आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।2.70।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.70।। जैसे सम्पूर्ण नदियोंका जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है, पर समुद्र अपनी मर्यादामें अचल प्रतिष्ठित रहता है ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य को विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंकी कामनावाला नहीं।
।।2.70।। जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में (अनेक नदियों के) जल (उसे विचलित किये बिना) समा जाते हैं? वैसे ही जिस पुरुष के प्रति कामनाओं के विषय उसमें (विकार उत्पन्न किये बिना) समा जाते हैं? वह पुरुष शान्ति प्राप्त करता है? न कि भोगों की कामना करने वाला पुरुष।।
।।2.70।।एतादृशस्य स्थितप्रज्ञस्य सर्वविक्षेपशान्तिरप्यर्थसिद्धेति सदृष्टान्तमाह सर्वाभिर्नदीभिरापूर्यमाणं सन्तं
वृष्ट्यादिप्रभवा अपि सर्वा अपि नद्यः समुद्रं प्रविशन्ति। कीदृशम्। अचलप्रतिष्ठमनतिक्रान्तमर्यादं अचलानां मैनाकादीनां प्रतिष्ठा यस्मिन्निति वा गाम्भीर्यातिशय उक्तः। यद्वद्येन प्रकारेण निर्विकारत्वेन तद्वत्तेनैव निर्विकारत्वप्रकारेण यं स्थितप्रज्ञं
निर्विकारमेव सन्तं कामा अज्ञैर्लोकैः काम्यमानाः शब्दाद्याः सर्वे विषया अवर्जनीयतया प्रारब्धकर्मवशात्प्रविशन्ति नतु तच्चित्तं विकर्तुं शक्नुवन्ति स महासमुद्रस्थानीयः स्थितप्रज्ञः शान्तिं सर्वलौकिकालौकिककर्मविक्षेणनिवृत्तिं बाधितानुवृत्ताविद्याकार्यनिवृत्तिं चाप्नोति ज्ञानबलेन। न कामकामी कामान्विषयान्कामयितुं शीलं यस्य स कामकाम्यज्ञः शान्तिं व्याख्यातां नाप्नोति अपितु सर्वदा लौकिकालौकिककर्मविक्षेपेण महति शोकार्णवे मग्नो भवतीति वीक्यार्थः। एतेन ज्ञानिन एव फलभूतो विद्वत्संन्यासस्तस्यैव च सर्वविक्षेपनिवृत्तिरूपा जीवन्मुक्तिर्दैवाधीनविषयभोगेऽपि निर्विकारतेत्यादिकमुक्तं वेदितव्यम्।
।।2.70।।
आपूर्यमाणम् अद्भिः अचलप्रतिष्ठम् अचलतया प्रतिष्ठा अवस्थितिः यस्य तम् अचलप्रतिष्ठं समुद्रम् आपः सर्वतो गताः प्रविशन्ति स्वात्मस्थमविक्रियमेव सन्तं यद्वत् तद्वत् कामाः विषयसंनिधावपि सर्वतः इच्छाविशेषाः यं पुरुषम् समुद्रमिव आपः अविकुर्वन्तः प्रविशन्ति सर्वे आत्मन्येव प्रलीयन्ते न स्वात्मवशं कुर्वन्ति सः शान्तिं मोक्षम् आप्नो ति न इतरः कामकामी काम्यन्त इति कामाः विषयाः तान् कामयितुं शीलं यस्य सः कामकामी नैव प्राप्नोति इत्यर्थः।।
यस्मादेवं तस्मात्
।।2.70।। यह सुविदित तथ्य है कि यद्यपि करोड़ों गैलन पानी अनेक सरिताओं द्वारा विभिन्न दिशाओं से आकर निरन्तर समुद्र में समाता रहता है तथापि समुद्र की मर्यादा किसी प्रकार भंग नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से असंख्य विषय संवेदनाएँ ज्ञानी पुरुष के मन में पहुँचती रहती हैं फिर भी वे उसके अन्तकरण में किसी प्रकार का भी विकार अथवा क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकतीं।
विषयों के बीच रहता हुआ इन्द्रियों के द्वारा समस्त व्यवहार करता हुआ भी जो पुरुष स्वस्वरूप की स्थिति से विचलित नहीं होता वही ज्ञानी है सन्त है। भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि ऐसा पुरुष ही वास्तविक शान्ति और आनन्द प्राप्त करता है। इतना कहने मात्र से मानो उन्हें सन्तोष नहीं होता और आगे वे कहते हैं भोगों की कामना करने वाले पुरुषों को कभी शान्ति नहीं मिलती।
उपर्युक्त विचार आधुनिक भौतिकवादी विचारधारा के सर्वथा विपरीत हैं। उनकी यह धारणा है कि अधिक इच्छाओं के होने से भौतिक उन्नति होगी और अधिक से अधिक इच्छाओं की पूर्ति से मनुष्य को सुखी बनाया जा सकता है। औद्योगीकरण और बड़ी मात्रा में उत्पादन के सिद्धांतों पर आधारित भौतिकवादी समाज का प्रयत्न मनुष्य में इच्छाओं की निरन्तर वृद्धि करने के लिए ही हो रहा है। परिणाम यह हुआ है कि आज के सामान्य मनुष्य की इच्छायें एक शताब्दी पूर्व अपने पूर्वजों की इच्छाओं से लाखगुना अधिक हैं। बड़ेबड़े व्यापारी और उद्योगपति विज्ञान की आधुनिक उपलब्धियों की सहायता से नईनई इच्छायें उत्पन्न करने और उन्हें पूर्ण करने का प्रयत्न करते रहते हैं। जिस मात्रा में मनुष्य की इच्छायें पूर्ण होती हैं उसे कहा जाता है कि अब वह पहले से कहीं अधिक सुखी है।
इसके विपरीत भारत के प्राचीन महान् विचारकों ने स्वानुभव सूक्ष्म निरीक्षण एवं अध्ययन से यह पाया कि इच्छाओं की पूर्ति से प्राप्त सुख कभी पूर्ण नहीं हो सकता। सुख की मात्रा को गणित की भाषा में इस प्रकार बताया जा सकता है
सुख की मात्रा पूर्ण हुई इच्छाओं की संख्यामन में स्थित इच्छाओं की संख्या
भौतिकवादी धर्मनिरपेक्ष आधुनिक लोग भी इस सत्य को स्वीकार तो करते हैं परन्तु उनकी तथा ऋषियों की व्यावहारिक कार्यप्रणाली बहुत भिन्न दिखाई देती है।
आज सर्वत्र अधिकसेअधिक इच्छाओं को पूर्ण करने का प्रयत्न सुख के लिए किया जाता है। प्राचीन ऋषिगण भी मानव समाज में ही रहते थे और तत्त्वज्ञान के द्वारा उनका लक्ष्य समाज को अधिक सुखी बनाना ही था। उन्होंने पहचाना कि इच्छाओं की संख्या कम किये बिना केवल अधिक से अधिक इच्छाओं की पूर्ति से न कोई वास्तविक आनन्द ही प्राप्त होता है और न ही उसमें कोई विशेष वृद्धि ही। परन्तु आज हम ऋषियों के विचार से सर्वथा भिन्न मार्ग अपना रहे हैं और इसीलिए समाज में आनन्द नहीं दिखाई देता।
औपनिषदिक सिद्धांत का ही प्रतिपादन गीता में है जिसकी प्रशंसा भारतीय कवियों द्वारा मुक्त कण्ठ से की गई है। अनेक भोगों की कामना करने वाला पुरुष कभी शान्ति प्राप्त नहीं करता। बाह्य जगत् का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन करने पर ही विषयों में हमें दुखी बनाने की सार्मथ्य आ जाती है अन्यथा वे स्वयं किसी प्रकार की हानि हमें नहीं पहुँचा सकते। आनन्दस्वरूप में स्थित ज्ञानी पुरुष इन सब विषयों से अविचलित रहता है।
स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षणों का प्रारम्भ करते हुए भगवान् ने उसकी आत्मसन्तुष्टि एवं निष्कामत्व को बताया था उसी को और अधिक विस्तार से इस श्लोक में बताया गया है।
इसलिए
।।2.70।।जिसने तीनों एषणाओंका त्याग कर दिया है ऐसे स्थितप्रज्ञ विद्वान् संन्यासीको ही मोक्ष मिलता है भोगोंकी कामना करनेवाले असंन्यासीको नहीं। इस अभिप्रायको दृष्टान्तद्वारा प्रतिपादन करनेकी इच्छा करते हुए भगवान् कहते हैं
जिस प्रकार जलसे परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुद्रमें अर्थात् अचल भावसे जिसकी प्रतिष्ठा स्थिति है ऐसे अपनी मर्यादामें स्थित समुद्रमें सब ओरसे गये हुए जल उसमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना
ही समा जाते हैं।
उसीप्रकार विषयोंका सङ्ग होनेपर भी जिस पुरुषमें समस्त इच्छाएँ समुद्रमें जलकी भाँति कोई भी विकार उत्पन्न न करती हुई सब ओरसे प्रवेश कर जाती हैं अर्थात् जिसकी समस्त कामनाएँ आत्मामें लीन हो जाती हैं उसको अपने वशमें नहीं कर सकतीं
उस पुरुषको शान्ति मोक्ष मिलता है दूसरेको अर्थात् भोगोंकी कामना करनेवालेको नहीं मिलता। अभिप्राय यह कि जिनको पानेके लिये इच्छा की जाती है उन भोगोंका नाम काम है उनको पानेकी इच्छा करना जिसका स्वभाव है वह कामकामी है वह उस शान्तिको कभी नहीं पाता।
।।2.70।।तेन विषयानुभवप्रकारमाह आपूर्यमाणमिति। यो विषयैरापूर्यमाणोऽप्यचलप्रतिष्ठो भवति नोत्सेकं प्राप्नोति न च प्रयत्नं करोति न चाभावे शुष्यति। न हि समुद्रः सरित्प्रवेशाप्रवेशनिमित्तौ वृद्धिशोषौ बहुतरौ प्राप्नोति प्रयत्नं वा करोति। स मुक्तिं प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।2.70।।यथा आत्मना एव आपूर्यमाणम् एकरूपं समुद्रं नादेया आपः प्रविशन्ति आसाम् अपां प्रवेशे अपि अप्रवेशे वा समुद्रो न कञ्चन विशेषम् आपद्यते। एवं सर्वे कामाः शब्दादिविषया यं संयमिनं प्रविशन्ति इन्द्रियगोचरतां यान्ति स शान्तिम् आप्नोति। शब्दादिषु इन्द्रियगोचरताम् आपन्नेषु अनापन्नेषु च स्वात्मावलोकनतृप्त्या एव यो न विकारम् आप्नोति स एव शान्तिम् आप्नोति इत्यर्थः न कामकामी यः शब्दादिभिर्विक्रियते स कदाचिद् अपि न शान्तिम् आप्नोति।