श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।

स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।2.72।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.72।। हे पृथानन्दन ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय, तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.72।। हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है।।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।2.72।।तदेवं चतुर्णां प्रश्नानामुत्तरव्याजेन सर्वाणि स्थितप्रज्ञलक्षणानि मुमुक्षुकर्तव्यतया कथितानि संप्रति कर्मयोगफलभूतां सांख्यनिष्ठां फलेन स्तुवन्नुपसंहरति एषा स्थितप्रज्ञलक्षणव्याजेन कथिताएषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिः इति च प्रागुक्ता स्थितिर्निष्ठा सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकपरमात्मज्ञानलक्षणा ब्राह्मी ब्रह्मविषया। हे पार्थ एनां स्थितिं प्राप्य यः कश्चिदपि पुनर्न

विमुह्यति। नहि ज्ञानबाधितस्याज्ञानस्य पुनः संभवोऽस्ति अनादित्वेनोत्पत्त्यसंभवात्। अस्यां स्थितावन्तकालेऽप्यन्त्येऽपि वयसि स्थित्वा ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मणि निर्वाणं निर्वृतिं ब्रह्मरूपं निर्वाणमिति वा ऋच्छति गच्छत्यभेदेन। किमु वक्तव्यं यो ब्रह्मचर्यादेव संन्यस्य यावज्जीवमस्यां ब्राह्म्यां स्थिताववतिष्ठते स ब्रह्मनिर्वाणमृच्छतीत्यपिशब्दार्थः।




Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.72।।

 एषा  यथोक्ता  ब्राह्मी  ब्रह्मणि भवा इयं  स्थितिः  सर्वं कर्म संन्यस्य ब्रह्मरूपेणैव अवस्थानम् इत्येतत्। हे  पार्थ न एनां  स्थितिं  प्राप्य  लब्ध्वा न  विमुह्यति  न मोहं प्राप्नोति।  स्थित्वा अस्यां  स्थितौ ब्राह्म्यां यथोक्तायां  अन्तकालेऽपि  अन्त्ये वयस्यपि  ब्रह्मनिर्वाणं  ब्रह्मनिर्वृतिं मोक्षम्  ऋच्छति  गच्छति। किमु वक्तव्यं ब्रह्मचर्यादेव संन्यस्य यावज्जीवं यो ब्रह्मण्येव अवतिष्ठते स ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति इति।।
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य

श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये

द्वितीयोऽध्यायः।।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।2.72।। सब इच्छाओं के त्याग का अर्थ है अहंकार का त्याग। अहंकार रहित अवस्था निष्क्रिय अर्थहीन शून्य नहीं है। जहाँ भ्रान्तिजनित अहंकार समाप्त हुआ वहीं पर पूर्ण ज्ञानस्वरूप आत्मा प्रकाशित होता है। अपने हृदय में स्थित आत्मा को पहचानने का ही अर्थ है उसी समय सर्वत्र व्याप्त नित्य ब्रह्म को पहचानना। अहंकार के नष्ट होने पर नित्य चैतन्य आत्मा का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता वरन् उसके साथ एकत्व का अनुभव ही होता है। अत इस साक्षात्कार को ब्राह्मी स्थिति कहा गया है।
यहाँ एक शंका उठ सकती है कि क्या आत्मानुभव के पश्चात् भी हमें पुन मोहित होकर अहंकार से उत्पन्न दुखों का भोग हो सकता है ऐसे किसी पुनर्मोह का यहाँ निषेध करके भगवान् हमारे भय को दूर कर देते हैं और भी एक बात है कि आत्मसाक्षात्कार का युवावस्था में ही होना आवश्यक नहीं हैं। वृद्धावस्था अथवा जीवन के अन्तिम क्षणों में भी यदि मनुष्य अपने स्वयंसिद्ध नित्य स्वरूप को पहचान लेता है तब भी वह अनुभव ब्राह्मी स्थिति के लिए पर्याप्त है।
मिथ्या का निषेध और सत्य का प्रतिपादन यही वह मार्ग है जिसका उपनिषदों में आत्मप्राप्ति के लिए उपदेश है। कर्मयोग उस ज्ञान का व्यावहारिक स्वरूप है जिसका निरूपण व्यासजी ने गीता में अपनी मौलिक शैली में किया है। अनासक्त भाव से सिद्धि और असिद्धि में समान रहते हुए कर्म करने का अर्थ है अहंकार के अधिकार को ही समाप्त करना और इस प्रकार अनजाने ही वहाँ उच्चतर सत्य की स्थापना करना। अस्तु वेदान्त के निदिध्यासन से गीता में वर्णित कर्मयोग की साधना भिन्न नहीं है। परन्तु अर्जुन भगवान् के केवल वाच्यार्थ को ही ग्रहण करता है और उसके मन में एक सन्देह उत्पन्न होता है जिसे वह तृतीय अध्याय के प्रारम्भ में व्यक्त करता है। अत अगले अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण कर्मयोग का विस्तारपूर्वक विवेचन करते हैं।
conclusion
ँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां

योगाशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगोनाम द्वितीयोऽध्याय।।

इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुन संवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय समाप्त होता है।
कपिल मुनि जी के सांख्य दर्शन के अर्थ में इस अध्याय का नाम सांख्ययोग नहीं है। यहाँ सांख्य शब्द का प्रयोग उसकी व्युत्पत्ति के आधार पर किया गया है जिसके अनुसार सांख्य का अर्थ हैं किसी विषय का युक्तियुक्त वह विवेचन जिसमें अनेक तर्क प्रस्तुत करने के पश्चात् किसी विवेकपूर्ण निष्कर्ष पर हम पहुँचते हैं। इस अर्थ में तत्त्वज्ञान से पूर्ण इस अध्याय को संकल्प वाक्य में सांख्ययोग कहा गया है।
यह सत्य है कि मूल महाभारत में गीता के अध्यायों के अन्त में यह संकल्प वाक्य नहीं मिलते। किसी एक व्यक्ति को इनकी रचना का श्रेय देने के विषय में व्याख्याकारों में मतभेद है। तथापि यह स्वीकार किया जाता है कि एक अथवा अनेक विद्वानों ने प्रत्येक अध्याय के विषय का अध्ययन कर उसका उचित नामकरण किया है। गीता के सभी विद्यार्थियों के लिए वास्तव में ये नाम उपयोगी हैं। श्री शंकराचार्य जी ने इस विषय पर भाष्य नहीं लिखा है।


Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.72।।( अब ) उस उपर्युक्त ज्ञाननिष्ठाकी स्तुति की जाती है

यह उपर्युक्त अवस्था ब्राह्मी यानी ब्रह्ममें होनेवाली स्थिति है अर्थात् सर्व कर्मोंका संन्यास करके केवल ब्रह्मरूपसे स्थित हो जाना है।
हे पार्थ इस स्थितिको पाकर मनुष्य फिर मोहित नहीं होता अर्थात् मोहको प्राप्त नहीं होता।
अन्तकालमें अन्तके वयमें भी इस उपर्युक्त ब्राह्मी स्थितिमें स्थित होकर मनुष्य ब्रह्ममें लीनतारूप मोक्षको लाभ करता है। फिर जो ब्रह्मचर्याश्रमसे ही संन्यास ग्रहण करके जीवनपर्यन्त ब्रह्ममें स्थित रहता है वह ब्रह्मनिर्वाणको प्राप्त होता है इसमें तो कहना ही क्या है।







Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।2.72।।उपसंहरति एषेति। ब्राह्मी स्थितिः ब्रह्मविषया स्थितिः लक्षणम्। अन्तकालेऽप्यस्यां स्थित्वैव ब्रह्म गच्छति अन्यथा जन्मान्तरं प्राप्नोति।यं यं वाऽपि 8।6 इति वक्ष्यमाणत्वात्। ज्ञानिनामपि सति प्रारब्धकर्मणि शरीरान्तरं युक्तम्।भोगेन त्वितरे इति ह्युक्तम्। सन्ति हि बहुशरीरफलानि कर्माणि कानिचित्सप्तजन्मनि विप्रः स्यात् इत्यादेः दृष्टेश्च ज्ञानिनामपि बहुशरीरप्राप्तेः। तथा ह्युक्तम्स्थितप्रज्ञोऽपि यस्तूर्ध्वः प्राप्य रुद्रपदं गतः। साङ्कर्षणं ततो मुक्तिमगाद्विष्णुप्रसादतः इति गारुडे।महादेव परे जन्मनि तव मुक्तिर्निरूप्यते इति नारदीये।
निश्चितफलं च ज्ञानं तस्य तावदेव चिरम् छां.उ.6।14।2़। यदु৷৷. च नार्चिषमेवाभिसम्भवन्ति छां.उ.4।15।5 इत्यादिश्रुतिभ्यः न च कायव्यूहापेक्षा तद्यथेषीकातूलम् छां.उ.5।24।3। तद्यथा पुष्करपलाशे छां.उ.4।14।3ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि 4।37 इत्यादिवचनेभ्यः। प्रारब्धे त्वविरोधः प्रमाणाभावाच्च। न च तच्छास्त्रं प्रमाणम्।अक्षपादकणादानां साङ्ख्ययोगजटाभृताम्। मतमालम्ब्य ये वेदं दूषयन्त्यल्पचेतसः इति निन्दावचनात्।
यत्र तु स्तुतिस्तत्र शिवभक्तानां स्तुतिपरत्वमेव न सत्यत्वम्। न हि तेषामपीतरग्रन्थविरुद्धार्थे प्रामाण्यम्। तथाह्युक्तम्एष मोहं सृजाम्याशु यो जनान्मोहयिप्यति। त्वं च रुद्र महाबाहो मोहशास्त्राणि कारय। अतथ्यानि वितथ्यानि दर्शयस्व महाभुज। प्रकाशं कुरु चात्मानमप्रकाशं च मां कुरु इति वाराहे।कुत्सितानि च मिश्राणि रुद्रो विष्णुप्रचोदितः। चकार शास्त्राणि विभुः ऋषयस्तत्प्रचोदिताः। दधीचाद्याः पुराणानि तच्छास्त्रसमयेन तु। चक्रुर्वेदैश्च ब्राह्मणानि वैष्णवा विष्णुचोदिताः। पञ्चरात्रं भारतं च मूलरामायणं तथा। तथा पुराणं भागवतं विष्णुर्वेद इतीरितः। अतः शैवपुराणानि योज्यान्यन्याविरोधतः इति नारदीये।
अतो ज्ञानिनां भवत्येव मुक्तिः। भीष्मादीनां तु तत्क्षणे मुक्त्यभावः। स्मरंस्त्यजतीति वर्तमानव्यपदेशो हि कृतः। तच्चोक्तम्ज्ञानिनां क्रमयुक्तानां कायत्यागक्षणो यदा। विष्णुमाया तदा तेषां मनो बाह्यं करोति हि इति गारुडे। न चान्येषां तदा स्मृतिर्भवति।बहुजन्मविपाकेन भक्तिज्ञानेन ये हरिम्। भजन्ति तत्स्मृतिं त्वन्ते देवो याति न चान्यथा इति ब्रह्मवैवर्ते। निर्वाणमशरीरम्।कायो बाणं शरीरं च इत्यभिधानात्।एतद्बाणमवष्टभ्य इति प्रयोगाच्च। निर्वाणशब्दप्रतिपादनंअनिन्द्रियाः म.भा.12।336।29 इत्यादिवत्। कथमन्यथा सर्वपुराणादिप्रसिद्धाऽऽकृतिर्भगवत उपपद्यते। न चान्यद्भगवत उत्तमं ब्रह्म।ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शद्ब्यते इति भागवते।भगवन्तं परं ब्रह्मपरं ब्रह्मञ्जनार्दन।परमं यो महद्ब्रह्म म.भा.13।149।9यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। 15।18योऽप्तावतीन्द्रियग्राह्यः।नास्ति नारायणसमं न भूतं न

भविष्यति।न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यः 11।43 इत्यादिभ्यः। न च तस्य ब्रह्मणोऽशरीरत्वादेतत्कल्प्यम् तस्यापि शरीरश्रवणात् आनन्दरूपममृतम् मुं.उ.2।2।7 सुवर्णज्योतिः तै.उ.3।10।6 दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशः छां.उ.8।1।2 इत्यादिषु।
यदि रूपं न स्यात् आनन्दमित्येव स्यात् न त्वानन्दरूपमिति। कथं सुवर्णरूपत्वं स्यादरूपस्य कथं दहरत्वम् दहरस्थश्च केचित्स्वदेहेत्यादौ रूपवानुच्यते सहस्रशीर्षा पुरुषः ऋक्सं.8।4।17।1य.सं.31।1 रुक्मवर्णं कर्तारं मुं.उ.3।1।3 आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् य.सं.31।18 सर्वतः पाणिपादं तत् 13।13श्वे.उ.3।16 विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः। ऋक्सं. 8।3।16।3य.सं.17।19 इत्यादिवचनात्। विश्वरूपाध्यायादेश्च रूपवानवसीयते। अतिपरिपूर्णतमज्ञानैश्वर्यवीर्यानन्दयशश्श्रीशक्त्यादिमांश्च भगवान्। पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकीं ज्ञानबलक्रिया च। श्वे.उ.6।8 यः सर्वज्ञः मुं.उ.1।1।92।2।7 आनन्दं ब्रह्मणः तै.उ.2।4।12।9।1 एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति। बृ.उ.4।3।32अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यसहस्रलक्षामितकान्तिकान्तम्।मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतोऽनन्तविग्रहे भाग.6।4।48विज्ञानशक्तिरहमासमन्तशक्तेः भाग.3।9।24तुर्यं तत्सर्वदृक् सदा। गौ.पा.का.1।12आत्मानमन्यं च स वेद विद्वान् भाग.11।11।7अन्यतमो मुकुन्दात्को नाम लोके भगवत्पदार्थः भाग.3।18।21ऐश्वर्यस्य समग्रस्य। वि.पु.6।5।74अतीव परिपूर्णं ते सुखं ज्ञानं च सौभगम्। यच्चात्ययुक्तं स्मर्तुं वा शक्तः कर्तुमतः परः इत्यादिभ्यः। तानि सर्वाण्यन्योन्यानन्यरूपाणि। विज्ञानमानन्दं ब्रह्म बृ.उ.3।9।28 आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् तै.उ.3।6 सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म तै.उ.2।1 यस्य ज्ञानमयं तपः मुं.उ.।1।19 समा भग प्रविश स्वाहा तै.उ.1।4।3न तस्य प्राकृता मूर्तिर्मांसमेदोस्थिसम्भवा। न योगित्वादीश्वरत्वात्सत्यरूपोऽच्युतो विभुः। सद्देहःसुखगन्धश्च ज्ञानभाः सत्पराक्रमः। ज्ञानज्ञानः सुखसुखः स विष्णुः परमोऽक्षरः इति पैङ्गिखिले।देहोऽयं मे सदानन्दो नायं प्रकृतिनिर्मितः। परिपूर्णश्च सर्वत्र तेन नारायणोऽस्म्यहम्। इत्यादि ब्रह्मवैवर्ते।
तदेव लीलया चासौ परिच्छिन्नादिरूपेण दर्शयति मायया।न च गर्भैऽवसद्देव्या न चापि वसुदेवतः। न चापि राघवाज्जातो न चापि जमदग्नितः। नित्यानन्दोऽव्ययोऽप्येवं क्रीडते मोघदर्शनः इति च पाद्मे।न वै स आत्माऽऽत्मव (तां सुहृत्तमाः सक्तस्त्रिलोक्यां) तामधीश्वरो भुङ्क्ते हि दुःखं भगवान्वासुदेवः भाग.5।19।6स्वर्गादेरीशिताञ्जः परमसुखनिधिर्बोधरूपोऽय बोधं लोकानां दर्शयन्यो मुनिसुतहृतात्मप्रियार्थे जगाम।स ब्रह्मवन्द्यचरणो जनमोहनाय स्त्रीसङ्गिनामिति रतिं प्रथयंश्चचार।पूर्तेरचिन्त्यवीर्यो यो यश्च दाशरथिः स्वयम्। रुद्रवाक्यमृतं कर्तुमजितो जितवत्स्थितः। योऽजितो विजितो भक्त्या गाङ्गेयं न जघान ह। न चाम्बां ग्राहयामास करुणः कोऽपरस्ततः इत्यादिभ्यश्च स्कान्दे।
न तत्र संसारधर्मा निरूप्याः यत्र च परापरभेदोऽवगम्यते तत्राज्ञबुद्धिमपेक्ष्यावरत्वं विश्वरूपमपेक्ष्य अन्यत्र। तच्चोक्तम् परिपूर्णानि रूपाणि समान्यखिलरूपतः। तथाप्यपेक्ष्य मन्दानां दृष्टिं त्वामृषयोऽपि हि। परावरं वदन्त्येव ह्यभक्तानां विमोहनम् इति गारु़डे। न चात्र किञ्चिदुपचारादिति वाच्यम् अचिन्त्यशक्तेः पदार्थवैचित्र्याच्चेत्युक्तम्।रामकृष्णादिरूपाणि परिपूर्णानि सर्वदा। न चाणुमात्रं भिन्नानि तथाप्यस्प्तान्विमोहसि इत्यादेश्च नारदीये। तस्मात्सर्वदा सर्वरूपेष्वपरिगणितानन्तगुणगणं नित्यनिरस्ताशेषदोषं च नारायणाख्यं परं ब्रह्मापरोक्षज्ञान्यृच्छतीति च सिद्धम्।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।2.72।। एषा  नित्यात्मज्ञानपूर्विका असङ्गकर्मणि  स्थितिः  स्थितधीलक्षणा  ब्राह्मी  ब्रह्मप्रापिका। ईदृशीं कर्मस्थितिं  प्राप्य न विमुह्यति  न पुनः संसारम् आप्नोति।  अस्यां  स्थित्याम् अन्तिमे अपि वयसि  स्थित्वा ब्रह्म निर्वाणम् ऋच्छति  निर्वाणमयं ब्रह्म गच्छति सुखैकतानम् आत्मानम् आप्नोति इत्यर्थः।
एवम् आत्मयाथात्म्यं युद्धाख्यस्य च कर्मणः तत्प्राप्तिसाधनताम् अजानतः शरीरात्मज्ञानेन मोहितस्य तेन च मोहेन युद्धात् निवृत्तस्य तन्मोहशान्तये नित्यात्मविषया सांख्यबुद्धिः तत्पूर्विका च असङ्गकर्मानुष्ठानरूपकर्मयोगविषया बुद्धिः स्थितप्रज्ञतायोगसाधनभूता द्वितीयेऽध्याये प्रोक्ता। तदुक्तम् नित्यात्मासङ्गकर्मेहागोचरा सांख्ययोगधीः। द्वितीये स्थितधीलक्ष्या प्रोक्ता तन्मोहशान्तये।। (गीतार्थसंग्रहे 6) इति।


English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

2.72 Esa etc. This is the Brahman-existance by remaining, i.e., having dwalt in which, even for a moment, one attains the Supreme Brahman [after] one's body breaks. Thus [all the] four estions have been decided.

English Translation by Shri Purohit Swami

2.72 O Arjuna! This is the state of the Self, the Supreme Spirit, to which if a man once attain, it shall never be taken from him. Even at the time of leaving the body, he will remain firmly enthroned there, and will become one with the Eternal."

English Translation By Swami Sivananda

2.72 This is the Brahmic seat (eternal state), O son of Pritha. Attaining to this, none is deluded. Being established therein, even at the end of life, one attains to oneness with Brahman.