श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3.3।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।3.3।। श्रीभगवान् बोले - हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोकमें दो प्रकारसे होनेवाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे होती है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।3.3।। श्री भगवान् ने कहा हे निष्पाप (अनघ) अर्जुन इस श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की (सांख्यानां) ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से।।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।3.2 3.3।।ननु नाहं कंचिदपि प्रतारयामि कि पुनस्त्वामतिप्रियम्। त्वं तु किं मे प्रतारणाचिन्हं पश्यसीति चेत्तत्राह तव वचनं व्यामिश्रं न भवत्येव ममत्वेकाधिकारिकत्वभिन्नाधिकारिकत्वसंदेहाद्व्यामिश्रं संकीर्णार्थमिव ते यद्वाक्यं मांप्रतिज्ञानकर्मनिष्ठाद्वयप्रतिपादकं तेन वाक्येन त्वं मे मम मन्दबुद्धेर्वाक्यतात्पर्यापरिज्ञानाद्बुद्धिमन्तःकरणं मोहयसीव भ्रान्त्या योजयसीव। परमकारुणिकत्वात्त्वं न मोहयस्येव। मम तु स्वाशयदोषान्मोहो भवतीतीवशब्दार्थः। एकाधिकारित्वे विरुद्धयोः समुच्चयानुपपत्तेरेकार्थत्वाभावेन च विकल्पानुपपत्तेः प्रागुक्तेर्यद्यधिकारिभेदं मन्यसे तदैकं मांप्रति विरुद्धयोर्निष्ठयोरुपदेशायोगात्तज्ज्ञानं वा कर्म वैकमेवाधिकारं मे निश्चित्य वद। येनाधिकारनिश्चयपुरःसरमुक्तेन त्वया मया चानुष्ठितेन ज्ञानेन कर्मणा वैकेन श्रेयो मोक्षमहमाप्नुयां प्राप्तुं योग्यः स्याम्। एवं ज्ञानकर्मनिष्ठयोरेकाधिकारित्वे विकल्पसमुच्चययोरसंभवादधिकारिभेदज्ञानायार्जुनस्य प्रश्न इति स्थितम्।इहेतरेषां कुमतं समस्तं श्रुतिस्मृतिन्यायबलान्निरस्तम्। पुनः पुनर्भाष्यकृतातियत्नादतो न तत्कर्तुमहं प्रवृत्तः।।भाष्यकारमतसारदर्शिना ग्रन्थमात्रमिह योज्यते मया। आशयो भगवतः प्रकाश्यते केवलं स्ववचसो विशुद्धये।। एवमधिकारिभेदेऽर्जुनेन पृष्टे तदनुरुपं प्रतिवचनं श्रीभगवानुवाच अस्मिन्नधिकारित्वाभिमते लोके शुद्धाशुद्धान्तःकरणभेदेन द्विविधे जने द्विविधा द्विप्रकारा निष्ठा स्थितिर्ज्ञानपरता कर्मपरता च पुरा पूर्वाध्याये मया तवात्यन्तहितकारिणा प्रोक्ता प्रकर्षेण स्पष्टत्वलक्षणेनोक्ता। तथा चाधिकार्यैक्यशङ्कया माग्लासीरिति भावः। हे अनघ अपापेति संबोधयन्नुपदेशयोग्यतामर्जुनस्य सूचयति। एकैव निष्ठा साध्यसाधनावस्थाभेदेन द्विप्रकारा नतु द्वे एव स्वतन्त्रे निष्ठे इति कथयितुं निष्ठेत्येकवचनम्। तथाच वक्ष्यतिएकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति इति। तामेव निष्ठां द्वैविध्येन दर्शयति सांख्येति। संख्या सम्यगात्मबुद्धिस्तां प्राप्तवतां ब्रह्मचर्यादेव कृतसंन्यासानां वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थानां ज्ञानभूमिमारूढानां शुद्धान्तःकरणानां सांख्यानां ज्ञानयोगेन ज्ञानमेव युज्यते ब्रह्मणानेनेति व्युत्पत्त्या योगस्तेन निष्ठोक्तातानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः इत्यादिना। अशुद्धान्तःकरणानां तु ज्ञानभूमिमनारूढानां योगिनां कर्माधिकारयोगिनां कर्मयोगेन कर्मैव युज्यतेऽन्तःकरणशुद्ध्यानेनेति व्युत्पत्त्या योगस्तेन निष्ठोक्तान्तःकरणशुद्धिद्वारा ज्ञानभूमिकारोहणार्थंधर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते इत्यादिना। अतएव न ज्ञानकर्मणोः समुच्चयो विकल्पो वा किंतु निष्कामकर्मणा शुद्धान्तःकरणानां सर्वकर्मसंन्यासेनैव ज्ञानमिति चित्तशुद्ध्यशुद्धिरूपावस्थाभेदेनैकमेव त्वांप्रति द्विविधा निष्ठोक्ताएषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु इति। अतो भूमिकाभेदेनैकमेव प्रत्युभयोपयोगान्नाधिकारभेदेऽप्युपदेशवैयर्थ्यमित्यभिप्रायः। एतदेव दर्शयितुमशुद्धचित्तस्य चित्तशुद्धिपर्यन्तं कर्मानुष्ठानंन कर्मणामनारम्भात् इत्यादिभिःमोघं पार्थ स जीवति इत्यन्तैस्त्रयोदशभिर्दर्शयति। शुद्धचित्तस्य तु ज्ञानिनो न किंचिदपि कर्मापेक्षितमिति दर्शयतियस्त्वात्मरतिरेव इति द्वाभ्याम्।तस्मादसक्तः इत्यारभ्य तु बन्धहेतोरपि कर्मणो मोक्षहेतुत्वं सत्त्वशुद्धिज्ञानोत्पत्तिद्वारेण संभवति फलाभिसंधिराहित्यरूपकौशलेनेति दर्शयिष्यति। ततः परंतुअथ केन इति प्रश्नमुत्थाप्य कामदोषेणैव काम्यकर्मणः शुद्धिहेतुत्वं नास्ति। अतः कामराहित्येनैव कर्माणि कुर्वन्नन्तःकरणशुद्ध्य ज्ञानाधिकारी भविष्यसीति यावदध्यायसमाप्ति वदिष्यति भगवान्।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।3.3।। लोके अस्मिन् शास्त्रार्थानुष्ठानाधिकृतानां त्रैवर्णिकानां द्विविधा द्विप्रकारा निष्ठा स्थितिः अनुष्ठेयतात्पर्यं पुरा पूर्वं सर्गादौ प्रजाः सृष्ट्वा तासाम् अभ्युदयनिःश्रेयसप्राप्तिसाधनं वेदार्थसंप्रदायमाविष्कुर्वता प्रोक्ता मया सर्वज्ञेन ईश्वरेण हे अनघ अपाप। तत्र का सा द्विविधा निष्ठा इत्याह तत्र ज्ञानयोगेन ज्ञानमेव योगः तेन सांख्यानाम् अत्मानात्मविषयविवेकविज्ञानवतां ब्रह्मचर्याश्रमादेव कृतसंन्यासानां वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थानां परमहंसपरिव्राजकानां ब्रह्मण्येव अवस्थितानां निष्ठा प्रोक्ता। कर्मयोगेन कर्मैव योगः कर्मयोगः तेन कर्मयोगेन योगिनां कर्मिणां निष्ठा प्रोक्ता इत्यर्थः। यदि च एकेन पुरुषेण एकस्मै पुरुषार्थाय ज्ञानं कर्म च समुच्चित्य अनुष्ठेयं भगवता इष्टम् उक्तं वक्ष्यमाणं वा गीतासु वेदेषु चोक्तम् कथमिह अर्जुनाय उपसन्नाय प्रियाय विशिष्टभिन्नपुरुषकर्तृके एव ज्ञानकर्मनिष्ठे ब्रूयात् यदि पुनः अर्जुनः ज्ञानं कर्म च द्वयं श्रुत्वा स्वयमेवानुष्ठास्यति अन्येषां तु भिन्नपुरुषानुष्ठेयतां वक्ष्यामि इति मतं भगवतः कल्प्येत तदा रागद्वेषवान् अप्रमाणभूतो भगवान् कल्पितः स्यात्। तच्चायुक्तम्। तस्मात् कयापि युक्त्या न समुच्चयो ज्ञानकर्मणोः।।यत् अर्जुनेन उक्तं कर्मणो ज्यायस्त्वं बुद्धेः तच्च स्थितम् अनिराकरणात्। तस्याश्च ज्ञाननिष्ठायाः संन्यासिनामेवानुष्ठेयत्वम् भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्ववचनात्। भगवतः एवमेव अनुमतमिति गम्यते।।मां च बन्धकारणे कर्मण्येव नियोजयसि इति विषण्णमनसमर्जुनम् कर्म नारभे इत्येवं मन्वानमालक्ष्य आह भगवान् न कर्मणामनारम्भात् इति। अथवा ज्ञानकर्मनिष्ठयोः परस्परविरोधात् एकेन पुरुषेण युगपत् अनुष्ठातुमशक्यत्वे सति इतरेतरानपेक्षयोरेव पुरुषार्थहेतुत्वे प्राप्ते कर्मनिष्ठाया ज्ञाननिष्ठाप्राप्तिहेतुत्वेन पुरुषार्थहेतुत्वम् न स्वातन्त्र्येण ज्ञाननिष्ठा तु कर्मनिष्ठोपायलब्धात्मिका सती स्वातन्त्र्येण पुरुषार्थहेतुः अन्यानपेक्षा इत्येतमर्थं प्रदर्शयिष्यन् आह भगवान्

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।3.3।। कर्मयोग और ज्ञानयोग को परस्पर प्रतिद्वन्द्वी मानने का अर्थ है उनमें से किसी एक को भी नहीं समझना। परस्पर पूरक होने के कारण उनका क्रम से अर्थात् एक के पश्चात् दूसरे का आश्रय लेना पड़ता है। प्रथम निष्काम भाव से कर्म करने पर मन में स्थित अनेक वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं। इस प्रकार मन के निर्मल होने पर उसमें एकाग्रता और स्थिरता आती है जिससे वह ध्यान में निमग्न होकर परमार्थ तत्त्व का साक्षात् अनुभव करता है।विदेशी संस्कृति के लोग हिन्दू धर्म को समझने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करते हैं। साधनों की विविधता और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले उपदेशों को पढ़कर उनकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है। परन्तु केवल इसी कारण से हिन्दू धर्म को अवैज्ञानिक कहने में उतनी ही बड़ी और हास्यास्पद त्रुटि होगी जितनी चिकित्साशास्त्र को विज्ञान न मानने में केवल इसीलिए कि एक ही चिकित्सक एक ही दिन में विभिन्न रोगियों को विभिन्न औषधियों द्वारा उपचार बताता है।अध्यात्म साधना करने के योग्य साधकों में दो प्रकार के लोग होते हैं क्रियाशील और मननशील। इन दोनों प्रकार के लोगों के स्वभाव में इतना अन्तर होता है कि दोनों के लिये एक ही साधना बताने का अर्थ होगा किसी एक विभाग के लोगों को निरुत्साहित करना और उनकी उपेक्षा करना। गीता केवल हिन्दुओं के लिये ही नहीं वरन् समस्त मानव जाति के कल्याणार्थ लिखा हुआ शास्त्र है। अत सभी के उपयोगार्थ उनकी मानसिक एवं बौद्धिक क्षमताओं के अनुरूप दोनों ही वर्गों के लिये साधनायें बताना आवश्यक है।अत भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि क्रियाशील स्वभाव के मनुष्य के लिये कर्मयोग तथा मननशील साधकों के लिये ज्ञानयोग का उपदेश किया गया है। पुरा शब्द से वह यह इंगित करते है कि ये दो मार्ग सृष्टि के आदिकाल से ही जगत् में विद्यमान हैं।इस श्लोक में प्रथम बार भगवान् श्रीकृष्ण अपने वास्तविक परिचय की एक झलकमात्र दिखाते हैं। यदि गीतोपदेश देवकीपुत्र कृष्ण नामक किसी र्मत्य पुरुष का ही दिया होता तो अधिक से अधिक उसमें उस व्यक्ति की बुद्धि द्वारा समझे हुए सिद्धांत ही होते जिनका आधार जीवन के उसके स्वानुभव मात्र होते। जीवन में अनुभव किये तथ्यों में परिवर्तित होते रहने का विशेष गुण होता है और इसीलिये जब वे बदलते हैं तो हमारा पूर्व का निष्कर्ष भी परिवर्तित हो जाता है। परिवर्तित सामाजिक राजनैतिक आर्थिक परिस्थितियों एवं विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति के साथ समाजशास्त्र अर्थशास्त्र एवं विज्ञान के अगणित पूर्वप्रतिपादित सिद्धांत कालबाह्य हो चुके हैं। यदि गीता में कृष्ण नामक किसी मनुष्य की बुद्धि से पहुँचे हुए निष्कर्ष मात्र होते तो वह कालबाह्य होकर अब उसके अवशेष मात्र रह गए होते यहाँ श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं सृष्टि के आदि में (पुरा) ये दो मार्ग मेरे द्वारा कहे गये थे। इसका तात्पर्य यह है कि यहाँ भगवान् वृन्दावन के नीलवर्ण गोपाल गोपियों के प्रिय सखा अथवा अपने युग के महान् राजनीतिज्ञ के रूप में नहीं बोल रहे थे। किन्तु भारतीय इतिहास के एक स्वस्वरूप के ज्ञाता तत्त्वदर्शी उपदेशक सिद्ध पुरुष एवं ईश्वर के रूप में उपदेश दे रहे थे। उस क्षण न तो वे अर्जुन के सारथि के रूप में न एक सखा के रूप में और न ही पाण्डवों के शुभेच्छु के रूप में बात कर रहे थे। उन्हें अपने पारमार्थिक स्वरूप जगत् के अधिष्ठान कारण के रूप में पूर्ण भान था। काल और कारण के अतीत सत्यस्वरूप में स्थित हुए वे इन दो मार्गों के आदि उपदेशक के रूप में अपना परिचय देते हैं।कर्मयोग लक्ष्य प्राप्ति का क्रमिक साधन है साक्षात् नहीं। अर्थात् वह ज्ञान प्राप्ति की योग्यता प्रदान करता है जिससे ज्ञानयोग के द्वारा सीधे ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इसे समझाने के लिए भगवान् कहते हैं

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.3।।प्रश्नके अनुसार ही उत्तर देते हुए श्रीभगवान् बोले हे निष्पाप अर्जुन इस मनुष्यलोकमें शास्त्रोक्त कर्म और ज्ञानके जो अधिकारी हैं ऐसे तीनों वर्णवालोंके लिये ( अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्योंके लिये ) दो प्रकारकी निष्ठास्थिति अर्थात् कर्तव्य तत्परता पहलेसृष्टिके आदिकालमें प्रजाको रचकर उनकी लौकिक उन्नति और मोक्षकी प्राप्तिके साधनरूप वैदिक सम्प्रदायको आविष्कार करनेवाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वरद्वारा कही गयी हैं। वह दो प्रकारकी निष्ठा कौनसी हैं सो कहते हैं जो आत्मअनात्मके विषयमें विवेकजन्य ज्ञानसे सम्पन्न हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्यआश्रमसे ही संन्यास ग्रहण कर लिया है जिन्होंने वेदान्तके विज्ञानद्वारा आत्मतत्त्वका भलीभाँति निश्चय कर लिया है जो परमहंस संन्यासी हैं जो निरन्तर ब्रह्ममें स्थित हैं ऐसे सांख्ययोगियोंकी निष्ठा ज्ञानरूप योगसे कही है। तथा कर्मयोगसे कर्मयोगियोंकी अर्थात् कर्म करनेवालोंकी निष्ठा कही है। यदि एक पुरुषद्वारा एक ही प्रयोजनकी सिद्धिके लिये ज्ञान और कर्म दोनों एक साथ अनुष्ठान करने योग्य हैं ऐसा अपना अभिप्राय भगवान्द्वारा गीतामें पहले कहीं कहा गया होता या आगे कहा जानेवाला होता अथवा वेदमें कहा गया होता तो शरणमें आये हुए प्रिय अर्जुनको यहाँ भगवान् यह कैसे कहते कि ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा अलगअलग भिन्नभिन्न अधिकारियोंद्वारा ही अनुष्ठान की जानेयोग्य हैं। यदि भगावन्का यह अभिप्राय मान लिया जाय कि ज्ञान और कर्म दोनोंको सुनकर अर्जुन स्वयं ही दोनोंका अनुष्ठान कर लेगा दोनोंको भिन्न भिन्न पुरुषोंद्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य तो दूसरोंके लिये कहूँगा। तब तो भगवान्को रागद्वेषयुक्त और अप्रामाणिक मानना हुआ। ऐसा मानना सर्वथा अनुचित है। इसलिये किसी भी युक्तिसे ज्ञान और कर्मका समुच्चय नहीं माना जा सकता। कर्मोंकी अपेक्षा ज्ञानकी श्रेष्ठता जो अर्जुनने कही थी वह तो सिद्ध है ही क्योंकि भगवान्ने उसका निराकरण नहीं किया। उस ज्ञाननिष्ठाके अनुष्ठानका अधिकार संन्यासियोंका ही है क्योंकि दोनों निष्ठा भिन्नभिन्न पुरुषोंद्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य बतलायी गयी हैं। इस कारण भगवान्की यही सम्मति है। यह प्रतीत होता है। बन्धनके हेतुरूप कर्मोंमें ही भगवान् मुझे लगाते हैं ऐसा समझकर व्यथितचित्त हुए और मैं कर्म नहींकरूँगा ऐसा माननेवाले अर्जुनको देखकर भगवान् बोले न कर्मणामनारम्भात् इति। अथवा ज्ञाननिष्ठाका और कर्मनिष्ठाका परस्पर विरोध होनेके कारण एक पुरुषद्वारा एक कालमें दोनोंका अनुष्ठान नहीं किया जा सकता। इससे एक दूसरेकी अपेक्षा न रखकर दोनों अलगअलग मोक्षमें हेतु हैं ऐसा शंका होनेपर

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।3.3।।ज्यायस्त्वेऽपि बुद्धेराधिकारिकत्वात् त्वं कर्मण्यधिकृत इति तत्र नियोक्ष्यामीत्याशयवान्भगवानाह लोक इति। द्विविधा अपि जनाः सन्ति गृहस्थादिकर्मत्यागेन ज्ञाननिष्ठाः सनकादिवत् तत्स्था एव ज्ञाननिष्ठाश्च जनकादिवत् मद्धर्मस्था एवेत्यर्थः। साङ्ख्यानां ज्ञानिनां सनकादीनाम्। योगिनामुपायिनां जनकादीनाम्। ज्ञाननिष्ठा अप्याधिकारिकत्वादीश्वरेच्छया लोकसङ्ग्रहार्थत्वाच्च ये कर्मयोग्या भवन्ति तेऽपि योगिनः। निष्ठा स्थितिः। त्वं तु जनकादिवत् सकर्मैव ज्ञानयोग्यः न तु सनकादिवत्तत्त्यागेनेत्यर्थः। सन्ति हीश्वरेच्छयैव कर्मकृतः प्रियव्रतादयोऽपि ज्ञानिन एव। तथा ह्युक्तम् ईश्वरेच्छया विनिवेशितकर्माधिकारः भाग.5।1।23 इति।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।3.3।।श्रीभगवानुवाच पुरा उक्तं च सम्यग् अवधृतं त्वया पुरा अपि अस्मिन् लोके विचित्राधिकारिसंपूर्णे द्विविधा निष्ठा ज्ञानकर्मविषया यथाधिकारम् असंकीर्णा एव मया उक्ता। न हि सर्वो लौकिकः पुरुषः संजातमोक्षाभिलाषः तदानीम् एव ज्ञानयोगाधिकारे प्रभवति अपि तु अनभिसंहितफलेन केवलपरमपुरुषाराधनरूपेण अनुष्ठितेन कर्मणा विध्वस्तमनोमलः अव्याकुलेन्द्रियो ज्ञाननिष्ठायाम् अधिकरोति यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।(गीता 18।46)इति परमपुरुषाराधनैकवेषता कर्मणां वक्ष्यते।

इहापिकर्मण्येवाधिकारस्ते (गीता 2।47) इत्यादिना अनभिसंहितफलं कर्म अनुष्ठेयं विधाय तेन विषयव्याकुलतारूपमोहाद् उत्तीर्णबुद्धेःप्रजहाति यदा कामान् (गीता 2।55) इत्यादिना ज्ञानयोग उदितः। अतः सांख्यानाम् एव ज्ञानयोगेन स्थितिः उक्ता योगिनां तु कर्मयोगेन।संख्या बुद्धिः तद्युक्ताः सांख्याः आत्मैकविषयया बुद्ध्या युक्ताः सांख्याः अतदर्हाः कर्मयोगाधिकारिणो योगिनः। विषयव्याकुलबुद्धियुक्तानां कर्मयोगे अधिकारः अव्याकुलबुद्धीनां तु ज्ञानयोगे अधिकार उक्तः सति न किञ्चिद् इह विरुद्धम् न अपि व्यामिश्रम् अभिहितम्।सर्वस्य लौकिकस्य पुरुषस्य मोक्षेच्छायां संजातायां सहसा एव ज्ञानयोगो दुष्कर इत्याह

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

3.3 Loke etc. In the world, this twofold path is well known. Knowledge is important for men of reflection and action for men of Yoga. But that path has been declared by Me to be only one. For, the Consciousness consists predominantly of knowledg and action. This is the idea here. For this [the Lord continues] -

English Translation by Shri Purohit Swami

3.3 Lord Shri Krishna replied: In this world, as I have said, there is a twofold path, O Sinless One! There is the Path of Wisdom for those who meditate, and the Path of Action for those who work.

English Translation By Swami Sivananda

3.3 The Blessed Lord said In this world there is a twofold path, as I said before, O sinless one; the path of knowledge of the Sankhyas and the path of action of the Yogins.