अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।2.28।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.28।। हे भारत ! सभी प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे, केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं। अतः इसमें शोक करनेकी बात ही क्या है?
।।2.28।। हे भारत ! समस्त प्राणी जन्म से पूर्व और मृत्यु के बाद अव्यक्त अवस्था में रहते हैं और बीच में व्यक्त होते हैं। फिर उसमें चिन्ता या शोक की क्या बात है ?
।।2.28।।तदेवं सर्वप्रकारेणात्मनोऽशोच्यत्वमुपपादितम्। अथेदानीमात्मनोऽशोच्यत्वेऽपि भूतसङ्घातात्मकानि शरीराण्युद्दिश्य शोचामीत्यर्जुनाशङ्कामपनुदति भगवान्आदौ जन्मनः प्राक् अव्यक्तान्यनुपलब्धानि पृथिव्यादिभूतमयानि शरीराणि मध्ये
जन्मानन्तरं मरणात्प्राक् व्यक्तान्युपलब्धानि सन्ति निधने पुनरव्यक्तान्येव भवन्ति यथा स्वप्नेन्द्रजालादौ प्रतिभासमात्रजीवनानि शुक्तिरूप्यादिवन्नतु ज्ञानात्प्रागूर्ध्वं वा स्थितानि दृष्टिसृष्ट्यभ्युपगमात्। तथाचआदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति न्यायेन मध्येऽपि न सन्त्येवैतानिनासतो विद्यते भावः इति प्रागुक्तेश्च। एवंसति तत्र तेषु मिथ्याभूतेष्वत्यन्ततुच्छेषु भूतेषु का परिदेवना को वा दुःखप्रलापः। न कोऽप्युचित इत्यर्थः। नहि स्वप्ने विविधान्बन्धूनुपलभ्य प्रतिबुद्धस्तद्विच्छेदेन शोचति पृथग्जनोऽपि। एतदेवोक्तं पुराणेअदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः। भूतसङ्ध इति शेषः। तथाच शरीराण्युद्दिश्य शोको नोचित इति भावः। आकाशादिमहाभूताभिप्रायेण वा श्लोको योज्यः। अव्यक्तमव्याकृतमविद्योपहितचैतन्यमादिः प्रागवस्था येषां तानि तथा व्यक्तं नामरूपाभ्यामेवाविद्यकाभ्यां प्रकटीभूतं नतु स्वेन परमार्थसदात्मना मध्यस्थित्यवस्था येषां तादृशानि भूतान्याकाशादीन्यव्यक्तनिधनान्येव अव्यक्ते स्वकारणे मृदीव घटादीनां निधनं प्रलयो येषां तेषु भूतेषु का परिदेवनेति पूर्ववत्। तथाच श्रुतिःतद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत्तन्नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियत इत्यादिरव्यक्तोपादानतां सर्वस्य प्रपञ्चस्य दर्शयति। लयस्थानत्वं तु तस्यार्थसिद्धम्। कारण एव कार्यलयस्य दर्शनाद्ग्रन्थान्तरे तु विस्तरः। तथा चाज्ञानकल्पितत्वेन
तुच्छान्याकाशादिभूतान्यप्युद्दिश्य शोको नोचितश्चेत्तत्कार्याण्युद्दिश्य नोचित इति किमु वक्तव्यमिति भावः। अथवा सर्वदा
तेषामव्यक्तरूपेण विद्यमानत्वाद्विच्छेदाभावेन तन्निमित्तः प्रलापो नोचित इत्यर्थः। भारतेत्यनेन संबोधयन् शुद्धवंशोद्भवत्वेन
शास्त्रीयमर्थं प्रतिपत्तुमर्होऽसि किमिति न प्रतिपद्यस इति सूचयति।
।।2.28।।
अव्यक्तादीनि अव्यक्तम् अदर्शनम् अनुपलब्धिः आदिः येषां भूतानां पुत्रमित्रादिकार्यकरणसंघातात्मकानां तानि अव्यक्तादीनि भूतानि प्रागुत्पत्तेः उत्पन्नानि च प्राङ्मरणात् व्यक्तमध्यानि। अव्यक्तनिधनान्येव पुनः अव्यक्तम् अदर्शनं निधनं मरणं येषां तानि अव्यक्तनिधनानि। मरणादूर्ध्वमप्यव्यक्ततामेव प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः। तथा चोक्तम्
अदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः। नासौ तव न तस्य त्वं वृथा का परिदेवना इति। तत्र का परिदेवना को वा प्रलापः अदृष्टदृष्टप्रनष्टभ्रान्तिभूतेषु भूतेष्वित्यर्थः।।
दुर्विज्ञेयोऽयं प्रकृत आत्मा किं त्वामेवैकमुपालभे साधारणे भ्रान्तिनिमित्ते। कथं दुर्विज्ञेयोऽयमात्मा इत्यत आह
।।2.28।। इस श्लोक से लेकर आगे के कुछ श्लोकों में संसार के सामान्य मनुष्य के दृष्टिकोण से समस्या को अर्जुन के समक्ष बड़ी सुन्दरता से प्रस्तुत किया गया है। इन दस श्लोकों में श्रीकृष्ण समस्या का स्पष्टीकरण सामान्य व्यक्ति की दृष्टि एवं बुद्धि के अनुसार प्रस्तुत करते हैं।
इस भौतिक जगत् में कार्यकरण का नियम अबाधरूप से कार्य करते हुए अनुभव में आता है। कार्य की उत्पत्ति कारण से होती है। सामान्यत कार्य व्यक्त रूप में दिखाई देता है और कारण अव्यक्त रहता है। अत सृष्टिका अर्थ है वस्तुओं का अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आ जाना। यही क्रम निरन्तर नियमपूर्वक चलता रहता है।
इस प्रकार आज का व्यक्त इसके पूवर् कल अव्यक्त था वर्तमान में वह व्यक्त रूप में उपलब्ध है परन्तु भविष्य में फिर अव्यक्त अवस्था में विलीन हो जायेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान स्थिति अज्ञात से आयी और पुन अज्ञात में लीन हो जायेगी। ऐसा समझने पर दुख का कोई कारण नहीं रह जाता क्योंकि एक चक्र के आरे निरन्तर घूमते हुए नीचे भी आते हैं तो केवल बाद में ऊपर उठने के लिए ही।
उदाहरणार्थ स्वप्न के पत्नी और शिशु पहले अव्यक्त थे और जागने पर फिर लुप्त हो जाते हैं तो एक ब्रह्मचारी को उस पत्नी और शिशु के लिए शोक करने का क्या कारण है जिसके साथ उसका विवाह कभी हुआ ही नहीं था और जिस शिशु का कभी जन्म ही नहीं हुआ था
यदि जैसा कि भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा इस जगत् की उत्पत्ति और लय का चक्र निरन्तर एक पारमार्थिक नित्य अविकारी सत्य के रूप में ही चल रहा है तो क्या कारण है कि उस सत्य को बारम्बार बताने पर भी हम समझ नहीं पाते श्रीशंकराचार्य के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण यह विचार करते हैं कि इस सत्य को न समझने के लिए अर्जुन को दोष देना उचित नहीं है।
श्री शंकराचार्य कहते हैं इस आत्मा का साक्षात् अनुभव करके उसे यथार्थ में जानना कठिन है। तुम्हें ही मैं दोष क्यों दूँ जबकि इसका कारण अज्ञान सबके लिए समान है कोई पूछ सकता है कि आत्मानुभव में इतनी कठिनाई क्या है भगवान् कहते हैं
।।2.28।।कार्यकरणके संघातरूप ही प्राणियोंको माने तो उनके उद्देश्यसे भी शोक करना उचित नहीं है क्योंकि
अव्यक्त यानी न दीखना उपलब्ध न होना ही जिनकी आदि है ऐसे ये कार्यकरणके संघातरूप पुत्र मित्र आदि समस्त भूत अव्यक्तादि हैं अर्थात् जन्मसे पहले ये सब अदृश्य थे।
उत्पन्न होकर मरणसे पहलेपहल बीचमें व्यक्त हैं दृश्य हैं। और पुनः अव्यक्तनिधन हैं अदृश्य होना ही जिनका निधन यानी मरण है उनको अव्यक्तनिधन कहते हैं अभिप्राय यह कि मरनेके बाद भी ये सब अदृश्य हो ही जाते हैं।
ऐसे ही कहा भी है कि यह भूतसंघात अदर्शनसे आया और पुनः अदृश्य हो गया। न वह तेरा है और न तू उसका है व्यर्थ ही शोक किस लिये
सुतरां इनके विषयमें अर्थात् बिना हुए ही दीखने और नष्ट होनेवाले भ्रान्तिरूप भूतोंके विषयमें चिन्ता ही क्या है रोनापीटना भी किस लिये है।
।।2.28।।तदेव स्पष्टयति अव्यक्तादीनीति।
।।2.28।।मनुष्यादि भूतानि सन्ति एव द्रव्याणि अनुपलब्धपूर्वावस्थानि उपलब्धमनुष्यत्वादिमध्यमावस्थानि अनुपलब्धोत्तरावस्थानि स्वेषु स्वभावेषु वर्तन्ते इति न तत्र परिदेवना निमित्तिम् अस्ति।
एवं शरीरात्मवादे अपि नास्ति शोकनिमित्तम् इति उक्त्वा शरीरातिरिक्त आश्चर्यस्वरूप आत्मनि द्रष्टा वक्ता श्रोता श्रवणायत्तात्मनिश्चयः च दुर्लभ इत्याह