अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।2.25।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.25।। यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तनका विषय नहीं है और यह निर्विकार कहा जाता है। अतः इस देहीको ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये।
।।2.25।। यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है; इसलिए इसको इस प्रकार जानकर तुमको शोक करना उचित नहीं है।।
।।2.25।।छेद्यत्वादिग्राहकप्रमाणाभावादपि तदभाव इत्याह अव्यक्तोऽयमित्याद्यर्धेन। यो हीन्द्रियगोचरो भवति स
प्रत्यक्षत्वाद्व्यक्त इत्युच्यते। अयं तु रूपादिहीनत्वान्न तथा। अतो न प्रत्यक्षं तत्र छेद्यत्वादिग्राहकमित्यर्थः। प्रत्यक्षाभावेऽप्यनुमानं स्यादित्यत आह अचिन्त्योऽयं चिन्त्योऽनुमेयस्तद्विलक्षणोऽयम् क्वचित्प्रत्यक्षो हि वह्न्यादिर्गृहीतव्याप्तिकस्य
धूमादेर्दर्शनात्क्वचिदनुमेयो भवति अप्रत्यक्षे तु व्याप्तिग्रहणासंभवान्नानुमेयत्वमिति भावः। अप्रत्यक्षस्यापीन्द्रियादेः सामान्यतो दृष्टानुमानविषयत्वं दृष्टमत आह अविकार्योऽयं यद्विक्रियावच्चक्षुरादिकं तत्स्वकार्यान्यथानुपपत्त्या कल्प्यमानमर्थापत्तेः
सामान्यतो दृष्टानुमानस्य च विषयो भवति। अयं तु न विकार्यो न विक्रियावानतो नार्थापत्तेः सामान्यतो दृष्टस्य वा विषय इत्यर्थः। लौकिकशब्दस्यापि प्रत्यक्षादिपूर्वकत्वात्तन्निषेधेनैव निषेधः। ननु वेदेनैव तत्र छेद्यत्वादि ग्रहीष्यत इत्यत आह उच्यते वेदेन सोपकरणेनाच्छेद्याव्यक्तादिरूप एवायमुच्यते तात्पर्येण प्रतिपाद्यते अतो न वेदस्य तत्प्रतिपादकस्यापि
छेद्यत्वादिप्रतिपादकत्वमित्यर्थः। अत्रनैनं छिन्दन्ति इत्यत्र शस्त्रादीनां तन्नाशकसामर्थ्याभाव उक्त़ः।अच्छेद्योऽयम् इत्यादौ तस्य छेदादिकर्मत्वायोग्यत्वमुक्तम्। अव्यक्तोऽयम् इत्यत्र तच्छेदादिग्राहकमानाभाव उक्त इत्यपौनरुक्त्यं द्रष्टव्यम्। वेदाविनाशिनम् इत्यादिनां तु श्लोकानामर्थतः शब्दतश्च पौनरुक्त्यं भाष्यकृद्भिः परिहृतम्। दुर्बोधत्वादात्मवस्तुनः पुनः पुनः प्रसङ्गमापाद्य शब्दान्तरेण तदेव वस्तु निरूपयति भगवान्वासुदेवः। कथं नु नाम संसारिणां बुद्धिगोचरमापन्नं तत्त्वं संसारनिवृत्तये स्यादिति वदद्भिः। एंव पूर्वोक्तयुक्तिभिरात्मनो नित्यत्वे निर्विकारत्वे च सिद्धे तव शोको नोपपन्न इत्युपसंहरति
तस्मादित्यर्धेन। एतादृशात्मस्वरूपवेदनस्य शोककारणनिवर्तकत्वात्तस्मिन्सति शोको नोचितः। कारणाभावे
कार्याभावस्यावश्यकत्वात्। तेनात्मानमविदित्वा यदन्वशोचस्तद्युक्तमेव। आत्मानं विदित्वा तु नानुशोचितुमर्हसीत्यभिप्रायः।
।।2.25।।
सर्वकरणाविषयत्वात् न व्यज्यत इति अव्यक्तः अयम् आत्मा। अत एव अचिन्त्यः अयम्। यद्धि इन्द्रियगोचरः तत् चिन्ताविषयत्वमापद्यते। अयं त्वात्मा अनिन्द्रियगोचरत्वात् अचिन्त्यः। अत एव अविकार्यः यथा क्षीरं
दध्यातञ्चनादिना विकारि न तथा अयमात्मा। निरवयवत्वाच्च अविक्रियः। न हि निरवयवं किञ्चित् विक्रियात्मकं दृष्टम्। अविक्रियत्वात् अविकार्यः अयम् आत्मा उच्यते। तस्मात् एवं यथोक्तप्रकारेण एनम् आत्मानं विदित्वा त्वं न अनुशोचितुमर्हसि हन्ताहमेषाम् मयैते हन्यन्त इति।।
आत्मनः अनित्यत्वमभ्युपगम्य इदमुच्यते
।।2.25।। आत्मा के स्वरूप को भगवान् यहाँ और अधिक स्पष्ट करते हैं। यहाँ प्रयुक्त शब्दों के द्वारा सत्य का निर्देश युक्तिपूर्वक किया गया है।
अव्यक्त पंचमहाभूतों में जो सबसे अधिक स्थूल है जैसे पृथ्वी उसका ज्ञान पांचों ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा होता है। परन्तु जैसेजैसे सूक्ष्मतर तत्त्व तक हम पहुँचते हैं वैसे यह ज्ञात होता है कि उसका ज्ञान पांचों प्रकार से नहीं होता। जल में गंध नहीं है और अग्नि में रस नहीं है तो वायु में रूप भी नहीं है। इस प्रकार आकाश सूक्ष्मतम होने से दृष्टिगोचर नहीं होता। स्वभावत जो आकाश का भी कारण है उसका ज्ञान किसी भी इन्द्रिय के द्वारा नहीं हो सकता। अत हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि वह अव्यक्त है।
इन्द्रियगोचर वस्तु व्यक्त कही जाती है। अत जो इन्द्रियों से परे है वह अव्यक्त है। यद्यपि मैं किसी वृक्ष के बीज में वृक्ष को देखसुन नहीं सकता हूँ और न उसका स्वाद स्पर्श या गंध ज्ञात कर सकता हूँ तथापि मैं जानता हूँ कि यही बीज वृक्ष का कारण है। इस स्थिति में कहा जायेगा कि बीज में वृक्ष अव्यक्त अवस्था में है। इस प्रकार आत्मा को अव्यक्त कहने का तात्पर्य यह है कि वह इन्द्रियों के द्वारा जानने योग्य विषय नहीं है। उपनिषदों में विस्तारपूर्वक बताया गया है कि आत्मा सबकी द्रष्टा होने से दृश्य विषय नहीं बन सकती।
अचिन्त्य आत्मा इन्द्रियों का विषय नहीं है उसी प्रकार यहाँ वह अचिन्त्य है कहकर यह दर्शाते हैं कि मन और बुद्धि के द्वारा हम आत्मा का मनन और चिन्तन नहीं कर सकते जैसे अन्य विषयों का विचार सम्भव है। इसका कारण यह है कि मन और बुद्धि दोनों स्वयं जड़ हैं। परन्तु इस चैतन्य आत्मा के प्रकाश से चेतन होकर वे अन्य विषयों को ग्रहण करते हैं। अब अपने ही मूलस्वरूप द्रष्टा को वे किस प्रकार विषय रूप में जान सकेंगे दूरदर्शीय यन्त्र से देखने वाला व्यक्ति स्वयं को नहीं देख सकता क्योंकि एक ही व्यक्ति स्वयं द्रष्टा और दृश्य दोनों नहीं हो सकता। यह अचिन्त्य शब्द का तात्पर्य है। अत अव्यक्त और अचिन्त्य शब्द से आत्मा को अभाव रूप नहीं समझ लेना चाहिए।
अविकारी अवयवों से युक्त साकार पदार्थ परिच्छिन्न और विकारी होता है। निरवयव आत्मा में किसी प्रकार का विकार संभव नहीं है।
इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश करते हैं कि आत्मा को उसके शुद्ध रूप से पहचान कर शोक करना त्याग देना चाहिए। ज्ञानी पुरुष अपने को न मारने वाला समझता है और न ही मरने वाला मानता है।
भौतिकवादी विचारकों के मत को स्वीकार करके यह मान भी लें कि आत्मा नित्य नहीं है तब भी भगवान् कहते हैं
।।2.25।।तथा
यह आत्मा बुद्धि आदि सब करणोंका विषय नहीं होनेके कारण व्यक्त नहीं होता ( जाना नहीं जा सकता ) इसलिये अव्यक्त है।
इसीलिये यह अचिन्त्य है क्योंकि जो पदार्थ इन्द्रियगोचर होता है वही चिन्तनका विषय होता है। यह आत्मा इन्द्रियगोचर न होनेसे अचिन्त्य है।
यह आत्मा अविकारी है अर्थात् जैसे दहीके जावन आदिसे दूध विकारी हो जाता है वैसे यह नहीं होता।
तथा अवयवरहित ( निराकार ) होनेके कारण भी आत्मा अविक्रिय है क्योंकि कोई भी अवयवरहित ( निराकार ) पदार्थ विकारवान् नहीं देखा गया। अतः विकाररहित होनेके कारण यह आत्मा अविकारी कहा जाता है।
सुतरां इस आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे समझकर तुझे यह शोक नहीं करना चाहिये कि मैं इनका मारनेवाला हूँ मुझसे ये मारे जाते हैं इत्यादि।
।।2.25।।अत एवाव्यक्तादिरूपः।
।।2.25।।छेदनादियोग्यानि वस्तूनि यैः प्रमाणैः व्यज्यन्ते तैः अयम् आत्मा न व्यज्यते इति अव्यक्तः। अतः छेद्यादिविजातीयः। अचिन्त्यः च सर्ववस्तुविजातीयत्वेन तत्तत्स्वभावयुक्ततया चिन्तयितुम् अपि न अर्हः। अतः च अविकार्यः विकारानर्हः। तस्माद् उक्तलक्षणम् एनम् आत्मानं विदित्वा तत्कृते न अनुशोचितुम् अर्हसि।