ तादात्म्य करके नई परिस्थितियों में नए अनुभव प्राप्त करता है। व्यास जी द्वारा प्रयुक्त यह दृष्टान्त अत्यन्त सुपरिचित है।
जैसे मनुष्य व्यावहारिक जीवन में भिन्नभिन्न अवसरों पर समयोचित वस्त्रों को धारण करता है वैसे ही जीवात्मा एक देह को त्यागकर अन्य प्रकार के अनुभव प्राप्त करने के लिये किसी अन्य देह को धारण करता है। कोई भी व्यक्ति रात्रिपरिधान (नाईट गाउन) पहने अपने कार्यालय नहीं जाता और न ही कार्यालय के वस्त्र पहनकर टेनिस खेलता है। वह अवसर और कार्य के अनुकूल वस्त्र पहनता है। यही बात मृत्यु के विषय में भी है।
यह दृष्टांत इतना सरल और बुद्धिग्राह्य है कि इसके द्वारा न केवल अर्जुन वरन् दीर्घ कालावधि के पश्चात भी गीता का कोई भी अध्येता या श्रोता देह त्याग के विषय को स्पष्ट रूप से समझ सकता है।
अनुपयोगी वस्त्रों को बदलना किसी के लिये भी पीड़ा की बात नहीं होती और विशेषकर जब पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण करने हों तब तो कष्ट का कोई कारण ही नहीं होता। इसी प्रकार जब जीव यह पाता है कि उसका वर्तमान शरीर उसके लिये अब कोई प्रयोजन नहीं रखता तब वह उस जीर्ण शरीर का त्याग कर देता है। शरीर के इस जीर्णत्व का निश्चय इसको धारण करने वाला ही कर सकता है क्योंकि जीर्णत्व का सम्बन्ध न धारणकर्त्ता की आयु से है और न उसकी शारीरिक अवस्था से है।
जीर्ण शब्द के तात्पर्य को न समझकर अनेक आलोचक इस श्लोक का विरोध करते हैं। उनकी मुख्य युक्ति यह है कि जगत् में अनेक बालक और युवक मरते देखे जाते हैं जिनका शरीर जीर्ण नहीं था। शारीरिक दृष्टि से यह कथन सही होने पर भी जीव की विकास की दृष्टि से देखें तो यदि जीव के लिये वह शरीर अनुपयोगी हुआ तो उस शरीर को जीर्ण ही माना जायेगा। कोई धनी व्यक्ति प्रतिवर्ष अपना भवन या वाहन बदलना चाहता है और हर बार उसे कोई न कोई क्रय करने वाला भी मिल जाता है। उस धनी व्यक्ति की दृष्टि से वह भवन या वाहन पुराना या अनुपयोगी हो चुका है परन्तु ग्राहक की दृष्टि से वही घर नये के समान उपयोगी है। इसी प्रकार शरीर जीर्ण हुआ या नहीं इसका निश्चय उसको धारण करने वाला जीव ही कर सकता है।
यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धान्त को दृढ़ करता है जिसकी विवेचना हम 12वें श्लोक में पहले ही कर चुके हैं।
इस दृष्टांत के द्वारा अर्जुन को यह बात निश्चय ही समझ में आ गयी होगी कि मृत्यु केवल उन्हीं को भयभीत करती है जिन्हें उसका ज्ञान नहीं होता है। परन्तु मृत्यु के रहस्य एवं संकेतार्थ को समझने वाले व्यक्ति को कोई पीड़ा या शोक नहीं होता जैसे वस्त्र बदलने से शरीर को कोई कष्ट नहीं होता और न ही एक वस्त्र के त्याग के बाद हम सदैव विवस्त्र अवस्था में ही रहते हैं। इसी प्रकार विकास की दृष्टि से जीव का भी देह का त्याग होता है और वह नये अनुभवों की प्राप्ति के लिये उपयुक्त नवीन देह को धारण करता है। उसमें कोई कष्ट नहीं है। यह विकास और परिवर्तन जीव के लिये है न कि चैतन्य स्वरूप आत्मा के लिये। आत्मा सदा परिपूर्ण है उसे विकास की आवश्यकता नहीं।
आत्मा अविकारी अपरिवर्तनशील क्यों है भगवान् कहते हैं
।।2.22।।अब हम प्रकृत विषय वर्णन करेंगे। यहाँ ( प्रकरणमें ) आत्माके अविनाशित्वकी प्रतिज्ञा की गयी है वह किसके सदृश है सो कहा जाता है
जैसे जगत्में मनुष्य पुरानेजीर्ण वस्त्रोंको त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रोंको ग्रहण करते हैं वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरको छोड़कर अन्यान्य नवीन शरीरोंको प्राप्त करता है। अभिप्राय यह कि ( पुराने वस्त्रोंको छोड़कर नये धारण करनेवाले ) पुरुषकी भाँति जीवात्मा सदा निर्विकार ही रहता है।
।।2.22।।देहात्मविवेकानुभवार्थं दृष्टान्तमाह वासांसीति।
।।2.22।।धर्मयुद्धे शरीरं त्यजतां त्यक्तशरीराद् अधिकतरकल्याणशरीरग्रहणं शास्त्राद् अवगम्यते इति। जीर्णानि वासांसि विहाय नवानि कल्याणानि वासांसि गृह्णताम् इव हर्षनिमित्तिम् एव अत्र उपलभ्यते।
पुनरपिअविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। (गीता 2।17) इति पूर्वोक्तम् अविनाशित्वं सुखग्रहणाय
व्यञ्जयन् द्रढयति