श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.55।। श्रीभगवान् बोले - हे पृथानन्दन ! जिस कालमें साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
।।2.55।। श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
।।2.55।।एतेषां चतुर्णां प्रश्नानां क्रमेणोत्तरं भगवानुवाच यावदध्यायसमाप्ति कामान् कामसंकल्पादीन्मनोवृत्तिविशेषान्
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतिभेदेन तन्त्रान्तरे पञ्चधा प्रपञ्चितान्सर्वान्निरवशेषान्प्रकर्षेण कारणबाधेन यदा जहाति परित्यजति सर्ववृत्तिशून्य एव यदा भवति स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते। समाधिस्थ इति शेषः। कामानामनात्मधर्मत्वेन परित्यागयोग्यतामाह मनोगतानिति। यदि ह्यात्मधर्माः स्युस्तदा न त्यक्तुं शक्येरन् वह्न्यौष्ण्यवत्स्वाभाविकत्वात्। मनसस्तु धर्मा एते।
अतस्तत्परित्यागेन परित्यक्तुं शक्या एवेत्यर्थः। ननु स्थितप्रज्ञस्य मुखप्रसादलिङ्गगम्यः संतोषविशेषः प्रतीयते स कथं
सर्वकामपरित्यागे स्यादित्यत आह आत्मन्येव परमानन्दरूपे नत्वनात्मनि तुच्छे आत्मना स्वप्रकाशचिद्रूपेण भासमाने नतु वृत्त्या तुष्टः परितृप्तः परमपुरुषार्थलाभात्। तथाच श्रुतिःयदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते इति। तथाच समाधिस्थः स्थितप्रज्ञ एवंविधैर्लक्षणवाचिभिः शब्दैर्भाष्यत इति प्रथमप्रश्नस्योत्तरम्।
।।2.55।।
प्रजहाति प्रकर्षेण जहाति परित्यजति यदा यस्मिन्काले सर्वान् समस्तान् कामान् इच्छाभेदान् हे पार्थ मनोगतान् मनसि प्रविष्टान् हृदि प्रविष्टान्। सर्वकामपरित्यागे तुष्टिकारणाभावात् शरीरधारणनिमित्तशेषे च सति उन्मत्तप्रमत्तस्येव प्रवृत्तिः प्राप्ता इत्यत उच्यते आत्मन्येव प्रत्यगात्मस्वरूपे एव आत्मना स्वेनैव बाह्यलाभनिरपेक्षः तुष्टः परमार्थदर्शनामृतरसलाभेन अन्यस्मादलंप्रत्ययवान् स्थितप्रज्ञः स्थिता प्रतिष्ठिता आत्मानात्मविवेकजा प्रज्ञा यस्य सः स्थितप्रज्ञः विद्वान् तदा उच्यते। त्यक्तपुत्रवित्तलोकैषणः संन्यासी आत्माराम आत्मक्रीडः स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः।।
किञ्च
।।2.55।। आत्मानुभवी पुरुष के आन्तरिक और बाह्य जीवन का वर्णन कर भेड़ की खाल में छिपे भालुओं के समान पाखण्डी गुरुओं से भिन्न सच्चे गुरु को पहचानने में गीता हमारी सहायता करती है। इसके अतिरिक्त यह प्रकरण साधकों के लिये विशेष महत्त्व का है क्योंकि इसमें आत्मानुभूति के लिये आवश्यक जीवन मूल्यों एवं विभिन्न परिस्थितियों में मन की स्थिति कैसी होनी चाहिये इसका विस्तार से वर्णन है।
इस विषय के प्रारम्भिक श्लोक में ही ज्ञानी पुरुष की आन्तरिक मनस्थिति के वे समस्त लक्षण वर्णित हैं जिन्हे हमको जानना चाहिये। उपनिषद् रूपी उद्यान में खिले शब्द रूपी सुमनों की इस विशिष्ट सुगन्ध से सुपरिचित होने पर ही हमें इस श्लोक में प्रयुक्त शब्दोंें का सम्यक् ज्ञान हो सकता है। जिसने मन में स्थित सभी कामनाओं को त्याग दिया वह पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है। श्रीकृष्ण ने अब तक जो कहा उसके सन्दर्भ में इस श्लोक का अध्ययन करने पर हम वास्तव में व्यास जी के प्रेरणाप्रद शब्दों के द्वारा औपनिषदीय सुरभि का अनुभव कर सकते हैं।
आत्मस्वरूप अज्ञान से दूषित बुद्धि कामनाओं के पल्लवित होने के लिये योग्य क्षेत्र बन जाती है। परन्तु जिस पुरुष का अज्ञान आत्मानुभव के सम्यक् ज्ञान से निवृत्त हो जाता है उसका निष्काम हो जाना स्वाभाविक है। यहाँ कार्य के निषेध से कारण का निषेध किया गया है। जहाँ कामनायें नहीं वहाँ अज्ञान नष्ट हो चुका है और ज्ञान तो वहाँ प्रकाशित हो ही रहा है।
यदि सामान्य जनों से ज्ञानी को विशिष्टता प्रदान करने वाला यही एक मात्र लक्षण हो तो आज का कोई भी शिक्षित व्यक्ति हिन्दू महात्मा को पागल ही समझेगा क्योंकि आत्मानुभव के बाद उस ज्ञानी में इतनी भी सार्मथ्य नहीं रहेगी कि वह इच्छा कर सके इच्छा क्या है इच्छा मन की वह क्षमता है जो भविष्य में ऐसी वस्तु को पाने की योजना बनाये जिससे कि मनुष्य पहले से अधिक सुखी बन सके। ज्ञानी पुरुष इस सार्मथ्य को भी खो देगा यह है भौतिकवादियों द्वारा की जाने वाली आलोचना।
उपर्युक्त प्रकार से इस श्लोक की आलोचना नहीं की जा सकती क्योंकि दूसरी पंक्ति में यह बताया गया है कि ज्ञानी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप में सन्तुष्ट रहता है। केवल यह नहीं कहा कि वह सब कामनाओं को त्याग देता है वरन् निश्चित रूप से वह आत्मानन्द का अनुभव करता है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि बाल्यावस्था में जिन खिलौनों के साथ बालक रमता है उनको युवावस्था में वह छोड़ देता है। आगे वृद्ध होने पर उसकी इच्छायें परिवर्तित हो जाती हैं और युवावस्था में आकर्षक प्रतीत होने वाली वस्तुओं के प्रति उसके मन में कुछ राग नहीं रह जाता।
अज्ञान दशा में मनुष्य स्वयं को परिच्छिन्न अहंकार के रूप में जानता है। इसलिये विषयोपभोग की स्पृहा अपनी भावनाओं एवं विचारों के साथ आसक्ति स्वाभाविक होती है। अज्ञान के नष्ट होने पर यह अहंकार अपने शुद्ध अनन्त स्वरूप में विलीन हो जाता है और स्थितप्रज्ञ पुरुष आत्मा द्वारा आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है। सब कामनायें समाप्त हो जाती हैं क्योंकि वह स्वयं आनन्दस्वरूप बनकर स्थित हो जाता है।
।।2.55।।श्रीभगवान् बोले हे पार्थ जब मनुष्य मनमें स्थित हृदयमें प्रविष्ट सम्पूर्ण कामनाओंको सारे इच्छा भेदोंको भली प्रकार त्याग देता है छोड़ देता है।
सारी कामनाओंका त्याग कर देनेपर तुष्टिके कारणोंका अभाव हो जाता है और शरीरधारणका हेतु जो प्रारब्ध है उसका अभाव होता नहीं अतः शरीरस्थितिके लिये उस मनुष्यकी उन्मत्तपूरे पागलके सदृश प्रवृत्ति होगी ऐसी शङ्का प्राप्त होनेपर कहते हैं
तब वह अपने अन्तरात्मस्वरूपमें ही किसी बाह्य लाभकी अपेक्षा न रखकर अपनेआप संतुष्ट रहनेवाला अर्थात् परमार्थदर्शनरूप अमृतरसलाभसे तृप्त अन्य सब अनात्मपदार्थोंसे अलंबुद्धिवाला तृष्णारहित पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है अर्थात् जिसकी आत्मअनात्मके विवेकसे उत्पन्न हुई बुद्धि स्थित हो गयी है वह स्थितप्रज्ञ यानी ज्ञानी कहा जाता है।
अभिप्राय यह कि पुत्र धन और लोककी समस्त तृष्णाओंको त्याग देनेवाला संन्यासी ही आत्माराम आत्मक्रीड और स्थितप्रज्ञ है।
।।2.55।।गमनादिप्रवृत्तिर्नात्यभिसन्धिपूर्विका मात्रादिप्रवृत्तिवदितिया निशा 2।69 इत्यादिना दर्शयिष्यँल्लक्षणं प्रथमत आह एवं परमानन्दतृप्तः किमर्थमेवं प्रवृत्तिं करोतीति प्रश्नाभिप्रायः। प्रारब्धकर्मणेषत्तिरोहितब्रह्मणो वासना प्रायोऽल्पाभिसन्धिप्रवृत्तिः सम्भवतीत्याशयवान् परिहरति। प्रायः सर्वान्कामान्प्रजहाति शुकादीनामपीषद्दर्शनात्।त्वत्पादभक्तिमिच्छन्ति ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः इत्युक्तेस्तामिच्छन्ति। यदा त्विन्द्रादीनामाग्रहो दृश्यते तदाऽभिभूतं तेषाम्। तच्चोक्तम्आधिकारिकपुंसां तु बृहत्कर्मत्वकारणात्। उद्भवाभिभवौ ज्ञाने ततोऽन्येभ्यो विलक्षणाः इति। अत एव वैलक्षण्यादनधिकारिणां आग्रहादि चेदस्ति न ते ज्ञानिन इत्यवगन्तव्यम्।
न चात्र समाधिं कुर्वतो लक्षणमुच्यतेयः सर्वत्रानभिस्नेहः 2।57 इत्यादिस्नेहनिषेधात्। नहि समाधिं कुर्वतस्तस्य शुभाशुभप्राप्तिरस्ति असम्प्रज्ञातसमाधेः। सम्प्रज्ञाते त्वविरोधस्तथापि न तत्रैवेति नियमः।कामादयो न जायन्ते ह्यपि विक्षिप्तचेतसाम्। ज्ञानिनां ज्ञाननिर्धूतमलानां देवसंश्रयात् इति च स्मृतेः। मनोगता हि कामाः अतस्तत्रैव तद्विरुद्धज्ञानोत्पत्तौ युक्तं हानं तेषामिति दर्शयति मनोगतानिति। विरोधश्चोच्यतेरसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते 2।59 इति। न चैतददृष्ट्या अपलपनीयम् पुरुषवैशेष्यात्। आत्मना परमात्मना। परमात्मन्येव स्थितः सन्। आत्माख्ये तस्मिन्स्थितस्य तत्प्रसादादेव तुष्टिर्भवतिविषयांस्तु परित्यज्य रामे स्थितिमतस्ततः। देवाद्भवति वै तुष्टिर्नान्यथा तु कथञ्चन इति नारायणरामकल्पेः अतो नात्मा जीवः।
।।2.55।।श्री भगवानुवाच आत्मनि एव आत्मना मनसा आत्मैकावलम्बनेन तुष्टः तेन तोषेण तद्व्यतिरिक्तान् सर्वान् मनोगतान् कामान् यदा प्रकर्षेण जहाति तदा अयं स्थितप्रज्ञ इति उच्यते। ज्ञाननिष्ठाकाष्ठा इयम्।
अनन्तरं ज्ञाननिष्ठस्य ततः अर्वाचीना अदूरविप्रकृष्टावस्था उच्यते