श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।2.26।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.26।। हे महाबाहो ! अगर तुम इस देहीको नित्य पैदा होनेवाला अथवा नित्य मरनेवाला भी मानो, तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.26।। और यदि तुम आत्मा को नित्य जन्मने और नित्य मरने वाला मानो तो भी,  हे महाबाहो !  इस प्रकार शोक करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।2.26।।एवमात्मनो निर्विकारत्वेनाशोच्यत्वमुक्तम्। इदानीं विकारवत्त्वमभ्युपेत्यापि श्लोकद्वयेनाशोच्यत्वं प्रतिपादयति भगवान् तत्र आत्मा ज्ञानस्वरूपः प्रतिक्षणविनाशीत सौगताः देह एवात्मा स च स्थिरोऽप्यनुक्षणपरिणामी जायते नश्यति चेति

प्रत्यक्षसिद्धमेवैतदिति लोकायतिकाः। देहातिरिक्तोऽपि देहेन सहैव जायते नश्यति चेत्यन्ये। सर्गाद्यकाल एवाकाशवज्जायते देहभेदेऽप्यनुवर्तमान एवाकल्पस्थायी नश्यति प्रलय इत्यपरे। नित्यएवात्मा जायते म्रियते चेति तार्किकाः। तथाहि प्रेत्यभावो जन्म सचापूर्वदेहेन्द्रियादिसंबन्धः। एवं मरणमपि पूर्वदेहेन्द्रियादिविच्छेदः। इदं चोभयं धर्माधर्मनिमित्तत्वात्तदाधारस्य नित्यस्यैव मुख्यम्। अनित्यस्य तु कृतहान्यकृताभ्यागमप्रसङ्गेन धर्माधर्माधारत्वानुपपत्तेर्न जन्ममरणे मुख्ये इति वदन्ति। नित्यस्याप्यात्मनः कर्णशष्कुलीजन्मनाप्याकाशस्येव देहजन्मना जन्म तन्नाशाच्च मरणं तदुभयमौपाधिकममुख्यमेवेत्यन्ये। तत्रानित्यत्वपक्षेऽपि शोच्यत्वमात्मनो निषेधति अथेति पक्षान्तरे। चोप्यर्थे। यदि

दुर्बोधत्वादात्मवस्तुनोऽसकृच्छ्रवणेऽप्यवधारणासामर्थ्यान्मदुक्तपक्षानङ्गीकारेण पक्षान्तरमभ्युपैषि तत्राप्यनित्यत्वपक्षमेवाश्रित्य यद्येनमात्मानं नित्यजातं नित्यमृतं वा मन्यसे। वाशब्दाश्चार्थे। क्षणिकत्वपक्षे नित्यं प्रतिक्षणं पक्षान्तरे आवश्यकत्वान्नित्यं नियतं जातोऽयं मृतोऽयमिति लौकिकप्रत्ययवशेन यदि कल्पयसि तथापि हे महाबाहो पुरुषधौरेयेति सोपहासम्।

कुमताभ्युपगमात्त्वय्येतादृशी कुदृष्टिर्न संभवतीति सानुकम्पं वा। एवंअहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् इत्यादि यथा शोचसि एवं प्रकारमनुशोकं कर्तुं स्वयमपि त्वं तादृश एव सन्नार्हसि योग्यो न भवसि क्षणिकत्वपक्षे देहात्मवादपक्षे देहेन सह जन्मविनाशपक्षे च जन्मान्तराभावेन पापभयासंभवात् पापभयेनैव खलु त्वमनुशोचसि तच्चैतादृशे दर्शने न संभवतीत्यर्थः।

क्षणिकत्वपक्षे च दृष्टमपि दुःखं न संभवति बन्धुविनाशदर्शित्वाभावादित्यधिकम्। पक्षान्तरे दृष्टदुःखनिमित्तं

शोकमभ्यनुज्ञातुमेवकारः। दृष्टदुःखनिमित्तशोकसंभवेऽप्यदृष्टदुःखनिमित्तः शोकः सर्वथा नोचित इत्यर्थः प्रथमश्लोकस्य।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.26।।
अथ च इति अभ्युपगमार्थः। एनं प्रकृतमात्मानं नित्यजातं लोकप्रसिद्ध्या प्रत्यनेकशरीरोत्पत्ति जातो जात इति मन्यसे तथा प्रतितत्तद्विनाशं नित्यं वा मन्यसे मृतं मृतो मृत इति तथापि तथाभावेऽपि आत्मनि त्वं महाबाहो न एवं शोचितुमर्हसि जन्मवतो नाशो नाशवतो जन्मश्चेत्येताववश्यंभाविनाविति।।
तथा च सति

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।2.26।। 26 और 27 इन दो श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण ने भौतिकवादी विचारकों का दृष्टिकोण केवल तर्क के लिए प्रस्तुत किया है। इस मत के अनुसार केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही ज्ञान का साधन है अर्थात् इन्द्रियों को जो ज्ञात है केवल वही सत्य है। इस प्रकार मानने पर उन्हें यह स्वीकार करना पड़ता है कि जीवन असंख्य जन्म और मृत्युओं की एक धारा या प्रवाह है। वस्तुयें निरन्तर उत्पन्न और नष्ट होती हैं और उनके मत के अनुसार यही जीवन है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि जन्ममृत्यु का यह निरन्तर प्रवाह ही जीवन हो तब भी हे शक्तिशाली अर्जुन तुमको शोक नहीं करना चाहिये। क्योंकि

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.26।।औपचारिक रूपसे आत्माकी अनित्यता स्वीकार करके यह कहते हैं

अथ च ये दोनों अव्यय औपचारिक स्वीकृतिके बोधक हैं।
यदि तू इस आत्माको सदा जन्मनेवाला अर्थात् लोकप्रसिद्धिके अनुसार अनेक शरीरोंकी प्रत्येक उत्पत्तिके

साथसाथ उत्पन्न हुआ माने तथा उनके प्रत्येक विनाशके साथसाथ सदा नष्ट हुआ माने।
तो भी अर्थात् ऐसे नित्य जन्मने और नित्य मरनेवाले आत्माके निमित्त भी हे महाबाहो तुझे इस प्रकार शोक करना उचित नहीं है क्योंकि जन्मनेवालेका मरण और मरनेवालेका जन्म यह दोनों अवश्य ही होनेवाले हैं।



Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।2.26।।अस्त्वेवमात्मनो नित्यत्वम् तथापि देहसंयोगवियोगात्मकजनिमृती स्त एवेत्यत आह अथ चेति।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।2.26।। अथ नित्यजातं नित्यमृतं  देहम् एव  एनम्  आत्मानं  मनुषे  न देहातिरिक्तम् उक्तलक्षणं  तथापि  एवम् अतिमात्रं  शोचितुं न अर्हसि।  परिणामस्वभावस्य देहस्य उत्पत्तिविनाशयोः अवर्जनीयत्वात्।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

2.26 Atha va etc. On the other hand if you deam 'This' to be the body and to be born constantly,-because its stream does not stop-even then, there is no necessity to lament. Or, if, following the [Vainasika Buddhists' ?] doctrine of continuous decay of things, you deem This to be constantly dying, even then where is the need for lamenting ? If you, in the same manner, deem the Self to be constantly born or to be constantly dying on account of Its contacts and separations with bodies, even then it is unwarranted, on every account, on the part of the men of rational thinking, to lament. Otherwise this [division of] permanence and impermanence does not stand reasoning. For-

English Translation by Shri Purohit Swami

2.26 Even if thou thinkest of It as constantly being born, constantly dying, even then, O Mighty Man, thou still hast no cause to grieve.

English Translation By Swami Sivananda

2.26 But even if thou thinkest of It as being constantly born and constantly dying, even then, O mighty-armed, thou shouldst not grieve.